उत्तरापथ

तक्षशिला से मगध तक यात्रा एक संकल्प की . . .

पूर्ण समर्पित कार्यकर्ता का मानस!


पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने अपनी आयु के २० वे वर्ष में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के माध्यम से स्वयं को भारतमाता की सेवा में पूर्ण समर्पित कर दिया। जैसा अमूमन होता है– पैसा कमाने देश छोड़कर जाने वाले पुत्र पर गर्व करनेवाला परिवार और समाज राष्ट्रकार्य के लिए समर्पित होनेवाले युवा को रोकने का ही प्रयास करता है। उसके मन की तड़प को नहीं समझ पता और अपनी आशंकाए लेकर भयभीत होता है। दीनदयाल जी ने अपने मामा को जो पत्र लिखा वह सभी के लिए आदर्श है। इतनी विनम्र दृढ़ता ! और ध्येय की पूर्ण स्पष्टता! संघ के कार्य पर पूर्ण विश्वास!

सभी के लिए सादर प्रेषित यह भाव-पाती…

दिनांक: 21-7-1942

श्रीमान् मामाजी,
सादर प्रणाम!
आपका पत्र मिला। देवी की बिमारी का हाल जानकर दुख हुआ। आपने अपने पत्र में जो कछ लिखा सो ठीक ही लिखा है। उसका क्या उत्तर दूँ,  मेरी समझ में नहीं आता। परसों आपका पत्र मिला, तभी से विचारों का एवं कर्तव्यों का तुमुल युद्ध चल रहा है। एक ओर तो भावना और मोह खींचतें हैं तो दूसरी ओर पुरखों की आत्माएँ पुकारती हैं। आपके लिखे अनुसार पहले तो मेरा भी यही विचार था कि मै किसी स्कूल में नौकरी कर लूंगा तथा साथ ही वहाँ का संघकार्य भी करता रहूँगा । यही विचार लेकर मै लखनऊ आया था, परन्तु लखनऊ में आजकल की परिस्थिति तथा आगे कार्य का असीम क्षेत्र देखकर मुझे यही आज्ञा मिली कि बजाय एक नगर में कार्य करने के एक जिले में कार्य करना होगा। इस प्रकार सोते हुए हिन्दु समाज से मिलने वाले कार्यकर्ताओं की कमी को पूरा करना होता है। सारे जिले में काम करने के कारण न तो एक स्थान पर दो चार दिन से अधिक ठहरना सम्भव है और न किसी भी प्रकार की नौकरी। संघ के स्वयंसेवक के लिये पहला स्थान समाज और देश के कार्य का रहता है और फिर अपने व्यक्तिगत कार्यों का। अतः मुझे समाज-कार्य के लिए जो आज्ञा मिली थी, उसका पालन करना पड़ा।
मै यह मानता हूँ कि मेरे इस कार्य से आपको कष्ट हुआ होगा। परन्तु आप जैसे विचारवान्  एवं गम्भीर पुरूषों को भी समाज-कार्य में संलग्न रहते देखकर कष्ट हो तो फिर समाज-कार्य करने के लिए कौन आगे आयेगा। शायद संघ के विषय में आपको अधिक मालूम न होने के कारण आप डर गये हैं। इसका कांग्रेस से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है और नकिसी अन्य राजनैतिक संस्था से। यह आजकल की किसी भी राजनीति में भाग नहीं लेता है। न सत्याग्रह करता है और न जेल जाने में ही विश्वास रखता है। न यह अहिंसावादी है और न हिंसावादी ही। इसका तो एकमात्र कार्य हिन्दुओं में संगठन करना है। इसी कार्य को यह लगातार 17 साल से करता आ रहा है। इसकी सारे भारत वर्ष में 1000 से अधिक शाखाएँ तथा दो लाख से अधिक स्वयंसेवक हैं। मैं अकेला ही नहीं परन्तु इसी प्रकार 300 से ऊपर कार्यकर्ता हैं जो एकमात्र संघ कार्य ही करते हैं। सब शिक्षित और अच्छे घरों के हैं। बहुत से बी  ए, एम ए  और एल एल बी  पास हैं। ऐसा तो शायद ही कोई होगा जो कम से कम हाईस्कूल न हो और वह भी इने-गिने लोग। इतने लोगों ने अपना जीवन केवल समाज-कार्य के लिए क्यों दे दिया, इसका एकमात्र कारण यही है कि बिना समाज की उन्नति हुए व्यक्ति की उन्नति संभव नहीं है। व्यक्ति कितना भी क्यों न बढ़ जाए, जब तक उसका समाज उन्नत नहीं होता, तब तक उसकी उन्नति का कोई अर्थ नहीं है। यही कारण है कि हमारे यहाँ के बड़े-बड़े नेताओं का दूसरे देशों में जाकर अपमान होता है। हरिसिंह गौड़ जो हमारे यहाँ के इतने बड़े व्यक्ति हैं, वे जब इंग्लैण्ड के एक होटल में गए ता वहाँ उन्हें ठहरने को स्थान  नहीं दिया गया क्योंकि वे भारतीय थे। हिन्दुस्थान में ही आप हमारे बड़े से बड़े आदमी को ले लीजिए। क्या उसकी वास्तविक उन्नति है? मूसलमान गुण्डे बड़े से बड़े आदमी की इज्जत को पल भर में खाक में मिला देते है, क्योंकि वे स्वयं बड़े हो सकते है पर जिस समाज के वे अंग है वह तो दुर्बल है, अधःपतित है, शक्ति-हीन और स्वार्थी है। हमारे यहाँ हरेक व्यक्तिगत स्वार्थों में लीन है तथा अपनी ही सोचता है। नाव में छेद हो जाने पर अपने बोझे को आप कितना भी ऊंचा क्यों न उठाइए वह तो आपके साथ डूबेगा ही। आज हिन्दु समाज की यही हालत है। घर में आग लगी है, परन्तु हरेक अपने-अपने घर की परवाह कर रहा है। उस आग को बुझाने का किसी को भी ध्यान नहीं है। क्या आप अपनी स्थिति को सुरक्षित समझते है ? क्या आपको विश्वास है कि मौका पड़ने पर समाज आपका साथ देगा ? नहीं, इसीलिए नहीं कि हमारा समाज संगठित नहीं है, दुर्बल है, इसीलिए हमारी आरती और बाजों पर लड़ाइयाँ होती है। इसीलिए हमारी माँ, बहनों को मुसलमान भगाकर ले जाते है, अंग्रेज सिपाही उन पर निःशंक होकर दिन दहाड़े अत्याचार करते है।  और हम अपनी बड़ी भारी इज्जत का दम भरनेवाले, समाज में उंची नाक रखनेवाले अपनी फूटी आँखों से देखते रहते हैं। हम उसका प्रतिवाद नहीं कर सकते हैं। अधिक हुआ तो इस सनसनीखेज मामले की खबर अखबारों में दे दी या महात्माजी ने ‘हरीजन’ में एक आर्टिकल लिख दिया। क्यों ? क्या हिन्दुओं में ऐसे ताकदवर आदमियों की कमी है जो उन दूष्टों का मुकाबला कर सकें ? नहीं कमी तो इस बात की है कि किसी को विश्वास ही नहीं है कि वह कुछ करें तो समाज उसका साथ देगा। सच तो यह है कि किसी के हृदय में इन सब कांडों को देखकर टीस ही नहीं उठती है। जब किसी मनुष्य के किसी अंग को लकवा मार जाता है तो वह चेतनाशुन्य हो जाता है। इसी भाँति हमारे समाज को लकवा मार गया है। उसको काई कितना भी कष्ट क्यों न दे, कुछ महसूस ही नहीं होता है। हरेक तभी महसूस करता है जब चोट उसके सिर पर आकर पड़ती है। आज हुरों के आक्रमण सिंध में है। हमको उनकी परवाह नहीं परन्तु यदि वही हमारे प्रांत में होने लग जाए तब कुछ खलबली मचेगी और होश तो तब आएगा जब हमारे बहु-बेटियों में से किसी को वे उठाकर ले जाएँ। फिर व्यक्तिगत रूप से यदि कोई बड़ा हो भी गया तो उसका क्या महत्त्व। वह तो हानिकर ही है। हमारा सारा शरीर का शरीर ही मोटा होता जाए तो ठीक है परन्तु यदि खाली पैर ही सूजकर कुप्पास हो गया और बाकी शरीर वैसा ही रहा तो वह तो फिल पाँव रोग हो जाएागा। यहि कारण है कि इतने कार्यकर्ताओं ने व्यक्तिगत आकांक्षाओं को छोड़कर अपने आपको समाज की उन्नति में ही लगा दिया है। हमारे पतन का कारण हमारे संगठन की कमी है। बाकी बुराइयाँ अशिक्षा आदि तो पतित अवस्था के लक्षण मात्र ही हैं। इसीलिए संगठन करना ही संघ का ध्येय है, और यह कुछ भी नहीं करना चाहता। संघ का क्या व्यावहारिक रूप है, यह आप यदि कभी आगरा आयें तो देख सकते है। मेरा ख्याल है कि एक बार संघ के रूप को देखकर तथा उसकी उपयोगिता समझने के बाद आपको हर्ष ही होगा कि आपके एक पु़त्र ने भी इस कार्य को अपना जीवन-कार्य बनाया है। परमात्मा ने हम लोगों को सब प्रकार समर्थ बनाया है, क्या फिर हम अपने में से एक को भी देश के लिए नहीं दे सकते है? उस कार्य के लिए जिसमें न मरने का सवाल है, न जेल की यातनाएँ सहन करने का, न भूखों मरना है और न नंगा रहना है। सवाल है चन्द रूपयों के न कमाने का। वे रूपये जिनमें निजी खर्च के बाद शायद ही कुछ बचा रहता। रही व्यक्तिगत नाम और यश की बात, सो तो आप जानते ही है कि गुलामी का कैसा नाम और कैसा यश? फिर मास्टरों की तो इज्जत ही क्या है? आपने मुझे शिक्षा-दीक्षा देकर सब प्रकार से योग्य बनाया। क्या आप मुझे समाज के लिए नहीं दे सकते हैं ? जिस समाज के हम इतने ऋणी हैं। यह तो एक प्रकार से त्याग भी नहीं है, इनस्टमेंट है। समाजरूपी खेत में खाद देना है। आज हम केवल फसल काटना तो जानते हैं। पर खेत में खाद देना भूल गये है, अतः हमारा खेत जल्द ही अनउपजाऊ हो जाएगा? जिस समाज और घर्म की रक्षा के लिए राम ने वनवास सहा,  कृष्ण ने अनेकों कष्ट उठाए, राणा प्रताप जंगल-जंगल मारे फिरे, शिवाजी ने सर्वस्व अर्पण कर दिया, गुरू गोविन्दसिंह के छोटे-छोटे बच्चे जीते जी किले की दिवारों में चुने गये , क्या उनकी खातिर हम अपने जीवन की आकांक्षाओं का, झूठी आकांक्षाओं का त्याग भी नहीं कर सकते हैं? आज समाज हाथ पसारकर भीख मांगता है और यदि हम समाज की ओर से ऐसे ही उदासीन रहें, तो एक दिन वह आएगा जब हमको वे चीजें जिन्हें हम प्यार करते है, जबर्दस्ती छोंड़नी पड़ेगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि आप संघ की कार्यप्रणाली से पहिले से परिचित होते तो आपके हृदय में किसी भी प्रकार की आशंका नहीं उठती। आप यकिन रखिए कि मै ऐसा कोई भी कार्य नहीं करूंगा जिससे कोई भी आपकी ओर अंगुली उठाकर देख भी सके। उल्टा आपको गर्व होगा कि आपने देश और समाज के लिए अपने एक पुत्र को दे दिया है। बिना किसी दबाव के केवल कर्तव्य के ख्याल से आपने मेरा लालन-पालन किया। अब क्या अन्त में भावना कर्तवय को धर दबाएगी ? अब तक आपका कर्तव्य अपने परिवार तक सीमित था, अब वही कर्तव्य सारे हिन्दु समाज के प्रति हो गया है। यह तो केवल समय की प्रगति के साथ-साथ आपके कर्तव्य का विकास मात्र ही है। भावना से कर्तव्य सदैव ऊँचा रहता है। लोगों ने अपने इकलोते बेटों को सहर्ष सौंप दिया है फिर आपके पास एक के स्थान पर तीन-तीन पुत्र है, क्या उनमें से आप एक को भी समाज के लिए नहीं दे सकते हैं ? मैं जानता हूँ कि आप ‘नहीं’ नहीं कह सकते, कोई दूसरा स्वार्थी प्रवृत्ति वाला मनुष्य चाहे एक बार कुछ कह भी देता।
आप शायद सोचते होंगे कि यह क्या उपदेश लिख दिया है। न मेरी यह इच्छा है, न मेरा उद्देश्य ही यह है। इतना सब इसलिए लिखना पड़ा कि आप संघ से ठीक-ठीक परिचित हो जाए। किसी भी कार्य की भलाई-बुराई का निर्णय उसकी परिस्थितियों और उद्देश्य को देखकर ही तो किया जाता है। पं  श्यामाचरण जी मिश्र, जिनके पास मैं यहाँ ठहरा हूँ, वे स्वयं यहाँ के लीडिंग एड़वोकेट है बहुत ही माननीय (जेल जाने वाले नहीं) तथा जिम्मेदार व्यक्तियों में से है। उनकी संरक्षता में रहते हुए कोई भी गैर जिम्मेदारी का कार्य कर सकूं यह कैसे मुमकीन है।
शेष कुशल है। कृपापत्र दीजिएगा। मेरा तो ख्याल है कि देवी का एलोपैथिक इलाज बन्द करवा के होमियोपैथिक इलाज करवाइए। यदि आप देवी की पूरी हिस्ट्री और बिमारी तथा सम्पूर्ण लक्षण लिख भेजें तो यहाँ पर बहुत ही मशहूर होमियोपैथ है, उनसे पूछकर दवा लिख भेजूंगा। होमियोपैथ इलाज यदि दवा ठीक लग गई तो बिना किसी खतरे के ठीक प्रकार हो सकता है। भाइ्र साहब व भाभीजी को नमस्ते, देवी व महादेवी को स्नेह। पत्रोत्तर दीजिएगा। भाई साहब तो कभी पत्र लिखते ही नहीं।
आपका भांजा
दीना

जुलाई 10, 2011 - Posted by | चरित्र

4 टिप्पणियां »

  1. आदरणीय मुकुलजी,
    पत्र बहुतही प्रासंगिक है. उत्तरापथ दिशादर्शक है. उत्तरापथ का वाचन एक प्रकार का स्वाध्याय ही तो है. उत्तरापथ कार्यकर्ता के लिए ऊर्जा स्रोत है.

    टिप्पणी द्वारा siddharam | जुलाई 10, 2011 | प्रतिक्रिया

  2. बहुत ही जानकारी पूर्ण और जोश से भरा।

    टिप्पणी द्वारा जगदीश भाटिया | जुलाई 10, 2011 | प्रतिक्रिया

  3. isko agar hum matra ak patra na mane …….yah to ak swayam sewak ka bastibik or dharatal ka jiwan hai Great think………….bahut bahut Dhanyabad bhaisab…..

    टिप्पणी द्वारा indrajeet sharma | जुलाई 11, 2011 | प्रतिक्रिया

  4. First of all i would like to say a big thank because i think it is the problem of every karyakarta including me that our parents does not allow to do all this . They want bahgat singh will born in the neighbourhood but not in their home.
    So sabse pehle to gharwalo ko padhwata hu ye.
    one more thing is this available in english…if yes please share it.

    टिप्पणी द्वारा Deepesh | जुलाई 11, 2011 | प्रतिक्रिया


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