उत्तरापथ

तक्षशिला से मगध तक यात्रा एक संकल्प की . . .

भले कर्मकाण्डी बनो! पर मिथ्याचारी नहीं!!


माँ बेटी के साथ बैठकर टी वी देख रही है। भौंडे भौंडे संवाद और वेष सब दोनों एकसाथ देख रही हैं। दादी ने या किसी ने आपत्ति की तो तथाकथित आधुनिक मम्मी का उत्तर था। ‘मै पाखंड (Hypocrisy)  में विश्वास नहीं करती हूँ। मेरे साथ नहीं देखेगी या मे मना भी कर दूँगी तो क्या छिपके नहीं देखेगी?’ बात में तो दम लगता है। पाखण्ड को तो सभी बुरा मानेंगे। पर क्या हमने सोचा है जिसे हम पाखण्ड का नाम दे रहे हे उस ‘लज्जा’ के कारण हमारे समाज में मूल्यों की रक्षा कैसे हुई है? माँ के साथ बैठकर खुलेआम देखने और छिप छिप कर देखने में मन पर संस्कार का अंतर है। पहले प्रसंग में माँ की अनुमति के कारण जो देखा जा रहा है उसका भी अनुमोदन हो रहा है। और इस कारण उसके अनुसरण में भी कोई हिचक नहीं रहेगी। चोरी छिपे देखने में प्रक्रिया में ही बोध निहित है कि जो देखा जा रहा है वह ठीक नहीं है। सामाजिक दृष्टि से वर्जित है। अतः मन में यह विचार कम ही आयेगा कि स्वयं भी ऐसा कुछ करें। युवा अपनी संगत के कारण धुम्रपान करने लगता है। पर संस्कारों के चलते जो ‘आँख की शरम’ के कारण इतनी मर्यादा रखता है कि अपने से बड़ों के सामने धुम्रपान नहीं करता। पिता या उनके समकक्ष कोई दिखने पर धुम्रदण्ड को छिपाने लगता है। अब इस प्रक्रिया में व्यसनमुक्ति की सम्भावना निहित है। पर यदि आधुनिकता व खुलेपन के नाम पर पिता ही युवा पुत्र के साथ बैठकर व्यसनानन्द लेने लगे तो फिर तो सुधार की सम्भावना ही समाप्त। अब बताओ ऐसा पाखण्ड ठीक है या नहीं?
भाषा में पदों के अर्थ तो होते है पर वे अपने आप में अच्छे या बुरे नहीं होते। सन्दर्भ, संस्कृति व कर्म का उद्देश्य तय करेगा कि वह कर्म किस श्रेणी में आयेगा। केवल अच्छे-बुरे का श्वेत-श्याम विभाजन ही नहीं होता, मानव स्वभाव के कई रंग और छटायें होती है। उन्हीं के अनुसार शब्दों के अर्थ होते है। पर गत कुछ वर्षों में हमने शब्दों को भी गुटों में बाँट दिया है। साम्प्रदायिकता का अर्थ था सम्प्रदाय को मानने वाला। यह अत्यन्त सकारात्मक बात थी सम्प्रदाय आपकी आध्यात्मिक साधना को अनुशासित करने का कार्य करते है और सम्प्रदाय का अंग होने के नाते उसके प्रति आपकी निष्ठा अपने आप में एक दायित्व भी होती है। साम्प्रदायिक साधक, गुरू, उपासना और स्थान का भारत में बड़ा सम्मान था। किन्तु पिछले कुछ वर्षों में हमने इस शब्द का अर्थ ही बदल दिया। ऐसी ही स्थिति कर्मकाण्ड की है। साधना में नित्य कर्म का बड़ा ही महत्व है। मन को संस्कारित करने के लिये नियमित रूप से तय कर्म करना अत्यावश्यक होता है। इसी नियमबद्ध उपासना का नाम कर्मकाण्ड है। इसी के द्वारा कठीन समय में साधक की रक्षा होती है। हमारे इतिहास में भी आक्रांताओं के अत्याचारों में जब धर्म का प्रगट पालन भी सम्भव नहीं था तब ज्ञान काण्ड की चर्चा करना तो सोच भी नहीं सकते थे। ऐसे में कर्मकाण्ड ने ही धर्म की रक्षा की। पर गत एक शताब्दी से इस शब्द को हिन्दू धर्म के विकार के रूप में ही प्रयोग किया जाता है और सारी अन्धश्रद्धाओं का पर्यायवाची। बिना अर्थ अथवा पीछे के विज्ञान को जाने केवल कर्मकाण्ड करना सराहनीय निश्चित नहीं है। किन्तु ज्ञान व कर्म दोनों ही ना करने से कुछ एक करना तो अच्छा ही है ना? और जानकर करेंगे तो फिर यह कर्म काण्ड तारक बन जायेगा।
कर्मयोग में कर्म के पीछे के हेतु का बड़ा महत्व होता है। सामान्य जीवन में भी कर्म का महत्व उसके उद्देश्य से ही तय होता है। बड़ा सरल उदाहरण है। एक ही क्रिया – बन्दुक उठाई, निशाना लगाया, घोड़ा दबाया। अगले व्यक्ति के छाति में गोली लगी, तुरन्त प्राण निकल गये। इसी कार्य के लिये एक व्यक्ति को फांसी की सजा दी जाती है तो दूसरे को इसी कार्य के लिये परमवीर चक्र प्रदान किया जाता है। शारीरिक क्रिया भले एक ही हो कर्म अलग अलग था क्योंकि भाव अलग अलग थे। बिना मन के केवल इन्द्रियों से ही तो कर्म नहीं होता। इसी बात को भगवान कृष्ण बड़ी दृढ़ता से बताते है।
तीसरे अध्याय का प्रारम्भ अर्जुन के प्रश्न से हुआ है।
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।। गी 3.1।।
जब एक ओर आप बता रहे है कि बुद्धि कर्म से अधिक श्रेष्ठ है तो फिर मुझे क्यों इस घोर कर्म में ढ़केल रहे हो? आगे यहाँ तक भी कह देता हे कि ऐसे मिश्रित वचनों से मुझे भ्रमित क्यों कर रहे हो? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान कृष्ण ने कर्मयोग का विवरण प्रारम्भ किया है। निष्क्रियता जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकती। ऐसा सम्भव भी नही है, कर्म तो करना ही होगा। केवल कर्मेन्द्रियों का नियन्त्रण कर उनको बन्द कर देने से कर्म नहीं बन्द हो जाता क्योंकि मन तो सोचता ही रहता है ओर सोचना भी तो कर्म है।
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन।
इन्द्रियार्थान् विमूढ़ात्मा मिथ्याचारः स उच्चते।। गी 3.6।।
इसको भगवान् श्रीकृष्ण ने मिथ्याचार कहा है। यह पाखण्ड से घातक है। पाखण्ड दूसरे के प्रति असत्य आचरण है। मिथ्याचार तो स्वयं को ही धोखा देने का प्रयास है। यह तो व्यक्तित्व को ही विभाजित कर देगा। सामान्यतः इन्द्रियों को नियन्त्रित करना कठीन बताया जाता है। पर यहाँ ऐसी स्थिति का वर्णन है जहाँ उपर से कर्मेन्द्रियों को तो रोक लिया है कर्म करने से किन्तु मन के स्तर पर कर्म जारी है। इस मिथ्याचार से बचने के लिये एक उपाय तो हमने देखा है। स्वयं को पूर्ण व्यस्त रखना। अपनी मर्जी से काम करना।
यहाँ मन के संस्कार की बात हो रही है। मन को संस्कारित करना कर्म से भागकर सम्भव नहीं है। अर्जुन इसी भागने की बात कर रहा है और भगवान लड़ने की। दूसरे अध्याय में बताया है – इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।। गी 2.60।। इन्द्रियाँ बलवान् होती है व मन का भी बलपूर्वक अपहरण करने की क्षमता रखती है। जब इन्द्रियों में मन को खीचने की शक्ति है तब उसी का प्रयोग मन को उपर की ओर ले जाने के लिये क्यों ना किया जाये? पतंग और डोर के समान ये सम्बन्ध है। सामान्यतः पतंग का नियन्त्रण डोर के द्वारा किया जाता है पर हवा का जोर होने पर, यदि पतंग संतुलित हो, तो वह डोर को खींच सकती है। भगवान कह रहे है – तानि सवार्णि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।।गी 2.61।। इन इन्द्रियों को संयमित कर मुझमे लगा दो। अब ये करे कैसे?
बड़ा ही सरल सा मार्ग हमारे महापुरुषों ने बताया। जब श्री रामकृष्ण परमहंस को पूछा कि ये काम क्रोधादि रिपुओं, शत्रुओं से कैसे लड़ा जाये। व्यावहारिक एवं सहज उपाय बताने के आदी ठाकुर ने कहा, ‘‘सब विकारों को ईश्वरार्पित कर दो। क्रोध करना है उनपर करों। लोभ, प्रेम, स्नेह करना है उनसे करों।’’ हमने अपनी संस्कृति में यह कर दिखाया। केवल कहा ही नहीं इशवास्यं इदं सर्वं। पर सब विकारों को इश्वरोन्मुखी कर उदात्त कर दिया। बलि के पीछे भी यही तत्व है। मांसाहार करना है तो देवता को अर्पित कर प्रसाद के रुप में ग्रहण करों। बलि प्रथा को अमानवीय कहकर उसका विरोध करने वाले लोग पंचसितारा होटेलों में भोग के लिये कटते लाखों प्राधियों के प्रति दया क्यों नहीं दिखाते। कुछ भैरों मंदिरों में और जनजातीय  परम्पराओं में शराब को भी प्रसाद के रुप में अर्पित कर फिर प्राशन किया जाता है। भोग और उन्माद के लिये सोमपान कर समाज में बलवा करने से तो ये भला ही है। खजुराहों के मंदिरों के शिल्प भी इसी सिद्धान्त का उदाहरण है। काम को इश्वराभिमुख कर उसका उदात्तीकरण।
इन्द्रियों की प्रचण्ड कर्षण शक्ति का सदुपयोग करने के लिये हमें उनको उदात्त आदते डालनी होगी। उदात्त का अर्थ है उंचे ध्येय की ओर। ऐसे शब्दों से ही कभी कभी डर लगता है। पर यदि अपने जीवन को अपने सामने पवित्र रखना है, मिथ्याचार के अपराध बोध से बचना है तो इन्द्रियों को नित्य कर्म में बांध दो। उन्हें कुछ अच्छे कामों की आदत डाल दो। इसे ही कर्मकाण्ड कहते है। इससे कर्म का भाव शुद्ध हो जायेगा। एक बार संकल्प लेते समय उदात्त ध्येय का ध्यान करने से प्रतिदिन कर्म में वहीं भाव अनायास, अवचेतन के स्तर पर कार्य करने लगेगा। यही इन्द्रियों के माध्यम से मन को सही मार्ग पर रखने की सरलतम विधि है। जितना लगता है उतना यह उदात्तीकरण कठीन नहीं है। बड़ा ही सरल है। कई काम हम प्रतिदिन करते ही है। पर संकल्प के साथ नहीं करते। बस इतना ही करना है, संकल्प करना है। संकल्प भाव की शुद्धि करेगा और आदतन कर्म के समय मन को उदात्त करेगा।
तो आज ही तय कर लो क्या क्या प्रतिदिन करेंगे। छोटी छोटी बातें ही बड़ा परिणाम देती है। जैसे प्रतिदिन हनुमान चालिसा का पाठ, 50 सूर्यनमस्कार, कुछ व्यायाम, प्राणायाम, जप। यहाँ तक की नियमित स्नान करना भी एक आदत हो सकती है। कमसे कम पाँच – छः आदते नित्य संकल्प के रूप में ले ही लेनी चाहिये। 2 शरीर के स्तर पर जैसे व्यायाम, स्नान आदि। कम से कम दो भाव के स्तर पर जैसे जप, स्तोत्र पाठ आदि और कम से कम दो बौद्धिक स्तर पर जैसे स्वाध्याय, लेखन, श्रवण आदि। हाँ! बिना चुके, बिना एक दिन भी खण्ड पड़े करना है। फिर देखो मन कैसे उदात्त गगन में विचरण करने लगता है। आपको ही आश्चर्य होगा कि कितना पवित्र, हलका और उर्जावान अनुभव कर रहे हैं।

अक्टूबर 9, 2011 - Posted by | योग | , , , , ,

12 टिप्पणियां »

  1. Bahut Sunder Mukul ji. aap apni vyast dincharya m bhi samay nikal kar jo lekh likhte h uske liye hum sab aabhari h.

    टिप्पणी द्वारा Deepesh | अक्टूबर 9, 2011 | प्रतिक्रिया

  2. very nice appreciable

    टिप्पणी द्वारा bhawanishankar | अक्टूबर 9, 2011 | प्रतिक्रिया

  3. Dhanyawaad Bhaiya,

    hum logo ko bhi es gyan amrit ki kuch budhe aapki kripa se mil jati hai.

    टिप्पणी द्वारा Jitendra Kumar | अक्टूबर 9, 2011 | प्रतिक्रिया

  4. ye to aapne mere liye hi likha hai…

    टिप्पणी द्वारा Anand Gupta | अक्टूबर 9, 2011 | प्रतिक्रिया

  5. Satya kahti hu bahut acha our ktu satya likha hai aapne. Behad prabhavit hu aapke sabdo se. Sch maii hm samaj ko siksha to de rhe hai kintu sanskar nhi. Hri om

    टिप्पणी द्वारा Akancha chaturvedi | अक्टूबर 9, 2011 | प्रतिक्रिया

  6. बहुत अच्छा है यदि प्रभु स्मरण करने एक नयु ऊर्जा मिलती है। मनृष्य ने प्रतिदिन शारीरित बौध्दिक तथा आध्यात्मिकता के लिए कुछ न कुछ करना चाहिए। वास्तव में जो विचार दिये उसके पालन करे तो निश्चि

    टिप्पणी द्वारा महेश चन्र्द ओली | अक्टूबर 10, 2011 | प्रतिक्रिया

  7. is margdarsan or karmkand ki sahaj paribhasa ke liye koti koti Dhanyabad bhaisab ………

    टिप्पणी द्वारा indrajeet sharma | अक्टूबर 10, 2011 | प्रतिक्रिया

  8. koto koti pranam naman vandan abhinandan abhar dhanyoshthi

    टिप्पणी द्वारा dr.vivek sharma | अक्टूबर 10, 2011 | प्रतिक्रिया

  9. it is very true for understanding but difficult to follow, we require to acquire attitude for it.

    टिप्पणी द्वारा Satish Niranjani | अक्टूबर 10, 2011 | प्रतिक्रिया

  10. Bahut accha laga bhaiya..Reading such articles will also help in our intellectual nurturing.Khuch dino baad iss vishay ki gaharaee aur spasht hogi.

    टिप्पणी द्वारा Supriya Laturkar | अक्टूबर 10, 2011 | प्रतिक्रिया

  11. Completely agree with your thoughts on “Ankh ki sharam”…parents may indulge in “व्यसन” activities along with their children pretending to be non-hypocrite, but in disguise they are seeking license for themselves to indulge care-freely…

    टिप्पणी द्वारा Niranjan | अक्टूबर 15, 2011 | प्रतिक्रिया

  12. Aapke vichaaronse bilkul sahamat lekin kya mai jaan sakata hun ki aap ne apane jeevan me konsi aadate nitya sankalp me lee hai? aur kitane samay se aap unka paalan karte aa rahe hai? mai ye isliye jaananaa chahata hun ki ye mereliye prerana strot ban sakata hai

    टिप्पणी द्वारा harish | अक्टूबर 18, 2011 | प्रतिक्रिया


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