जाने अपना वर्ण! पहचाने अपना स्वभाव!
कर्मयोग 7:
स्वधर्म पर आधारित कर्म से ही जीवन में परिपूर्णता एवं संतुष्टि प्राप्त हो सकती है। यही गीता का संदेश है। इसको जीवन में उतारना कर्मयोग है और यही सच्चा भक्तियोग भी है। यदि इसे आचरण में नहीं लायेंगे और केवल कृष्ण कृष्ण का नाम रटन करते रहेंगे तो वह पाखण्ड ही होगा। भक्ति नहीं। स्वामी रंगनाथानन्दजी द्वारा उद्धृत श्लोक है, जिसका सही सन्दर्भ अभी नहीं मिल पाया है। स्वामीजी ने डॉ राधाकृष्णन् के हवाले से इसे विष्णुपुराण में होना बताया है। पर स्वामीजी स्वयं ही स्पष्ट कहते है कि विष्णुपुराण की उपलब्ध प्रकाशनों में उसे नहीं खोज पाये है। पर श्लोक बड़ा मार्मिक है –
स्वधर्म कर्म विमुखाः कृष्ण कृष्णेति वादिनः।
ते हरेर्द्वेषिणा मूढ़ाः धर्मार्थं जन्म यत् हरेः।।
कृष्ण कृष्ण रटते रहे पर स्वधर्म से विमुख हो तो ऐसे लोग हरि के विरोधी और मूर्ख हैं। क्योंकि हरि का जन्म ही धर्मकार्य के लिये हुआ था। तो उनकी भक्ति करने के लिये हमें भी धर्मकार्य ही करना होगा। स्वधर्म को पहचानने की शास्त्रीय विधि वर्णधर्म पर आधारित है। जब हम स्मृतिग्रंथों का अध्ययन करते है तो पाते है कि वर्ण ही हमारे समाज का आधार रहा है। स्मृतियों में चाहे व्यक्ति व्यवहार हो, वर्ण व्यवहार हो या राज व्यवहार तीनों मूलतः वर्ण के अनुसार ही बताये गये हैं। वर्ण का समाज में असर 20 वी शती के प्रारम्भ तक दिखाई देता है। महात्मा गांधी का समग्र साहित्य 120 खण्डों में प्रकाशित है ओर उसमें बार बार वर्ण के आधार पर सामाजिक सुधार की बात गांधी करते हैं। 1914 में कैथोलिक बिशप्स के साथ वार्ता में एक प्रश्न के उत्तर में वे कहते है, ‘‘ब्राह्मण राजनीति में तो आ सकते है किन्तु उन्हें सत्ता व चुनाव की राजनीति नहीं करनी चाहिये।’’ भारत के मूल विचार को ठीक से समझनेवाले गिने चुने महापुरूषों में से एक गांधी के अनुसार वर्णव्यवस्था एक वैज्ञानिक सामाजिक रचना थी जिसे स्वार्थी नेतृत्व ने विकृत बना दिया।
आज यदि कोई केवल वैज्ञानिकता के आधार पर वर्णव्यवस्था की पुनस्र्थापना की वकालत करने लगे तो उसका चहुओर से विरोध ही होगा। ऐतिहासिक अनुभव व राजनयीक कुप्रचार के कारण सार्वजनिक चिंतन में वर्णव्यवस्था अत्यंत घृणित हो गई है। इसलिये इसके पुनरुज्जीवन की बात करना तो बेमानी है। जब समाज इसके विषय में सुनने को ही तैयार नहीं है तो युगानुकूल परिवर्तन के साथ इसको लागु करने की बात भले ही कितनी भी तार्किक क्यों ना हो अव्यावहारिक हो जाती है। किन्तु केवल समाज में अस्वीकार्य होने से कोई विज्ञान अप्रासंगिक नहीं हो जाता। समय के साथ पुनः इसका महत्व सबको पता चलता है। जैसे आजकल आयुर्वेद की ओर सबकी फिरसे रुचि बढ़ने लगी है। सम्भव है वर्णव्यवस्था के साथ भी ऐसा कुछ हो। आज तो हम केवल व्यक्तिगत स्तर पर इसका प्रयोग कर सकते है। वह भी औरों के साथ सामाजिक व्यवहार के लिये नहीं अपितु अपने स्वभाव को पहचानने के लिये। स्वधर्म के अनुसार कर्म का चयन करने के लिये हमें अपने स्वभाव को जानना होगा। हमने पिछली बार देखा था कि स्वभाव द्वारा नियत कर्म करना कर्मयोग की एक मूलभूत अनिवार्यता है। भगवद्गीता स्वभाव को अध्यात्म मानती है। गीता के आठवे अध्याय में अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान कहते है-
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावो अध्यात्म उच्चते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्म संज्ञितः।।गी 8.3।।
जिसका कभी नाश नहीं होता वह ब्रह्म है, उसको जानने का मार्ग स्वभाव है और जिस बल के प्रवाह से अथवा त्याग से सृजन होता है वह कर्म है। कितनी परिपूर्ण व्याख्या है! अनाशवान् ईश्वर अथवा ब्रह्म अपने आदि संकल्प ‘‘मै एक हूँ बहुत हो जाऊँ। एकोSहम् बहुस्याम।’’ के द्वारा विश्वरूप हो गया। स्वयं ही प्रत्येक के अन्दर प्रगट हुआ है। यही स्वभाव है। हमारा हृदयस्थ ईश्वर और इसे प्रगट करने का माध्यम है कर्म जिसकी परिभाषा यहाँ की गई – सृजनशील विसर्ग। विसर्ग का एक अर्थ है स्वयं होकर प्रवाहित बल और दूसरा अर्थ है त्याग, विसर्जन का कर्म। दोनों ही ईश्वरत्व के प्रगटीकरण के माध्यम है। स्वभाव को जानकर उसके अनुसार कर्म करने अर्थात त्याग करने अर्थात समाज में योगदान करने से ही हम अपने स्वस्वरुप केा पा सकते है। यही सर्वोत्तम उपलब्धि है। सबसे बड़ा सृजन।
कर्म केवल स्वयं के स्तर तक सीमित नहीं होता। कर्म में हमारा औरों से व्यवहार जुड़ा होता है। अतः बिना इस सम्बन्ध का निर्वाह किये हमारा कर्म सफल व संतुष्टिदाता नहीं हो सकता। इसीलिये इस बार हम वर्ण के विज्ञान द्वारा स्वभाव को पहचानने की विधि को समझने का प्रयत्न करते है। गीता के चैथे अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं को चातुर्वण्र्य व्यवस्था का जनक बताते है-
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टम् गुणकर्म विभागशः।
तस्य कर्तारपि माम् विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।गी 4.13।।
गुण ओर कर्मों के अनुसार समाज की संरचना बनती है। चार वर्ण अर्थात चार प्रकार से मानव समाज में कार्य करता है। किंतु जिसने ईश्वर साक्षत्कार कर लिया वह इन सब कर्मों से परे है। इस श्लोक से यह भाव निकलता है कि वर्णव्यवस्था मानव के स्वभाव के अनुसार कर्म के चयन द्वारा निर्मित प्राकृतिक समाजरचना है। यह अपने आप, स्वतः ही विद्यमान होती है। यदि समाज में धर्म प्रस्थापित हो अर्थात प्रत्येक अपने कर्तव्य का पालन करते हुए औरों के लिये योगदान कर रहा हो तो अपने आप समाज इन चार प्रकार के कार्य विभाजन में संचालित होने लगता है। वर्तमान लेख में हमारा उद्देश्य हम अपने स्वभाव को कैसे पहचाने यह जानना है। उसके लिये हमें अपने वर्ण को पहचानना होगा। इसका जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। किस जाति में जन्म हुआ उससे स्वभाव वर्ण निर्धारित करने की स्थिति वर्तमान समय में समाज में नहीं है। अतः हमें इन वर्णों के लक्षणों को जानकर किस वर्ण के लक्षण हम में अधिक दिखाई देते है उसका निर्धारण करना है। यह जानने से पूर्व एक बात ध्यान में रखनी होगी। प्रत्येक वर्ण अपने आप में महत्वपूर्ण है और उनमें उच-नीच का भेद नहीं है। हमारे स्वभाव के लिये हमारा वर्ण ही सर्वश्रेष्ठ है और उसके अनुसार कर्म का चयन ही हमारे लिये श्रेयस्कर है।
शमो दमस्तपः शौचं क्षांतिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।गी 18.42 ।।
सौम्यता, संयम, तपस्या, शुद्धि, ध्यैर्य तथा ऋजुता अथवा सरलता, ज्ञान व उसके विशेष प्रयोग- विज्ञान तथा ईश्वर पर विश्वास यह ब्राह्मण के स्वभाव विशेष हैं। इसी के द्वारा ब्राह्मण के स्वकर्म का निर्धारण होगा। इस वर्ण के स्वभाव वाले व्यक्ति का प्रत्येक कार्य को करने के पीछे ‘ज्ञानप्राप्ति‘ का उद्देश्य होता है। इस स्वभाव का व्यक्ति गलती से किसी अन्य कर्म यथा व्यापार, सुरक्षा अथवा सेवा में चला भी जाये तो उसे उस काम में भी ज्ञान पाने की अभिलाषा होगी। ब्राह्मण स्वभाव वाले व्यक्ति का स्थायी प्रेरक ‘त्याग’ होता है। त्याग से ही उसे कर्म करने की आकांक्षा व कर्म से आनन्द की अनुभूति होती है। सहजता से योगदान करना ऐसे लोगों की आदत होती है। इनके निर्णय का आधार ‘धर्म-अधर्म विचार’ होता है। अर्थात किसी भी कार्य का चयन करते समय इनका विचार होगा कि मेरा कर्तव्य क्या है? कार्य करणीय है अथवा नही? इससे समष्टि का हित होगा या नुकसान? क्योंकि धर्म हमारा समाज के पति कर्तव्य ही तो है। ऐसे स्वभाव वाले व्यक्ति को पठन-पाठन, अध्यापन, अनुसंधान, लेखन, पत्रकारिता आदि व्यवसायों में सहज सफलता मिलेगी साथ ही स्वभाव के अनुकुल कार्य करने के कारण संतुष्टि भी।
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षत्रं कर्म स्वभावजम्।।गी 18.43।।
वीरता, तेज, अड़ीगता, दक्षता, युद्ध से कभी पलायन ना करना, दान तथा स्वामीत्व अथवा नेतृत्व का बोध यह क्षत्रीय वर्ण के स्वभाव लक्षण है। क्षात्रवर्ण का स्वभाव होने पर व्यक्ति के कर्म का उद्देश्य ‘प्रतिष्ठा’ होता है। इस स्वभाव का व्यक्ति ज्ञानार्जन भी प्रतिष्ठा के लिये करेगा। अपनी आन की खातिर जीवन तक लगा देने की तैयारी क्षत्रीय की होती है। इस वर्ण का स्थायी प्रेरक ‘वीरता’ है। वीर्य के लिये इस स्वभाव का व्यक्ति हर कर्म करता है और इस वीरभाव की तुष्टि से ही आनन्द प्राप्त करता है। इस वर्ण में नेतृत्व का गुण सहज होता है। अतः कार्य के निर्णय का आधार ‘न्याय-अन्याय विचार’ होता है। किसी भी विषय में निर्णय लेते समय यह न्यायकारी है अथवा नहीं यह विचार चयन का आधार बनता है। इस वर्ण स्वभाव के व्यक्ति को सुरक्षा बल, प्रशासन कार्य, राजनीति अथवा क्रीड़ा क्षेत्र में व्यवसाय करने से सहज सफलता व संतुष्टि प्राप्त होगी।
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।गी 18.44।
इस श्लोक की पहली पंक्ति में वैश्य के कर्म का बखान है। कृषि, पशुपालन तथा व्यापार यह वैश्य वर्ण के स्वभावगत कर्म है। कृषि अर्थात सर्व प्रकार का मौलिक उत्पादन। वर्तमान अर्थव्यवस्था में ऊपरी चलन से वित्त के जनन का भ्रम निर्माण किया जाता है और जब यह बुलबुला फूटता है तो अभी के समान मंदी की स्थिति बनती है। वास्तव में एक बीज से अनेक का निर्माण कर मूलभूत उत्पादन कार्य तो किसान ही करता है। बाकी सारे औद्यागिक उत्पादन कृषि व खनन से प्राप्त वस्तुओं के रुपांतरण ही होते है। श्री के निर्माण का मूल कार्य कृषि व पशुपालन करता है। यह केवल अन्न का ही नहीं पूरे औद्योगिक उत्पादन के लिये कच्चे माल का भी निर्माण कार्य है। तो वैश्य का कार्य है श्री का सृजन, उत्पादन व उसका व्यापार। इस स्वभाव के व्यक्ति का कार्य के पीछे उद्दीष्ट लाभ का होता है। हर कार्य से क्या मिलेगा इस विचार से ही इस वर्ण का व्यक्ति कार्य करता है। कर्म का स्थायी प्रेरक ‘स्वर्ण’ अर्थात आर्थिक लाभ होता है। इस वर्ण के स्वभाव वाले व्यक्तियों के निर्णय का आधार भी ‘लाभ-हानी’ विचार होता है। वर्तमान समय में युग का प्रभावी वर्ण वैश्य होने के कारण इस स्वभाव का सर्वत्र चलन दिखाई पड़ता है। लोक प्रभाव में हम भी ऐसे चिंतन को स्वयं पर आरोपित करने की भूल कर सकते है। अतः सकर्तता से अपने स्वभाव को जाँचना होगा। यदि बाहरी प्रभाव के अलावा आंतरिक रुप से भी हमारा स्वभाव वैश्य वर्ण का हो तो फिर उत्पादन, विपणन, व्यापार आदि व्यवसाय हमारे लिये अनुकूल होंगे। इस वर्ण के कर्मों में कृषि को सर्वश्रेष्ठ कहा है। इसके बाद अन्य उत्पादक व्यवसाय तथा सबसे अंत में व्यापार अर्थात अन्य किसी के द्वारा उत्पादित वस्तु का विपणन। वर्तमान में वित्तीय सेवा, लेखा सेवा व विज्ञापन ये नये क्षेत्र भी वैश्य कर्म में बने है। इस वर्ण स्वभाव के व्यक्ति को इन सभी व्यवसायों में से अपनी क्षमता, रुचि व शिक्षा के अनुसार चयन करना चाहिये।
परिचर्यात्मकं कर्मं शुद्रस्यापि स्वभावजम्।।गी18.44।।
शुद्र वर्ण के लोगों का स्वभाव सेवाकार्य करने का होता है। सेवा के भी भिन्न भिन्न प्रकार हो सकते है किंतु जो व्यक्ति स्वभावतः किसी और के आदेशों के अनुसार कार्य करने में सहजता का अनुभव करते है वे भी आवश्यक होते है। यदि समाज में सभी लोग नेतृत्व करने लगे तो समस्या हो जायेगी वे नेतृत्व करेंगे किसका? अतः सभी समय में समाज में बहुसंख्य लोग स्वभावतः ऐसे होते है कि जो स्वयं निर्णय लेने की जिम्मेवारी नहीं उठाना चाहते अपितु किसी और के लिये निर्णयों पर बड़े सेवाभाव से अमल करते है। किसी भी संस्थान में ऐसे व्यक्ति संस्थाके निष्ठावान कर्मचारी होते है। संस्थान की उत्पादकता, प्रभाव व वाणिज्यिक सफलता ऐसे लोगों की कुशलता पर निर्भर करती है। सेवा अथवा परिचर्या के उद्दीष्ट से कार्य करनेवाले व्यक्ति का स्वभाव शुद्र वर्ण का होता है। इस वर्ण के व्यक्ति स्वभावतः तमसप्रधान होने के कारण इनका स्थायी प्रेरक ‘भय’ होता है। किसी की डाँट के भय से हम में से अनेक लोग अधिक कौशल व क्षमता का प्रदर्शन कर पाते है। यह कोई न्यून नहीं है अपने आप में प्रकृतिजन्य स्वभाव है। इस वर्ण स्वभाव के लागों का निर्णय ‘हिताहित विचार’, स्वयं के प्रत्यक्ष एवं तुरंत हित व अहित के विचार पर निर्भर होता है। समाज में इस वर्ण की सभी युगों में बहुलता होती है। अतः यदि हमारा स्वभाव इस श्रेणी में आता है तो उसमे लज्जा की कोई बात नहीं। वर्तमान समय में सवार्धिक अवसर इसी स्वभाव के लोगों के लिये है। ऐसे लोग नौकरी के लिये सर्वोत्तम होते है। किसी भी चमु में (टीम) में इनके सफलता की सम्भावना अधिक होती है। आज सभी क्षेत्रों में चमुत्व का बड़ा महत्व है अतः शुद्र स्वभाव के लोगों की सफलता का यह युग है। स्वामी विवेकानन्द कहते है कि आनेवाले युग में शुद्रवर्ण का राज होगा। अर्थात सेवाभाव प्रभावी भाव होगा।
चारों वर्णों के स्वभावविशेष को जान लेने के बाद भी स्वयं के स्वभाव का निर्णय करना इतना सहज नहीं होता है। जीवन में अलग अलग समय पर भिन्न भिन्न परिस्थिति में हम अपने आप में अलग अलग वर्ण स्वभाव का प्राधान्य देखते है। अतः सम्भ्रम हो सकता है। निर्णायक यह होगा कि हमे आंतरिक आनन्द किस वर्णस्वभाव के उद्देश्य को पूर्ण करने से होता है? ज्ञान से? प्रतिष्ठा से? लाभ से? या सेवा से? दूसरा संकेत प्रेरक तत्वों का है। कार्य का प्रेरक क्या है? त्याग? वीरता अर्थात आन-शान? स्वर्ण अर्थात पैसा? या असफलता, डाँट का भय ? स्वभाव का निर्णय कर लेने के बाद यदि हम अपनी आजीविका के व्यवसाय का सही चयन करेंगे तो कम प्रयास में अधिक सफलता सुनिश्चित है। वर्ण स्वभाव जान लेने के बाद उपलब्ध अवसरों का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन कर निर्णय लेना चाहिये। नियत कार्य को चुनने के लिये कोई भी समय अनुचित नहीं है। केवल अनेक वर्षों से ठीक ठाक परिणाम के साथ कोई कार्य कर रहे है इसलिये वही हमारा नियत कार्य हो यह आवश्यक नहीं। यदि जीवन के किसी भी पाड़ाव पर यह ध्यान में आये कि हम अपने स्वभाव के विपरित अथवा अन्यथा कर्म में फँसे हुए है तो ऐसी स्थिति में 1. या तो इसी कर्म को अपने स्वभाव के अनुरूप करने का पर्याय चुने 2. चाहे जितनी जोखिम उठानी पड़े अपने स्वभाव के अनुसार कार्य हाथ में ले ले। आदर्श तो दूसरा पर्याय ही है किन्तु हमारी आजीविका अपने परिवार व अन्य अनेक लोगों के जीवन से जुड़ी होती है अतः निर्णय व्यक्तिगत ना होकर सामूहिक होना चाहिये। विश्लेषण के समय से ही सभी सम्बधितों को विचार प्रक्रिया में सम्मिलित करना चाहिये।