उत्तरापथ

तक्षशिला से मगध तक यात्रा एक संकल्प की . . .

विड़ियो गेम्स छोड़ों ओर मैदान में चलों !


गढ़े जीवन अपना अपना -12

वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनं।
देवकी परमानन्दम् कृष्णं वन्दे जगदगुरुम्।।

हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कृष्ण की सारी कथायें ही रसमय है और वीरता से परिपूर्ण भी। शिशु अवस्था से ही पुतना मौसी और शकटासुर के षड़यन्त्रों को समझकर यशोदा के लाला ने उनका मर्दन कर दिया। वहीं से उनकी बाललीलाओं में अनेक राक्षसों के निःपात के अध्याय जुड़े है। आगे सारे जीवन भर ही वे दुष्टों का संहार करते रहे। पर जब जगद्गुरु के रुप में उनका बखान करना है तब उनके जीवन के सबसे महत्वपूर्ण अध्याय का ही उल्लेख होता है। कंस चाणूर मर्दनं।

कृष्ण स्वयं मात्र 12 वर्ष के हैं और बलराम दाऊ 14 के। नन्दग्राम की लीलाओं का समापन और मथुरा प्रयाण का ये समय है। कंस ने जानबूझकर महोत्सव निमन्त्रण दिया है। अपने काल को मारने के अनेक प्रयास असफल होने के बाद अब वो अपने समक्ष मथुरा में ही कृष्ण को समाप्त कर दैवी आकाशवाणी से उपजे भय को समाप्त करना चाहता है। अतः नन्दग्राम के गोप समूह के स्वागत की विशेष व्यवस्था है। जैसे ही यह दल मथुरा के महाद्वार पहुँचा एक मदमस्त हाथी महावत के नियन्त्रण से बाहर हो गया और सीधा कृष्ण के दल पर चढ़ आया। आसपास के राहियों में हाहाकार मच गया। कुवलीयापीड़ नाम का यह विशाल हाथी मथुरा में कुख्यात था। अपराधियों को पैरों तले कुचलकर मृत्युदण्ड देने का इसे प्रशिक्षण प्राप्त था। आज कंस ने उसका नियोजन अपने भानजों को मारने के लिये किया था। योजना के अनुसार ही उसे खुब दारू पिलाकर ठीक कृष्ण के आगमन के समय वहाँ अंधादुंध तबाही मचाने के लिये छोड़ दिया गया था।

वीर के बल की परिक्षा थी यह। केवल साहस या युक्ति से काम नहीं चलने वाला। यहाँ तो शारीरिक बल की परिक्षा थी। कुवलीयापीड़ ने कृष्ण भगवान् को अपनी सूँड़ में में पकड़ने का प्रयास किया। ताकि दूर उछालकर फेंक दे। पर कान्हा तो चपलता से उसकी सूँड पर ही चढ़ गये। अब कृष्ण उपर थे। हाथी जोर जोर से हिलाकर उन्हे गिराने का प्रयास कर रहा था। पर अब आक्रमण नन्दलाला के पास था। शक्ति देखों कितनी प्रचण्ड, उन्होंने एक ही झटके में कुवलीयापीड़ के दांत को उखाड़ फेंका और अपने शक्तिशाली मुष्टिकाप्रहारों से उसके मस्तक पर आघात किया। मर्म पर किये घातक प्रहारों से वह बलवान हाथी भी मुर्छित हो गया। कहते है कि कृष्ण ने सूँड पकडकर उस हाथी को उठाया और गोल गोल घुमाकर दूर फेंक दिया। कुवलीयापीड़ की मुक्ति हो गई। गोपकुमारों ने नन्दलाल के जयघोषों से मथुरा को गुंजा दिया। कंस के आतंक से भयभीत मथुरावासियों के मन में अपने उद्धार की आशा जगी।

उत्सव में अनेक आयोजन थे। पर मुख्य आयोजन जहाँ स्वयं मथुराधीश कंस विराजमान थे वो था मल्लयुद्ध का आखाड़ा। कुश्ति भी मरणांतक। एक मल्ल के मरने पर ही दूसरा विजयी होगा। कंस के सबसे भयानक मल्ल थे चाणूर और मुष्टिक। दोनों राक्षसों समान की महाकाय तो थे ही अति क्रूर भी जाने जाते थें। अत्यन्त विभत्स तरिके से विरोधी पहलवानों को मारते थें। वे कंस की आतंकी योजना का दूसरा चरण थे। कंस ने उन दोनों से कहा था, ‘‘वो मायावी वसुदेव पुत्र यदि किसी प्रकार कुवलीयापीड़ के पैरों से बच भी निकला तो आप दोनों उन दोनों भाइयों को मल्लयुद्ध के लिये ललकारना। आखाड़े की लाल माटी में ही उनके सुकोमल शरीर कुचल देना।’’

योजना के अनुसार चाणूर और मुष्टिक ने कान्हा और दाऊ को ललकारा। साथी गोप भी उन अतिकाय दैत्यों को देखकर चुनौति स्वीकार करने को मना कर रहे थे। मथुरावासी भी इन बालकों के सुकोमल शरीरयष्टि को देखकर चिंतित थे। पर दोनों भाई तत्पर थे। एकदूसरे की ओर देखकर मुस्कुराये और आखाड़ें में उतर गये। सबको लग रहा था कि ये तो एक तरफा युद्ध होगा। पर इन बालकों को अपनी क्षमता की सीमा का भान था। अतः उन्होंने क्रमशः चाणूर व मुष्टिक की ही शक्ति का प्रयोग करना प्रारम्भ किया। दोनों में चपलता अद्भूत थी। अपनी चपलता से कम से कम शक्ति का प्रयोग करते हुए बलवान विराधी के वारों से वे बचते रहे। अपने सारे दाँव निष्फल होते देख चाणूर-मुष्टिक खीजते गये। और जोर से वार करते गये। कान्हा-दाऊ बचते जाते और खिखिलाकर हँसते जाते। उनके हँसने से कंस के दैत्य और गुस्सा कर और जोर से आक्रमण करते। कान्हा की योजना थी अपने सामर्थ्य का समुचित प्रयोग। कृष्ण और बलराम के पास पाश्विक बल भले ही चाणूर मुष्टिक जैसा ना हो पर युवा होने के कारण चपलता और तितिक्षा (Stamina) निश्चित ही अधिक थे। उन्होंने उसी का प्रयोग किया। चपलता से बचाव करते हुए चाणूर मुष्टिक को थका दिया। और जब तितिक्षा के अंतिम पड़ाव पर दोनों थककर हाँफने लगे तब अपने दाँव लगाये। ओर कुछ ही क्षणों मे दोनों को अपनी दुर्गति से मुक्त कर दिया।

सारी मथुरा कृष्ण के जयघोष से गूँज उठी। कंस ने कान्हा को कैद करने का आदेश दिया। पर उससे पूर्व ही कृष्ण ने दौड़कर सिंहासन से कंस को नीचे खींच लिया। अवाक् कंस सम्हले उससे पूर्व ही अपनी शक्तिशाली मुष्टिका से मर्माघात कर मथुरा को और अपने माता -पिता वसुदेव देवकी को आतंक की कैद से मुक्त कर दिया।

हमारे व्यक्तित्व विकास के आंतरिक आयामों प्रेरणा, वीरता, धैर्य और विवेक का आत्मावलोकन, उत्साह और वैराग्य से कैसे विकास किया जाता है यह हमने महावीर हनुमान तथा नचिकेता के उदाहरणों से देखा था। अब हम अपने व्यक्तित्व के बाहरी आयामों के विकास की ओर मुड़ रहे है। हमारा व्यक्तित्व प्रगट तो शरीर के माध्यम से ही होता है। इसीलिये कहा है शरीरमाद्यम् खलुधर्म साधनं। शरीर धर्म पालन का प्रथम साधन है। सबसे पहला आयाम है-यह शारीरिक बल। बलवान् शरीर का अर्थ केवल पशुवत् शक्ति से नहीं है। वजन उठाने की क्षमता होना तो ठीक ही है। उसे शक्ति (Power) कहते है। पर केवल इससे ही काम नहीं चलता। इसके साथ ही चपलता (Dexterity) और तितिक्षा (Stamina) भी चाहिए। चपलता के लिये अंगो में लचीलापन भी चाहिये और सहजता से उनके संचालन का कौशल भी। तितिक्षा वास्तव में फेफड़ों की क्षमता है। श्वास को अधिक समय तक धारण करने की क्षमता है तितिक्षा।

तीनों के विकास के लिये नियमित व्यायाम आवश्यक है। तितिक्षा के लिये दौड़ लगाना सर्वौत्तम है। सभी अंगों के लचीले और संतुलित विकास के लिये सूर्यनमस्कार सबसे उत्तम है। पर केवल 12 से काम नहीं चलेगा, कम से कम 50 तो करने ही चाहिये। 108 करना सर्वोत्तम। समर्थ रामदास प्रतिदिन 1200 सूर्यनमस्कार लगाते थे। आजकल आधुनिक युवा यन्त्रों की सहायता से व्यायाम करने Gym जाते है। सही निर्देशन में उससे तात्कालिक लाभ तो होता ही है पर देखा गया है कि कालांतर में मांसपेशियों के शिथिल होने की समस्या आती है। वैसे भी अधिकतर जिम जाने वालों का उद्देश्य वास्तविक बल प्राप्त करने के स्थान पर केवल दिखाउ सौष्ठव प्राप्त करना होता है। उसी हेतु अनेक यूवा घातक दवाइयाँ भी लेने लगे है। इन सबके दुष्परिणाम बड़े ही दुखद होते है। अतः इनसे बचना ही ठीक है। यदि सही तरिके से शारीरिक बल अर्थात शक्ति, चपलता, तितिक्षा (PDS- Power, Dextirity, Stamina) तीनों प्राप्त करने है तो नियमित मैदानी खेल खेलना आवश्यक है। यही कान्हा की विधि है। गाय चराते चराते खेल खेल में वीरो की टोली बना ड़ाली। हमारे देसी खेलों में शरीर की पूर्ण क्षमता के विकास की विधि है। क्रिकेट, फुटबोल जैसे आधुनिक खेलों में मनोरंजन तो होगा पर बलवर्द्धन निश्चित नहीं है। इसीलिये इसके खिलाड़ियों को तैयारी के लिये अलग से व्यायाम करना पड़ता है। गांव के खलिहानों में या संघ की शाखा में या विवेकानन्द केन्द्र के संस्कार वर्गों में खेले जाने वाले शेर-बकरी, किसान-लोमड़ी, कुक्कुट युद्ध, कबड्डी, दूग्र विजय जैसे मैदानी खेलों में ये सब विकास सहजता से हो जाता है।

तो आधुनिक नन्दलालों विड़ियो गेम्स छोड़ों ओर मैदान में चलों।

जनवरी 16, 2012 - Posted by | आलेख | , , , , , , , , ,

8 टिप्पणियां »

  1. Dhanyabad bhaisab……..

    टिप्पणी द्वारा indrajeet sharma | जनवरी 16, 2012 | प्रतिक्रिया

  2. kal se pun : suryanamskar shuru karta hu !
    pure 108

    टिप्पणी द्वारा amit | जनवरी 16, 2012 | प्रतिक्रिया

  3. Daily 12 karta hun

    टिप्पणी द्वारा Murari Gupta | जनवरी 17, 2012 | प्रतिक्रिया

  4. आज के नन्दलालो को ऊनके ममी-पापा अपनि गोद से उतारते ही नही तो खैलेगें कैशे ईन अधुरे आधुनिक ममी-डैडीयो ने तो अपने नन्दलालौ को काँच के महलो मे बन्द कर रखा है।

    टिप्पणी द्वारा pyarelal | जनवरी 17, 2012 | प्रतिक्रिया

  5. dhanyavad, Suryanamaskar is a must for everybody

    टिप्पणी द्वारा vasant | जनवरी 18, 2012 | प्रतिक्रिया

  6. Aksharshaha saty kaha hai.
    Nitin Desai.
    Jabalpur.

    टिप्पणी द्वारा NITIN DESAI | जनवरी 18, 2012 | प्रतिक्रिया

  7. samoohik vyaayaam hi takat deti hai or doosari koi nai

    टिप्पणी द्वारा brajdas | जनवरी 19, 2012 | प्रतिक्रिया

  8. Bahut sunder Bhaiya

    टिप्पणी द्वारा Deepesh | फ़रवरी 4, 2012 | प्रतिक्रिया


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