कुशल मंगल है।
गढ़े जीवन अपना अपना -15
चरित्र निर्माण के बाहरी आयामों में चौथा व अंतिम है – कौशल। शारीरिक बल, रूप ओर स्वास्थ्य के साथ ही विभिन्न प्रकार के कौशल भी जीवन में वांछित सफलता पाने के लिये आवश्यक है। जीवन के लक्ष्य की ओर बढ़ने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है अन्यथा भी अनेक प्रकार की परिस्थितियों में जीवन को अपने निश्चित लक्ष्य की ओर अग्रेसर करने की चुनौति आ सकती है। आचार्य चाणक्य अपने शिष्यों को शिक्षा देते है कि यदि मार्ग में बाधा नहीं है तो समझना चाहिये कि मार्ग सही दिशा में नहीं है। इसलिये जब हम अपने जीवन में लक्ष्यप्राप्ती का मार्ग चुनते है तो हमें सभी प्रकार की स्थितियों के लिये स्वयं को तैयार करना चाहिये। अतः व्यक्तित्व विकास में कौशल प्राप्ति का असाधारण महत्व है। पांडवों के जीवन में आई प्रत्येक बाधा को उन्होंने कौशल प्राप्ति का साधन बनाया। अर्जुन ने सारे जीवन भर नये नये अस्त्रों को प्राप्त करने के लिये अलग अलग खतरों का सामना किया। किरात रूप में स्वयं शंकर भगवान का सामना कर पाशुपतास्त्र प्राप्त करना हो या नारायणास्त्र की उग्र तपस्या हो, इन सब ने ही अन्ततः धर्मयुद्ध में पाण्डवों को विजयश्री प्रदान की।
वर्तमान युग में तीन प्रकार के कौशल में प्रशिक्षित होना विकसित व्यक्तित्व के लिये आवश्यक है। पहली श्रेणी में जीवनोपयोगी कौशल आते है जो व्यक्ति को स्वावलम्बी बनाते है। स्वयं के लिये हम नियम सा बना ले जो मुझे चाहिये वो मै बना सकूं। खाना खाते है ना तो भोजन पकाना आना चाहिये। आधुनिक घरों के बच्चों को तो भोजन परोसना और थाली धोना भी नहीं आता। कपड़े पहनते है तो कपड़े धोना, प्रेस करना या कुछ थोड़ी बहुत सिलाई करना सीख लेना चाहिये। कुछ सम्पन्न घरों के बालकों को तो कपड़ों की घड़ी करना भी नहीं आता। विकसित व्यक्तित्व का ध्येय हो कि किसी भी परिस्थिति में दूसरे पर निर्भर ना रहना पड़ें। ये उपर से सरल लगने वाली बाते कभी कभी बड़ी बाधा बन जाती है। कपड़े धोने का अभ्यास ना हो तो अचानक साफ कपड़े नहीं धो सकेंगे। स्वावलम्बन की आदत बाल्यकाल में ही पड़ जानी चाहिये। समझदार अभिभावक सामथ्र्य के बावजूद 10 से 16 वर्ष के आयु में बालकों को नौकरों पर निर्भर नहीं होने देते।
दूसरी श्रेणी में अभिव्यक्ति का कौशल आता है। अपने व्यक्तित्व को प्रगट करने के लिये अभिव्यक्ति-कौशल अत्यावश्यक है। जीवनलक्ष्य की प्राप्ति में यह महत्वपूर्ण है। वर्तमान समय में व्यावसायिक सफलता में भी यह अनिवार्य हो गया है। इस श्रेणी के कौशल में भाषा का ज्ञान आता है। व्यक्ति को अधिक से अधिक भाषाओं को सीखना चाहिये। वर्तमान में केवल अंग्रेजी पर बल दिया जाता है पर भाषा कौशल का सर्वोत्तम विकास मातृभाषा में ही होता है। यदि एक बार मातृभाषा में प्रवीणता हासिल कर ले तो फिर अन्य किसी भी भाषा को सीखना सरल हो जाता है। हमारे मस्तिष्क में जो भाषा सम्बंधी केन्द्र है उनका विकास होना आवश्यक है यदि ये केन्द्र ठीक से विकसित हो जाये तो कोई भी नई भाषा सीखना सहज सुलभ हाता है। यन्त्र मानव (रोबोट) के विकास के लिये अनिवार्य कृत्रिम बुद्धि (Artificial Intelligence) के बारे में जो अत्याधुनिक अनुसंधान हुए है वे हमें बताते हैं कि संस्कृत एक ऐसी परिष्कृत भाषा है कि जिसके अध्ययन से मस्तिष्क का पूर्ण विकास होता है। यह भाषा गणितीय होने के कारण बिना किसी विसंगति के भाषीय तर्क का विकास होता है जो मस्तिष्क के भाषा केन्द्रों के स्नायविक उतकों (Neurons) के विकास में गति प्रदान करता है। इसी शास्त्रीयता के चलते इंग्लैण्ड के कुछ विद्यालयों में वैदिक मंत्रो तथा संस्कृत के अध्यापन को प्रारम्भ किया गया है। यदि संस्कृत व अपनी मातृभाषा पर प्रभुत्व प्राप्त कर लिया जाये तो फिर अंग्रेजी में भी सहज प्राविण्य मिल जायेगा। हाँ प्रयास तो करना ही पड़ेगा। मातृभाषा फिर संस्कृत और उसके बाद अंग्रेजी यदि यह क्रम रखा जाये तो भाषा सीखने में आनन्द आयेगा और प्रयास कठीन होने से भी खेल के समान आनन्ददायी होंगे।
अभिव्यक्ति कौशल का दूसरा अंग है कला। प्रत्येक व्यक्ति में अपनी भावनाओं के प्रेषित करने की आकांक्षा भी होती है और उसकी अपनी एक विधा भी। यही विधा कला के रूप में प्रगट होती है। सारी कलायें भावों की अभिव्यक्ति के लिये ही होती है। प्रत्येक के स्वभाव के अनुरूप व्यक्ति अपने भाव शब्द या रूप के द्वारा अभिव्यक्त करता है। शब्द या ध्वनि के द्वारा सम्प्रेषण काव्य, लेखन, संगीत आदि कलाओं में विकसित होता है। रूप अथवा आकार के द्वारा सम्प्रेषण शिल्प, चित्रकला, नृत्य नाट्य आदि कलाओं में विकसित होता है। संसार में प्रत्येक व्यक्ति कलोपासक होता है अर्थात कलाभिव्यक्ति को करनेवाला अथवा उसका आस्वादन करनेवाला होता है। अपने अन्दर की कला का विकास भी व्यक्तित्व के विकास के लिये अत्यावश्यक है। व्यावसायिक लक्ष्य को महत्व देते समय कला को अतिरिक्त एवं अनावश्यक मानते हुए दुर्लक्षित किया जाता है पर यह आत्मघाती है। कलाविहीन व्यक्ति में जो अधुरापन रहता है वह उसे किसी भी क्षेत्र में अपनी पूरी क्षमता से कार्य नहीं करने देता। अतः अपनी अपनी रूचि के अनुसार कलाविधा का चयन कर उसके प्रशिक्षण, अभ्यास व आस्वादन के लिये नियमितता से समय देना चाहिये। जीवन के लक्ष्यप्राप्ति में सहायक होने के साथ ही कलोपासना जीवन को रसमय बनाकर परिपूर्ण कर देती है।
तीसरी श्रेणी के कौशल में यन्त्रविद्या (Technology) का अन्तर्भाव होता है। मानव की शारीरिक क्षमताओं को विस्तारित करने का काम यन्त्र करते है। यन्त्रों के सुविधाजनक प्रयोग से कार्य को सुचारू, सक्षम एवं कम समय में किया जा सकता है। आधुनिक जीवन में संचार के साधन बढ़ जाने के साथ ही जीवन में उपकरणों की संख्या एवं भुमिका दोनों में प्रचण्ड वृद्धि हुई है। संगणक (Computer) और चल-दूरभाष (Mobile) तो प्रत्येक के अनिवार्य उपांग हो गये है। इनके प्रयोग एवं उपयोग में असीम सम्भावनायें है और शायद ही कोई ऐसा दम्भ भर सकें कि इनको पूरी तरहा से जान लिया। इन उपकरणों का प्रयोग तो सभी करते है पर अनेक सुक्ष्म पहलुओं की ओर ध्यान नहीं देते। हममें से कितने लोग जानते है कि केवल कुछ नम्बर डायल करके ही अपने मोबाईल की पूर्णतः समाप्त (Discharged) बैटरी को कुछ और देर तक चलाया जा सकता है। ऐसी अनेक बातें है जिनकी बारीकियों के बारे में हम लोग नहीं जानते। दिल्ली के छतरपूर मंदिर की घटना है। एक अमेरिकी पर्यटक ने अपना अत्याधुनिक कॅमेरा देकर एक भारतीय छात्र को फोटो लेने को कहा। दो-तीन फोटो लेने के बाद कॅमेरा लौटाते हुए छात्र ने पर्यटक को कॅमेरे के बारे में कुछ तकनिकी प्रश्न पूछे। अमेरिकी ने जबाब दिया मै इसकी तकनिक के बारे में कुछ नहीं जानता केवल उपयोग जानता हूँ। जापानी चीजे बनाते हैं हम प्रयोग करके खराब होने पर फैंक देते है। हम भारतीय ही है जो खराब चीजों को भी सुधारकर प्रयोग में लेते है। ये जुगाड़ हमारी कंजुसी या कमी नहीं यन्त्र ज्ञान के प्रति हमारी स्वाभाविक जिज्ञासा है। आधुनिक पीढ़ि में भी ये जिज्ञासा है पर प्रतिस्पद्र्धा की आपाधापी में हम इस कौशल को भूल ना जाये, प्रयत्नपूर्वक विकसित करें।
स्वावलम्बन, कला और यन्त्रविद्या तीनों श्रेणियों के कौशल विकसित करने के लिये नित्य अभ्यास ही एकमात्र उपाय है। कौशल के नैपुण्य में ही हमारा कुशल है और सार्वजनिक उद्देश्य के प्रति समर्पित कुशल ही मानवता के लिये मंगल होता है।
प्रेरणास्पद आलेख.. । और, इस सबमें महत्वपूर्ण यह है कि कौशल का लाभ स्वयं के साथ साथ दूसरों को वैसे ही पहुंचायें जैसे हम एक परिवार में एक दूसरे के काम आते हैं।
Once again nice article.
After reading this I have come to know that still I need to learn a lots of things in my life.
Actually Really I don’t know how to wash clothes, how to cook food. Although I have learnt how to clean my utensils after having my food through Vijay hi vijay Camps.
but still i have to learn a lot of other things as given above.
Once again thanks a lot for this beautiful article.
Sikhna marne tak ki kriya hai jaise Swas lena. Lekh ke piche ek bahut bada Anubhav hai. Apke Anubhav se nikla hua yah lekh sabke liye Anubhav aur tarakki ka Marg batane wala lekh hai …,
kya number dial kre ki mobile discharge hone wala ho aur kuch der aur kaam kr ske…*3370# h kya??? mere phoone main to ye kaam nai kr rha…
एक प्रेरणात्मक,सराहनीय,अनुकरणीय तथा आदरणीय लेखन |मानव-मन की गहराइयों से निकले ये शब्द यदि जीवन में उतारे जा सकें तो शायद ये जीवन काफी हद तक सफल और धन्य हो सकता है |स्वावलंबन एवं आत्मनिर्भरता मानव के जीवन में वह आत्मबल और आत्मविश्वास जगा देतें है कि विपरीत परिस्थितियाँ भी उसके मानसिक-संतुलन को हिला नहीं पातीं |दूसरे,अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए अपनी मातृभाषा का अध्ययन ,सीखना ,अभ्यास एवं प्रयोग हमारे जीवन-पथ को सहज और सरल बनाता है | विभिन्न भाषाओं की जननी ‘संस्कृत’ भाषा व्यक्ति को एक सम्पूर्ण एवं सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व में परिणत करने की सामर्थ्य रखती है और आधुनिक-युग में समस्त विश्व का एक अंग नाने रहने के लिए ज़रुरी है कि हमें आंग्ल-भाषा की भी जानकारी हो |कला-विद्या जीवन में सुन्दर एवं आकर्षक विकास लाती है|तीसरे,यंत्र-विद्या-कौशल हमें न केवल आत्मनिर्भर
बनाता है अपितु अपने हाथ से कुछ कर सकने का आत्मसंतोष भी देता है |
RAM RAM
BILKUL SHI BATAYA BHIYA.
good one
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goodon