क्रांतिकारी कृष्ण
इस वर्ष जन्माष्टमी का पर्व अगस्त क्रांति के दिनांक पर आ रहा है। 9 अगस्त को सच्चे अर्थ में क्रांति दिवस मनाया जाना चाहिये अथवा नहीं इस पर विवाद हो सकता है किन्तु इस बात पर कोई दुमत नहीं हो सकता कि कृष्ण का तो पूरा जीवन ही क्रांतिकारी है। उन्होंने प्रस्थापित को पूरी तरह से बदल डाला। यह परिवर्तन अपनी किसी अलौकिक दैवी शक्ति का प्रयोग कर चमत्कार के द्वारा नही किया अपितु समाज के जागरण के द्वारा सामूहिक शक्ति के सुनियोजित प्रयोग के माध्यम से यह परिवर्तन घटित किया गया। इसलिये वे सामाजिक क्रांतिकारियों के आदर्श कहे जा सकते है। उनके जीवन से हम सफल सामाजिक क्रांति के लिये आवश्यक तत्वों को समझ सकते हैं।
श्रीकृष्ण के जीवन के तीन स्पष्ट भाग हैं। नंदग्राम की लीलाओं से लेकर कंसवध तक का प्रथम भाग मूलतः असुरों के दमन का है। पुतना से प्रारम्भ कर कालिया मर्दन सहित अनेक राक्षसों के निःपात के बाद चाणूर तक पूरा बाल्यकाल इस संघर्ष का साक्षी है। जरासंध के मथुरापर सतत आक्रमण के बाद रणछोड़दास का दोष लेते हुए द्वारिका गमन तथा वहाँ पर शून्य से प्रारम्भ कर स्वयं हल चलाकर स्वर्णीम राज्य का निर्माण यह रचनात्मक सृजन का कालखण्ड। तीसरा कालखण्ड है महाभारत का – पूर्ण व्यवस्था का परिवर्तन। गीता का सिद्धान्त इस धर्मराज्य की स्थापना का आधार है।
वर्तमान समय मे भी यह तीनों कार्य सफल क्रांति तथा पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन के लिये आवश्यक है। भ्रष्टाचारियों के विरूद्ध लड़ाई असुर निर्दालन के समान ही है। आज के कंस-चाणूरों का मर्दन भी आवश्यक है। पुतना बनकर आये सम्बंधियों को भी सबक सिखाना होगा और धरति के संसाधनों में विष फैलाते कालिया की फन पर नृत्य भी करना होगा। कंस के गुण्डों के पोषण हेतु मथुरा जा रहे दूध-दही की मटकियों को फोड़ अपने गोपबालों का पोषण करने की सहज बाललीला भी आज अनिवार्य है। काले धन के प्रवाह को रोकना तथा इसे पुनः देश में लाकर स्वदेशी संसाधनों के स्वदेश विकास में प्रयोग की क्रांति ही कान्हा की दहीहांडी का संदेश है। द्वारिका की रचना पूरे समाज को सुखी करनेवाले विकास की व्यवस्था का एक छोटे स्तर पर प्रयोग है। आज अनेक संगठन अपने अपने स्तर पर ऐसे प्रयोग कर रहे है। राजकीय स्तर पर गुजरात में विकसित विकास के प्रादर्श को भी इसी रूप में देखा जा सकता है। पाण्डवों को स्थापित करने महाभारत के युद्ध का सारथी बन निर्देशन तथा उसके तात्विक आधार को स्पष्ट करता गीता का आख्यान आज की आवश्यकता है। यह निर्णायक धर्मयुद्ध धर्माधारित राज्य की स्थापना के लिये अनिवार्य है। पर युद्ध से पूर्व आज के समय के अनुसार क्रांतिगीता की रचना भी आवश्यक है। वर्तमान व्यवस्था परिवर्तन में रत क्रांतिकारी इस मुख्य चरण की ओर ध्यान नहीं दे रहे इसी कारण सारे प्रयास अधुरे ही सिद्ध हो रहे हैं। वर्तमान समय के अनुरूप सनातन सिद्धान्तों की व्याख्या कर युगानुकुल गीता की रचना के द्वारा ही व्यवस्था परिवर्तन का संघर्ष अपने अंतिम युद्ध में सफल हो सकता है।
क्रांति पथ के इस अनुपम मार्गदर्शन के साथ ही क्रांति की कार्यपद्धति के बारे में भी संकेत भगवान कृष्ण के जीवन से हमें प्राप्त होते हैं। सभी संघर्षों में उनकी भौतिक शक्ति विरोधी के सामने कम ही थी। चाणूर मुष्टिक के सामने कान्हा-दाउ तो सुकुमार बालक ही थे। जरासंध से संरक्षित कंस के सम्मूख विस्थापित कृष्ण और उसकी गोपसेना का बल था ही क्या? महाभारत में भी कौरवों की 11 अक्षोहिणी सेना का सामना पाण्डवों की सात अक्षोहिणी सेना को करना था। महारथियों की सुचि भी ऐसीही विषम थी। सारे जीवन श्रीकृष्ण ने संख्या व संसाधनों में कमजोर होते हुए भी अपने से कई गुना बलशाली शत्रु का निर्दालन किया। केवल सत्य व धर्म के अपने पक्ष में होने के आदर्शवाद के सहारे ही नहीं अपितु व्यावहारिक चतुराई के द्वारा यह विजय सम्भव हुई। अतः क्रांति का पहला पाठ जो कृष्ण के जीवन से हम पढ़ सकते है वह है – युक्ति से शक्ति का सामना। कालयवन का मारना उनके बस में नही था तो भाग कर चतुराई से उसे उस गुफा में ले गये जहाँ मुचकुन्द तपस्या कर रहे थे। कालयवन द्वारा तपस्या भंग किये जाने पर मुचकुन्द के तपोबल से वह भस्म हुआ। मुचकुन्द ने कृष्ण को श्राप दिया कि उसे रणछोड़ का लांछन प्राप्त होगा। धर्म व समाज के भले के लिये कन्हाई ने इस लांछन को भी गर्व से धारण किया। महाभारत में तो पार्थसारथी की युक्तियों के बिना धर्म की विजय सम्भव ही नहीं होती। जयद्रथ, द्रोण, भीष्म, कर्ण, घटोत्कच के वध तथा अंत में दुर्योधन की जंघा का मर्दन होने तक सब प्रसंगों में कृष्ण की व्यावहारिक नीतियों ने पाण्डवों की सुनिश्चित हार को विजय में परिवर्तित किया। कृष्णनीति में साध्य की शुद्धता को अधिक महत्व दिया गया। यदि साध्य धर्म के अनुसार है तो उसकी प्राप्ति में लगनेवाले साधन की शुद्धता पर अति मीन मेख करना कृष्णनीति का अंग नहीं है। द्रोण को शोकाकुल करने ‘अश्वत्थामा हतः’ का अर्धसत्य बोलने के लिये धर्मराज को तत्पर करना अथवा दलदल में फँसे रथचक्र में उलझे कर्ण पर बाण चलाने के लिये अर्जुन को प्रेरित करने में पार्थसारथी ने दिखा दिया कि खोखली नैतिकता से स्वयं के हाथ बांधकर दमनकारी राक्षसों नहीं लड़ा जा सकता। इस व्यावहारिकता के साथ क्रांति की रचना करना आज अत्यावश्यक है। सभी अधर्मी षड़यन्त्रों से राज्य कर रहे दुष्टों का सामना केवल आदर्शवाद के सहारे करना असम्भव ही लगता है।
क्रांतिकारी कृष्ण के आंदोलन का दूसरा महत्वपूर्ण पाठ है — सामान्य जन के आत्मबल को जागृत कर पूरे समाज को क्रांति में सम्मिलित करना। नंदग्राम में सामान्य गोपबालों को उनके अन्दर के असीम बल के प्रति जागृत कर कंस के शोषण से मुक्ति दिलाने का कार्य कान्हा ने किया। गोवर्धन पूजा के समय इन्द्र के प्रकोप से रक्षा अपनी कनिष्ठिका के बल पर करने का सामाथ्र्य रखने वाले गिरीधारी ने उंगली लगाने से पूर्व सारे गोप-गोपियों को अपनी लाठी का आधार देने के लिये प्रवृत्त किया। सबके सहभाग से ही क्रांति की सफलता सम्भव है। द्वारिका के निर्माण में भी बहुजन समाज के सहभाग से ही रचनात्मक आंदोलन खड़ा किया गया। कृष्ण चरित्र के इस भाग के विस्तार से अध्ययन की आवश्यक है। द्वारिका के वैज्ञानिक निर्माण में वहाँ के स्थानिय समाज का सहभाग भी उतना ही महतवपूर्ण था। अतः सामान्यजन के आत्मबल को जगाना कृष्ण की क्रांति का महत्वपूर्ण घटक है। वर्तमान समय में इस सामूहिक आत्मविश्वास के जागरण की अत्यन्त आवश्यकता है। केवल संख्या जुटाने से जगनेवाले उत्साह को आत्मबल मान लेना ठीक नहीं है। जबतक क्रांति में जुटनेवाला प्रत्येक व्यक्ति निस्वार्थ भाव से अपने अन्दर की शक्ति को जानकर संघर्ष में नहीं जुट जाता क्रांति का समग्र परिणाम सम्भव नहीं है। महाभारत का विनाशकारी युद्ध भी केवल सत्ता परिवर्तन मात्र ही रह जाता यदि गीता के द्वारा धर्म की क्रांतिकारी व्याख्या का प्रतिपादन भगवान् कृष्ण ने नहीं किया होता। गीता जनप्रबोधन का गीत है। जनजागरण के तीन स्तरों को कृष्ण के जीवन से हम सीख सकते है। नन्दलाला के वेणुद्वारा किया गया भावात्मक जागरण, द्वारिका में बलराम के हल के साथ जुट़े समाज के हाथों से क्रियात्मक जागरण व धर्मक्षेत्र कुरूक्षेत्र की रणभूमि में गाये गीता के विशुद्ध तत्वज्ञान द्वारा वैचारिक जागरण। तीनों में से केवल किसी एक के होने से ही क्रांति नहीं हो जाती। मन की संवेदना, बुद्धि की योजना व हाथों के कर्म से ही रचनात्मक क्रांति सुफल होती है।
कृष्ण की क्रांति का तिसरा तत्व है – सकारात्मकता। क्रांति मूल रूप से प्रस्थापित के परिवर्तन के लिये होती है अतः सामान्यतः ऐसे आंदोलनों में प्रतिक्रियावाद का हावी होना स्वाभाविक होता है। किसी के विरोध में लोगों का समर्थन जुटाना भी सहज होता है। शत्रु प्रत्यक्ष होने से संघर्ष भी स्पष्ट होता है। किन्तु प्रतिक्रिया के नकारात्मक विचार की नीव पर खड़ी क्रांति का भवन अधिक समय तक स्थिर नहीं हो सकता। अभावात्मक अथवा नाकारा विचार के लिये किया गया शुभ कर्म भी समग्र तथा स्थायी परिणाम नहीं दे सकता। द्वारिका में पहुँचना भले ही जरासंध के मथुरा पर 17 बार किये आक्रमणों की प्रतिक्रिया थी किन्तु उसके पीछे का भाव मथुरा की जनता की रक्षा ही था। स्वयं पर पलायन का लांछन भले ही लगे किन्तु अपने वैमनस्य के कारण जनता का नुकसान ना हो इस सद्भावना पर आधारित होने के कारण ही यादव राज्य के निर्माण का रचनात्मक आंदोलन सफल रहा। उससे पहले भी नन्दग्राम में किये समरसता के सामाजिक आंदोलन की नीव भी सबके अन्दर विद्यमान देवत्व के जागरण की एकात्मता ही थी। इसीलिये गोवर्द्धन पूजा की पर्यावरण क्रांति के समय भी इन्द्र के साम्राज्यवादी पुंजीवाद का प्रत्यक्ष विरोध ना करते हुए सकारात्मक विकल्प प्रदान कर परिवर्तन किया गया। इसी कारण गोपबालों के आत्मजागरण की क्रांति सफल हो सकी और कंस के वध के बाद भी जनता के कोप का सामना नहीं करना पड़ा। क्रांति का लक्ष्य, वैचारिक आधार व मार्ग तीनों का सकारात्मक होना आवश्यक है। वर्तमान में अधिकतर आंदोलन इस प्रकार का सकारात्मक लक्ष्य ना रख पाने के कारण ही सीमित व अस्थायी सिद्ध हो रहे है। यह कृष्ण की ही विशेषता है कि महाभारत का युद्ध पाण्डवों का प्रतिशोध मात्र होने के स्थान पर धर्मयु़द्ध का सकारात्मक रूप ले सका। भले ही उसके लिये उन्हें स्वय कौरव राजसभा में पाण्डवों के दूत के रूप में पैरवी कर अपमान सहना पड़ा।
क्रांतिकारी कृष्ण की कार्यपद्धति का सबसे महत्वपूर्ण चैथा आयाम है उनका स्वयंका पूर्णतः सत्ता निरपेक्ष होना। कंस के वध के बाद यदि कृष्ण स्वयं राजा बन जाते तो जनता तो उनका स्वागत ही करती किन्तु कृष्ण का जीवन इससे कई गुना उदात्त है। इसी कारण वे कंस के जन्मदाता उग्रसेन को बंदिगृह से मुक्त कर उनका राज्याभिषेक मथुरा के राजा के रूप में करते है। कृष्ण को तो सारी जनता के हृदय पर राज करना है। द्वारिका में भी राज्यस्थापना के बाद वे स्वयं कोई पद ग्रहण नहीं करते है। अपने पिता वसुदेव को यादवराज्य के राजा के रूप में प्रतिष्ठित करते है। महाभारत युद्ध से पूर्व भी बिना किसी पक्षपात के कौरव पाण्डवों दोनों को सहयोग प्रदान करते है। यह निरपेक्षता ही कृष्ण की नैतिक शक्ति है जिसके कारण वे पूरे विश्व के हृदय पर शासन करते है और सही शासक को सत्ता प्रदान कर बाहर से नीतिगत मार्गदर्शन कर सकते है। वर्तमान में भी इसी प्रकार के राजनैतिक आकांक्षाओं से पूर्णतः अलिप्त निःस्वार्थ नैतिक नेतृत्व की क्रांति को प्रतिक्षा है।
आज की जन्माष्टमी हमारे लिये आत्मावलोकन का समुचित अवसर प्रदान करती है। आज जब दैवी असंतोष से पीड़ित जनता भारत में आमूलचूल परिवर्तन के लिये समग्र स्थायी क्रांति के लिये उद्यत है तब हम अपने अन्दर के कन्हाई को जगाये। युक्ति की शक्ति, सर्वसामान्य जन का भावात्मक, क्रियात्मक व वैचारिक जनजागरण, सकारात्मक लक्ष्य तथा सत्ता निरपेक्ष निःस्वार्थ नेतृत्व के चिरंतन तत्वों को आचरण में उतारकर सच्ची क्रांति का निर्धार करे। क्रांतिकारी कृष्ण हमारा नेतृत्व अवश्य करेंगे, पार्थसारथी की गीता हमारा सारथ्य करेगी और कंस चाणूर का मर्दन करनेवाले विश्ववन्द्य जगत्गुरू माँ भारती को पुनःप्रतिष्ठित करने में हमारे साथी बनेंगे।
Reblogged this on pravinchn.
It is an appreciable initiative.
Best regards,
Baldeo Pandey
आज की मीडिया द्वारा कृष्ण का सही स्वरूप प्रस्तुत नहीं किया जा रहा है…कृष्ण मतलब केवल गोपिय के कान्हा ही नहीं…कृष्ण मतलब केवल लीलाए नहीं…कृष्ण कुछ और है…मानव इतिहास के महानतम पुरुष…सच में श्री कृष्ण को देखने की नयी दृष्टि मिली है इसे पढकर…कृष्ण हम सब में है बस उन्हें साकार करना है…
हम सभी कृष्ण बने
Indeed ,to practise Lord Krishna”s political ethics is the need of the day in the present scenerio of our Bharat Mata.however, situation prevailing presently in our country is very obnoxious,