अंतरतम के प्रह्लाद की खोज का पर्व: होली
समाज हिरण्यकश्यपुओं से भर गया है। हिरण्य के दो अर्थ है – एक है स्वर्ण और दूसरा है चमकनेवाला। धन और दिखावे के प्रति आकर्षण बढ़ता ही जा रहा है। जो इनके प्रति आकर्षित हो उसे हिरण्यकश्यपु कहते है। आज समाज में इन्हीं का बोलबाला हो चला है। जीवन में सफलता के मापदण्ड धन और उसका भोण्डा प्रदर्शन ही हो गये है। येन केन प्रकारेण धन कमाना ही हमारे समय की समस्त समस्याओं की जड़ है। होली के अवसर पर जब हम प्रह्लाद के दहन की कथा का स्मरण करते है। तो आज के समाज की ओर देखना आवश्यक हो जाता है। आज हिन्दुओं के धार्मिक सामाजिक उत्सवों पर आक्षेप लेने का शोभाचार (Fashion) सा हो गया है। हर बात के लिये हिन्दू संस्कृति को दोष देने की होड़ सी लग गई है। नेहरू द्वारा अपनाये समाजवादी आर्थिक प्रादर्श (Model) के कारण भारत में जब आर्थिक प्रगति अवरूद्ध थी तब उसे ‘हिन्दू विकास दर’ के नाम से कोसा जाता था। जबकि उस पूरी व्यवस्था में हिन्दुत्व दूर दूर तक नहीं था।
भारतीय संस्कृति में धन कमाने को मनाई नहीं है। उलटा अधिक से अधिक उत्पादन के लिये प्रेरित किया है। चित्रवाहिनियों के विचित्र चित्रण के कारण हम सोचते है कि हमारे ऋषि सन्यासी थे, भिक्षा पर निर्भर रहते थे। यह दोनों बाते भ्रममूलक है। भिक्षा तो अहंकार विसर्जन की साधना थी और अधिकतर ऋषि गृहस्थ थे। अपने पारिवारिक कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए समाज के लिये, ज्ञान के लिये समर्पित थे। आश्रमव्यवस्था के अनुसार गृहस्थजीवन का कर्तव्य पूरा करने के बाद वानप्रस्थ और फिर सन्यास लेते थे। किन्तु जब गुरूकुलों का संचालन करते थे तब तो वे गृहस्थ ही हुआ करते थे। अतः हिन्दू जीवनपद्धति का आदर्श ऋषि थे इसका यह कतई अर्थ नहीं है कि हम निर्धनता की पूजा करते थे।याज्ञवल्क्य ऋषि वानप्रस्थ में जाते समय अपनी सम्पत्ती का दोनों पत्नियों के मध्य बटवारा करते है। तब वर्णन आता है कि स्वर्णाभूषणों से मंड़ित लाखों गायें उनकी सम्पत्ती में है। 40 गाँवों का लगान अधिकार उन्हें प्राप्त था। वास्तव में हमने अर्थार्जन के सर्वोच्च आदर्श प्रस्थापित किये। लक्ष्मी की सफलतम उपासना भारत में ही हुई। यह धर्माधरित अर्जन का ही परिणाम है।
जहाँ धन के लिये धर्म को छोड़ अति की वहीं पाशविकता आ जाती है। फिर ब्राह्मण कुल में जन्मा रावण भी राक्षस कहलाता है। दिखावा तथा अधर्म से धनप्राप्ति यह राक्षसी आचरण है। यही हिरध्यकश्यपु का इतिहास है। आज रावण और हिरण्यकश्यपु युवाओं के आदर्श बनते जा रहे है। छोटे रास्तों से अत्यधिक पैसा कमाने की होड़ सी लगी है। बिना श्रम के तिकड़म से कमाई करते समय धर्म अधर्म का विचार कौन करें? कोई धर्म, श्रम, ईमान की बात भी करता है तो उसे केवल अव्यावहारिक ही नहीं मूर्ख समझा जाता है। चारों ओर अतृप्त भोग की आग लगी है।
ऐसे में होली का पर्व प्रह्लाद व विभिषण की खोज का पर्व है। प्रत्येक के मन में हिरण्यकश्यपु और रावण के साथ ही प्रह्लाद और विभिषण भी निवास करते है। होलिका का दहन तो सदा ही चल रहा है। आज के युग में उसे टेंशन, तणाव, विषाद ऐसे नाम दिये जाते है। हर किसी के दिल में जलन मची है। किसी कवि ने कहा ही है ना – सीने में जलन आँखों में तुफान सा क्यूँ है? इस शहर में हर शक्स परेशान सा क्यूँ है? होलिका की तपन में भी प्रह्लाद सदा भक्ति की शीतलता से संरक्षित ही रहता है। अपने मन के प्रह्लाद को जगाने का यह पर्व है।
प्रह्लाद हो या विभिषण ईश्वर का प्रत्यक्ष आश्रय पाकर ही व्यवस्था में स्थापित हुए। दोनों ने ही धर्मराज्य की स्थापना की।
उनके जीवन के तत्वों को समझने से ही हम आज भी पुनः धर्माधारित व्यवस्था की पुनस्र्थापना कर सकेंगे। अवचल भक्ति दोनों का प्रथम गुण है। भक्ति का अर्थ है एकात्म दृष्टि। जो सबमें विद्यमान एकत्व को देखता है वही भक्त। जो भक्त नहीं है वह विभक्त है। बिखरा हुआ है। आज हमने बाँटनेवाली व्यवस्था बना रखी है इसलिये व्यक्ति तक बिखर रहा है। अतः प्रह्लाद को बचाने के लिये यह एकात्मता भरी व्यवस्था को बनाना पड़ेगा। भक्ति के दम पर दोनों ही हरिभक्तों ने विषम से विषम परिस्थितियों का सामना किया। यह बचे रहने का बल बड़ा महत्वपूर्ण है। जब हमारे चारों ओर भ्रष्ट आचरण की आग लगी हो तब अपने ईमान को बचाने के लिये भी सतत ध्येयस्मरण का आश्रय लेना पड़ता है। किन्तु ईश्वर का प्रत्यक्ष अवतरण तब हुआ जब राक्षसों को सम्मूख चुनौति देने का साहस भक्तों ने किया। प्रह्लाद ने ईश्वर के सर्वत्र होने की चुनौति को स्वीकार किया ओर स्तम्भ से नृसिंह प्रगट हुए। विभिषण बड़े भाई को भरी सभा में धर्म की शिक्षा देने का साहस दिखाया और उनको राम के पास जाने का अवसर मिला। सबसे कठीन पीरक्षा यही है। अपने मन को पक्का बनाना और विपरित स्थिति में बचे रहना तो अपने तक ही सीमित है। हिरण्यकश्यपु ओर रावण का प्रगट सामना करना सबसे कठीन है। अपने ही सम्बधियों के सम्मूख धर्म पर दृढ़ रहने से ही ईश्वर प्रगट होंगे।
आईये! आज प्रह्लाद खोजे! सबको संगठित करें और चारो ओर फैले हिरण्यकश्यपुओं का सामना करें ताकि पुनः नरसिंह प्रगट हो और धर्मराज्य की स्थापना हो।
श्रध्दा: धगधगती यज्ञशिखा
गत दोन वर्षांचा अनुभव दिसतो की भारताच्या नवशिक्षित युवकांमध्ये जागृति आली आहे. मोर्चे, आंदोलन उपोषणात तरूणांची संख्या वाढतेच आहे. दूसरीकडे कावड, पदयात्रा, किर्तन, कथा, मंदिरदर्शन अश्या धार्मिक कामातही युवकांचा सहभाग वाढतानांच दिसतो. हे दोन्ही शुभसंकेतच आहेत. पण काय स्वामी विवेकानन्दांना असा जागर अपेक्षित होता ? न पेक्षा काहीही बरे. स्वामीजी म्हणायचेच आळशीपणे पडून राहण्यापेक्षा चोरी करणे केव्हाही बरेच. तमसाधीन युवसमाजापेक्षा आक्रोशित बंडखोर, राजस्तिक कर्मशीला, तरूणाई उत्तमच. पण हयापूढचा विचारा करायला हवा. तारूण्याच्या हया उद्रेकाला सकारात्मक राष्ट्रनिर्माणाची दिशा कशी देता येईल?
आंदोलनांमध्ये रस्त्यावर येवून कायदा किंवा व्यवस्था परिवर्तनाची मागणी करणारा युवक रागात आहे. त्याचा आक्रोश विश्वासघ्यातातून उत्पन्न झालेला आहे. प्रस्थापित व्यवस्थेच्या सगळयाच स्तम्भांवरून त्याचा विश्वास उडालेला आहे. राजकीय पक्ष, सुरक्षा व्यवस्था, न्यायालय हया सगळयातूनच त्याला स्वतःच्या समस्यांचे निदान दिसत नाही. म्हणून ‘सब कुछ बदल डालूंगा’ हया लेखाने तो आन्दोलनात उतरलाय. अनास्थेतून जन्मलेला हा उदे्रक अयशस्वी झाला तर सामूहिक निराशा देवून जाई. यशाचा मार्ग पण घोर अराजकतेतच घेवून जाईल. एकूण हा सगळा प्रकार बौद्धिक नक्षलवादच बनत चाललाय.
दूसरीकडे कथा, कीर्तन, यात्रेत लोटणारी तरूणांची गर्दी आस्थाहीन आंदोलकांपेक्षा थोडी सकारात्मक असली तरी प्रत्यक्ष राष्ट्रनिर्माणीच्या विधायी कार्यात लावल्याशिवाय ही धार्मिक उर्जा बांझच राहणार. धर्माच्या प्रदर्शनापेक्षा धर्माचे आवरण तरूणाईत रूजायला हवे.
हया दोन्ही प्रकारच्या युवकांना ख-या श्रद्धा जागरणाची आवश्यकता आहे. स्वामी विवेकानन्दांच्या जीवनात श्रद्धा जागरणाचे शास्त्रीय सुत्र आम्हास पहावयाला मिळते. नरेन्द्रनाथ दत्त महाविद्यालयात शिकत असतांना तर्कप्रधान, विचारशील व पर्यायी शंकालू पण होता. कुठलीही गोष्ट स्वतः चाचणी करून अनुभवल्याशिवाय तो मान्य करीत नसे. हयाच तर्कबुद्धितून श्रीरामकृष्णांनी श्रद्धेचा जागर केला. ती पद्धतीच आजच्या युवकांवर प्रभावी होऊ शकते. नरेन्द्र आणि ठाकुरांचा गुरू-शिष्य सम्बन्ध अद्भूत आहे. निव्र्याज्य प्रेमाच्या पायावर उभा हे संबन्धाचे दिव्य मंदिर आहे. श्रीरामकृष्ण बद्दल नरेन्द्रच्या मनात निरनिराळया शंका आहत. त्यांची त्याला मिळणारी विशेष वागणूक पण त्याला उमगत नाही. इतरांना न देता नरेन्द्रला प्रसादाची मिठाई देणे वेडयासारखे त्याची वाट पाहणे, हया सगळयाचा अर्थ नरेन्द्रला कळेना. काही दिवस नरेन्द्र दक्षिणेश्वराला जाऊ शकला नाही तर स्वतः श्रीरामकृष्ण परमहंस कलकत्त्याला त्याच्या घरी जाऊन पोहचले. ही आत्मीयताच श्रद्धा जागरणाची प्रथम पायरी आहे. आजच्या तरूणांत समस्त भारतीयांबद्दल ही आत्मीयता अंकुरित व्हायला हवी. हाच क्रांतिचा प्रारम्भ! हाच उपासनेचा आधार!
आत्मीयतेने दरवाजा उघडतो. पण तेवढेच पूरेसे नाही. त्या मार्गे अनुभूतिचा प्रसाद पोहोचायला हवा. अनुभूतिनेच पूढे प्रयोग करण्याचा उत्साह येतो. नरेन्द्रची जिज्ञासा होती – काय ईश्वराचा साक्षात्कार होऊ शकतो? श्रीरामकृष्णांनी फक्त सांगितलेच नाही की मी ईश्वराला तितक्याच स्पष्टतेने पाहतो जितका तुला पाहतोय तर त्यांनी शक्तिपाताच्या वैज्ञानिक प्रयोगाने युवा नरेन्द्रला ईश्वरशक्तिचा अनुभव करवला. ठाकुरांच्या उजव्या पायाच्या अंगठयााच नरेन्द्रच्या छातीला स्पर्शमात्र झाला आणि सर्व ब्रहमांड शून्यात विलीन होण्याचा अद्भूत अनुभव त्याला झाला ही झलक त्याला पूढच्या साधनेला सतत प्रेरित करीत राहीली. व्यवस्था परिवर्तनाची आकांक्षा ठेवणा-या क्रांतिकारकांना भारताच्या मर्माचा जवळून अनुभव घ्यायला हवा. सुदूर गावांमध्ये धर्मनिष्ठेने सूखपूर्वक जीवन जगण्याचा मोकळया मनानी अनुभव घ्यायला हवा. शासन निरपेक्ष स्वावलम्बी जीवनाची अनूभूतीच ख-या व्यवस्था परिवर्तनाची पथप्रदर्शक होऊ शकते.
अनुभवातून पूढे प्रयोगांचा जन्म झाला. नरेन्द्रने आपल्या गुरूच्या मार्गदर्शनात साधनेचे विविध प्रयोग केले. दक्षिेश्वर काली मंदिर हया युवा शिष्यांची प्रयोगशाळाच होती. पूढच्या पूर्ण जीवनातच स्वामी विवेकानन्दांचे प्रयोग चालूच राहिले. त्याबद्दल अधिक विस्ताराने समजून घेण्याची गरज आहे. ते पूढे पाहूच.
तूर्तास श्रद्धा जागरणाचे तीन सुत्र आचरणात आणूया आत्मीयता, अनूभूति व प्रयोग. युवा मित्रांनो भारतमातेला पूजण्यासाठी तिच्या समस्त पुत्रांशी आपली आत्मीयता असावी. त्यांच्या कष्टाचा स्वतःला बोचणा-या काटयासारखा अनुभव व्हावा म्हणजे मग त्या दूःखांना दूर करण्यासाठी आपण जीवनात प्रयोग करू. वर वर दिसायला हा मार्ग दूरचा वाटत असला तरी हाच सुनिश्चित मार्ग आहे. अनेक शतकांपासून हजारो अनाम साधक ही राष्ट्रसाधना करीत आहेत. गरज आहे त्या चमूत शामिल होण्याची. यज्ञज्वाला धगधगतेय चला जीवनाची आहुति देवूया !