उत्तरापथ

तक्षशिला से मगध तक यात्रा एक संकल्प की . . .

फुकरों को नोबल


noble economics 2013

अर्थशास्त्र के नोबल पुरस्कारों की घोषणा हुई और कुछ वर्ष पूर्व देखे हिन्दी सिनेमा ‘फुकरे’ की याद आ गई। वर्ष 2013 में अमेरिका के तीन अर्थशास्त्रियों को नोबल पुरस्कार देने की घोषणा हुई। शिकागो विश्वविद्यालय के युजेन फामा व लार्स पीटर हानसेन तथा येल विश्वविद्यालय के रॉबर्ट शीलर को ये पुरस्कार दिये गये। इन तीनों की महत्वपूर्ण ‘खोज’ संपत्ति के मूल्य निर्धारण के संबंध में थी। बड़े-बड़े शब्दों के जाल को तोड़ जब बात को समझने का प्रयत्न किया तो पता चला की एक ने शेअर बाजार को समझने के लिये सांख्यिकीय सूत्र विकसित किया। उसने बताया कि कुछ माह या वर्षों के अध्ययन से शेयर बाजार के उतार चढ़ाव को नहीं समझा जा सकता। इसके लिये कुछ लंबा समय देना पड़ता है। अलग-अलग कंपनी के शेयर देखने के स्थान पर यदि किसी वर्ग को समझा जाएँ तो आसानी होती है। दूसरे ने शेयर बाजार के बुलबुले के फूटने का ठीक अनुमान लगाया और तीसरे ने अचल संपत्ति के मूल्य कैसे तय करें इस पर अनुसंधान किया। तीनों ने वर्तमान अर्थनीति की मायावी रचना को समझा, बताया किंतु इसके मायाजाल को उखाड़ फेंकने की बात नहीं की वरन इसकी कमियों का उपयोग कर कैसे लाभ उठाया जाए उसके तन्त्र विकसित किये। एक के बनाये संगणकीय प्रादर्श (Computer Model) का उपयोग कंपनियों और न्यासों को निवेश के लिये हुआ। दूसरे के अनुसंधान का उपयोग सामूहिक निवेश के लिये इंडेक्स बॉण्ड्स प्रारंभ करने में हुआ। तीसरे ने जमीन, घर आदि के भावों में अनावश्यक उछाल के बुलबुलें के फूंटने से होनेवाले नुकसान से निवेशकों को बचाने के लिये नया सूत्र प्रदान किया।

कुल मिलाकर तीनों ही ‘अर्थशास्त्रियों’ ने वर्तमान समय के जुए को कैसे लाभकारी रीति से खेला जाए इस पर अनुसंधान किया और उपाय बताये। इसी से फुकरों की याद आ गयी। fukreyफिल्म में भी तीन आवारा मित्र स्थानीय जुए के नंबर को ठीक से बताने की पद्धति ढूंढ़ निकालते हैं। एक के सपने को दूसरा इस प्रकार से समझता है कि उसमें से लॉटरी का ठीक नंबर पता चल जाता है। तीसरा अपने पिता के ढ़ाबे के कागजात चोरी कर गिरवी रखने लाता है। पूरी फिल्म में निदेशक पैसा कमाने के श्रमहीन छोटे रास्ते पर व्यंग्य कर रहा है। पर साथ ही फिल्मी तरिके से इसी सपने द्वारा जुआ सफल होकर पैसा मिलने का भी चित्रण करता है। सारा प्रयास हास्य के साथ ही दर्शक को सोचने पर विवश भी करता जाता है। क्या सपनों और श्रम से बनाये संपदा को गिरवी रखकर तुरंत पैसा कमाना ठीक है? यह किस पतन की ओर ले जा सकता है इसका संकेत फिल्म देती है। भारतीय तड़के के साथ ही पूरी फिल्म में एक चरसी भी है जो छोटी-छोटी चोरियाँ करता है पर अंत में नोटों के बंडल निकाल देता है और कहता है – जंग लग रहा है पैसे को।

आज सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था ही ऐसे अनर्थ के सिद्धांत पर चल रही है। जिस समय विश्व में सर्वाधिक कर्जा लेकर उसको चुकाने के लिये और अधिक कर्जा ना मिलने के कारण स्तब्ध अमेरिका को फिर भी विश्व का सबसे अमीर देश माना जा रहा है उस समय इन ‘विद्वान’ फुकरों को नोबल पुरस्कार मिलने की घोषणा किसी व्यंग्य से कम नहीं है। वास्तव में समय आत्मचिंतन का है। उत्पादन को महत्व दिए बिना ऊपरी उपायों से विश्व की आर्थिक स्थिति स्थिरता के साथ पटरी पर नहीं आ सकती। आज केवल हेराफेरी से मूल्यवृद्धि कर संपदा को बढ़ाने के तन्त्र अपनाये जा रहे हैं। इन जुआरी उपायों को विदुषी मान्यता प्रदान करनेवाले अनुसंधान किये जा रहे हैं। और अब तो इन्हें नोबल मान्यता प्रदान की जा रही है। यह विनाश का ही रास्ता है। किसान मरेगा, अनमोल प्राकृतिक संसाधन कौड़ियों के भाव बिकेंगे और उत्पादक भिखारी होगा तो दूसरी ओर IMF, World Bank और नोबल जैसी भोले निवेशकों को ललचाती, डराती खलनायिकाएँ पनपेंगी।

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http://edition.cnn.com/2013/10/14/world/europe/nobel-prize-economics-2013/

अक्टूबर 18, 2013 Posted by | सामायिक टिपण्णी | , , , , , , , | 2 टिप्पणियां