उत्तरापथ

तक्षशिला से मगध तक यात्रा एक संकल्प की . . .

कर्षयति इति कृष्णः!


पूर्णावतार है श्रीकृष्ण! जिनके चरित्र में हम मानव जीवन की सभी कलाओं का पूर्ण विकास देखते है। ‘कला’ इस संस्कृत पद के दो अर्थ है- एक तो अभिव्यक्ति की सृजनात्मक विधा को हम कला कहते है। जीवन के सभी कार्यों को ही कलात्मकता से करने की अपेक्षा होने के कारण हम शास्त्रों में 64 कलाओं का उल्लेख पाते है। भोजन के लिये पाक कला तथा वस्त्रादि के लिये कढ़ाई, बुनाई व घर बनाने के लिये वास्तुशास्त्र जैसे मानव जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से लेकर साधना की सूक्ष्मतम अभिव्यक्ति के क्षेत्र संगीत, नृत्य, शिल्प आदि तक सभी में कलात्मकता को स्थान हिन्दू जीवनपद्धति ने प्रदान किया। इन 64 कलाओं में सृजन को प्रेरित करने के साथ ही प्रशिक्षण की भी व्यवस्था हमने की थी। भगवान् श्रीकृष्ण ने इन सब कलाओं में पूर्णता का अविष्कार किया।
‘कला’ का दूसरा अर्थ है आयाम, पहलू या हिस्सा। जैसे चन्द्रमा की 14 कलायें होती है। जब केवल कुछ अंश में जो प्रगट होता है उसे कला कहते है। हिन्दू संस्कृति की विशेषता है कि हम किसी को भी तुच्छ, घृणित अथवा पूर्णतः अनुपयोगी नहीं समझते। क्योंकि पूर्णता की कुछ कलायें तो उनमें प्रगट होती ही है। भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में हम इन कलाओं को भी पूर्णता प्राप्त करते हुए पाते है। इस बात को कृष्ण की बाल लीलाओं से ही हम समझ सकते है। बाल्यकाल में सबसे पहला कार्य गायों को वन में ले जाने का है। वहाँ उनके साथ हर स्तर के गोपबाल जोते है। सब अपनी अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार दोपहर की न्याहारी लाते है। बालकृष्ण का तन्त्र बड़ा सहज है। भोजन करते समय खेल खेल में सबकी न्याहारी को मिलाकर स्वयं अपने हाथों से सबको खिलाकर सहज ही उच-नीच का भेद मिटा समरसता को जगा देते है। मटकी फोड़, माखन चोर का खेल भी केवल नटखट लीला नही है। वह भी एक बड़ी क्रांति का सहज सुत्रपात है। यह नन्दग्राम व गोकुल के परिश्रम से उत्पन्न दूघ-दहि को कंस के राक्षसों के पोषण के लिये जाने से रोकने का सहज तरिका है। सबसे पहला स्वदेशी आंदोलन।
पुतना, शकटासुर तथा बकासुर जैसे असूरों का नाश व नृत्य कर लीलया कालिया मर्दन से कई दशकों से पीड़ित और शोषित लोगों के मध्य आत्मविश्वास आत्मबल को पैदा किया। इसी आत्मबल के बल पर इन्द्रपूजा के स्थान पर संगठित प्रयासों से गोवर्द्धन पूजा के माध्यम से पर्यावरण रक्षा का महत्वपूर्ण संदेश भी कृष्ण ने बाललीला में ही दिया। कृष्ण बचपन से ही एक क्रांतिकारी है। उनके समय की सब प्रकार की समस्याओं के लिये तो उन्होंने समाधान प्रस्तुत किये। साथ ही वर्तमान समय की समस्त समस्याओं के लिये भी कृष्ण का जीवन आदर्श प्रस्तुत करता है।
शारीरिक वासना से परे आत्मरस से रंगी रासक्रीड़ा के माध्यम से समाज में प्रेम के दैवी स्वरूप की प्रतिष्ठा उन्होंने की। गोपियों के जीवन में जिस आध्यात्मिक जागरण को उन्होने पे्ररित किया उसका स्पष्ट चित्रण हमें गोपियों के उद्धव के साथ संवाद में मिलता है। जब द्वारिका से उद्धव गोपियों को कृष्ण से मिलने के लिये ले जाने वृन्दावन आते हैं तो गोपियाँ जाने को तैयार नहीं होती। वो कहती है हमारे कृष्ण तो हमारे साथ है। हमारे भीतर है, हमें उनसे मिलने कही और जाने की जरुरत ही नहीं है। उद्धव जो स्वयं श्रीकृष्ण से वेदान्त की शिक्षा पा रहे है, गोपियों को अद्वैत का साक्षात मूर्तिमंत स्वरुप पाते है और दैवी प्रेम की आध्यात्मिक उदात्तता को वृन्दावन में अनुभव करते है।
दिखने में सुकोमल नन्दलला बल में भी कम नहीं है। अपने शारीरिक बल, चापल्य और कौशल से कुवलियापीड़, चाणुर व कंस का वध कर असुर शक्ति का निर्दालन वे किशोरावस्था में ही करते है। विजय के बाद भी स्वयं का महत्व नकारते हुए कंस के पिता उग्रसेन को राज्याभिषेक करते है। कंसवध से उत्तेजित जरासंध को 17 बार पराजित कर भगाने के बाद भी उसके बार बार आक्रमण से होनेवाली असुविधा से मथुरा को बचाने के लिये स्वयं रणछोड़दास का दूषण स्वीकार कर गुजरात की ओर प्रस्थान करते है। कालयवन नामक राक्षस के निःपात के समय भी स्वयं श्रेय लेने के स्थान पर सदियों से साधना में लीन ऋषि मुचकुन्द के तपोज्वाला में उसे भस्म कराते है। इस ऋषि को भी समाजोन्मुख योगदान के व्यावहारिक आध्यात्म की ओर प्रेरित कर उनका शिष्यत्व ग्रहण करने की तत्परता दिखाते है। इससे बड़ा अनहंवादी जीवन क्या होगा?
द्वारिका की रचना भी अपने आप में अद्वितीय है। यह हिन्दू अर्थशास्त्र का व्यावहारिक प्रादर्श प्रस्तुत करने का कार्य है। हिन्दू जीवनपद्धति के सिद्धान्तों को जब व्यवस्था में व्यवहार में लाया जाता है तो कैसे विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था से सबके उत्पादन को बढ़ा पूरे जनजीवन को ही स्वर्णीम संरचना प्राप्त होती है इसका यह जिवन्त उदाहरण है। यह नव रचना का अभिनव प्रयोग कृष्ण और बलराम के हल ने द्वारिका में कर दिखाया? वास्तव में उस व्यवस्था के सिद्धांतो का गहन अध्ययन आज के सन्दर्भ में भी प्रासंगिक होगा।
श्रीकृष्ण का सारा जीवन धर्म की संस्थापना का जीवन है। आवश्यकता पड़ने पर सदियों से चल रही गलत परम्परा तोड़ नई परिपाठियों की रचना, कभी हिंसा का बल से दमन, कभी आवश्यक मन्त्रणा प्रदान करना, युद्धभूमि में भ्रमित पार्थ को गीता के उपदेश में शास्त्रों का सार प्रस्तुत करने के साथ ही योग-वेदान्त को नवीन व्यावहारिक अर्थ पदान कर पूरी मानवता को ही उपकृत करना ये सब धर्मसंस्थापना के ही विभिन्न माध्यम है। इन सबकी प्रासंगिकता कृष्ण के अवतरण के 5113 वर्षों बाद आज भी उतनी ही कायम है।
कृष्ण का शाब्दिक अर्थ है – जो आकर्षित करता है। कर्षयति इति कृष्णः! यह आकर्षण बाह्य नहीं आत्मिक है। यही इसकी चिरंतनता का रहस्य है। आज भी प्रत्येक मानव को अपनी उन्नती के लिये कृष्णलीला में मार्ग मिलता है अतः आज भी कृष्ण आकर्षण का उतना ही बड़ा केन्द्र बनें है। सारे विश्व में उनके प्रशंसक हैं।
आइये! इस जन्माष्टमि पर हम भी अधर्म, असुर विनाश व धर्मरक्षा के लिये संकल्पबद्ध हो!!

अगस्त 18, 2011 - Posted by | चरित्र, सामायिक टिपण्णी

10 टिप्पणियां »

  1. अदभुत थे श्री कृष्ण..आज वो हम लोगो को इतना आकर्षित करते है तो जो उनके साथ रहे थे वो किस स्थिति में रहते होगे इसका अनुमान लगाना असंभव है…
    प्रत्येक स्थिति का श्रेष्ठ संभव हल उनके पास में था…अपने पूरे जीवन में लड़ते रहे..संघर्ष करते रहे…केवल धर्म और न्याय के लिए…इस राह पे चलते चलते श्री कृष्ण का साथ न उनके भाई बलराम ने दिया और न ही उनके बेटो ने…सबके साथ होते हुए भी कृष्ण कितने अकेले थे…लेकिन अपने आप को कभी बाधित नहीं होने दिया..अपने आप को कभी किसी सीमा में नहीं बांधा…अनेक प्रकार के बंधन होते होए भी कितने स्वतंत्र थे श्री कृष्ण…अदभुत थे श्री कृष्ण..

    टिप्पणी द्वारा Anand Gupta | अगस्त 18, 2011 | प्रतिक्रिया

  2. Vartmaan Samay ke anusaar bhi Shri Krisna Nitee anukool h aur hme es raah pr chalkar en pristetioyn se neptane me margdharsen kar rhi h……

    टिप्पणी द्वारा ommukesh997@gmail.com | अगस्त 19, 2011 | प्रतिक्रिया

  3. aajivan samaj rakshan.poshan ka sandesh karmyogi shri krisna ne deya he.
    aunka anusaran ham kare…..

    टिप्पणी द्वारा lokesh keshre | अगस्त 20, 2011 | प्रतिक्रिया

  4. कृष्ण अवतार में उनकी संपूर्ण लीलाए जीवन में कर्म की प्रधानता दर्शाती हैं. उनक़ी बाल लीलाओ से लेकर महांभारत में अर्जुन को संदेश देने तक की समस्त लीलाये कर्म को ही प्रधानता देती है 1 आपने उनक़ी कलाओं की जो व्याख्या यहा प्रस्तुत की है वह वास्तव में अद्भुत है.1 क़ृष्णावतार से अभी तक की गणना का स्मरण दिलाने के लिए भी धन्यवाद ! सर्वसाधारण की जानकारी में यह आया कि दो दिन बाद आने वाला जन्म दिन 5114वां जन्मदिवस है !
    इस ब्लाग में कृपया कर्म/अकर्म/विकर्म पर भी प्रकाश डालियेगा / धन्यवाद !

    टिप्पणी द्वारा Suman Dabas | अगस्त 20, 2011 | प्रतिक्रिया

    • धन्यवाद !कृष्ण अवतार में उनकी संपूर्ण लीलाए जीवन में कर्म की प्रधानता दर्शाती हैं. उनक़ी बाल लीलाओ से लेकर महांभारत में अर्जुन को संदेश देने तक की समस्त लीलाये कर्म को ही प्रधानता देती है 1 आपने उनक़ी कलाओं की जो व्याख्या यहा प्रस्तुत की है वह वास्तव में अद्भुत है.1 क़ृष्णावतार से अभी तक की गणना का स्मरण दिलाने के लिए भी धन्यवाद !सर्वसाधारण की जानकारी में यह आया कि दो दिन बाद आने वाला जन्म दिन 5114वां जन्मदिवस है !
      इस ब्लाग में कृपया कर्म/अकर्म/विकर्म पर भी प्रकाश डालियेगा / धन्यवाद !

      टिप्पणी द्वारा Bhanwar Singh Rajput | अगस्त 20, 2011 | प्रतिक्रिया

      • राजपूत जी जय श्री कृष्ण ! केवल एक स्पष्टीकरण युगाब्द ५११४ जो लिखा है वो श्रीकृष्ण के शरीर छोड़ने से प्रारंभ होता है| ये कलि का प्रारंभ माना गया जब व्याध के बाण के निमित्त से भगवान ने प्राणत्याग किये| ५११४ वर्ष उस घटना को हुए है| महाभारत के समय की काल गणना और जीवन के दीर्घायु होने के प्रमाण को देखते हुए उनका जन्म कमसे कम १८० वर्ष पूर्व हुआ होगा| ये अलग बात है की वे चिर युवा थे|

        टिप्पणी द्वारा uttarapath | अगस्त 21, 2011

  5. भगवान श्री कृष्ण के गुणों का वर्णन करना ,उनके बारे मै कुछ लिख पाना सहस्रह ब्रह्मा के द्वारा असंभव है फिर मै तो सामान्य नागरिको के कर्तव्यों का भी पूर्ण रूप से निर्वहन भी नहीं कर पा रहा हूँ सामान्य ताया यदि हम प्रभु कृष्ण के अगर एक एक नाम की भी चर्चा करते है उसके मध्य्यम से हमारे मानव समाज को अनेकों सन्देश और जीवन जीने की सीख देखने को मिलती है और ये सब नाम समय -समय पर कर्मों के आधार पर हमारे द्वारा ( मानव समाज ) ही लिए जाते है और इनका उद्देश्य केबल मानव जाति का कर्मो के द्वारा परम कल्याण की और प्रसस्थ करना है श्री कृष्ण का अवतार पूर्ण कलाओं ( 64) से युक्त माना जाता है मेरी सुक्ष्म बुद्दि के अनुसार “किसी भी काम का सर्वोपरि , परिस्कृत और पूर्ण रूप ही उस काम के मूल रूप को दर्शाता है और उस काम की पूर्ण निपुणता ही उस परिपेक्ष्य मै “कला ” का ही रूप है और एक कला के मध्य्यम से कितने काम सिद्ध हो सकते है इसका वर्णन काफी कठिन है “
    श्री कृष्ण के शिशु रूप मै ही शिशु ,बाल तरुण ,ब्रद्ध ( मानवमात्र ) के लिए सिक्षाएं निहित है चाहे वह वात्सल्य प्रेम हो , मित्र व्यबहार , सस्त्रू व्यव्हार , गौबंस संवर्धन ,लोकव्यवहार और भिन्न भिन्न व्यव्हार हो / चुकी श्री कृष्ण जन्मोत्सव का विशेस महत्व माना जाता है मानव मात्र के लिए यही से प्रेरणा ,पराक्रम , प्रेम ,आदि का नव्स्फुटन होता है और श्रिस्ठी के हर जीव के लिए उसकी पात्रता के अनुसार अलग अलग महत्व है ( बिचार मन में बहुत है पर लिखने में असमर्थ हूँ चुकी आप का टिपण्णी करने का आदेश था ..) ……….जय श्री कृष्ण

    टिप्पणी द्वारा indrajeet sharma | अगस्त 20, 2011 | प्रतिक्रिया

  6. 1 kushal sangatak……..jo pratyak kshetra m karya ko rachanatmak tarike se karne ki prana dete h…

    टिप्पणी द्वारा sumit | अगस्त 20, 2011 | प्रतिक्रिया

  7. or haa apne pratyek karya m sanghathan ex. govardhan parvat,kaliya mardan,makhan churana……

    टिप्पणी द्वारा sumit | अगस्त 20, 2011 | प्रतिक्रिया

  8. krishna janmastmi ke avsar par isse acchaa Marg Darsan nahi mil sakta.

    टिप्पणी द्वारा Narendra kumar | अगस्त 23, 2011 | प्रतिक्रिया


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