उत्तरापथ

तक्षशिला से मगध तक यात्रा एक संकल्प की . . .

अधिकस्य अधिकं फलम्


अधिक मास में दान की महत्ता बताने के लिए इस उक्ति का प्रयोग किया जाता है। सत्य भी है, पुरुषोत्तम मास में दिये गये दान का अधिक पुण्यलाभ होता ही है। इस बार श्रावण मास अधिक मास है। चातुर्मास इस कारण इस वर्ष पाँच माह का है। व्रत करने का अधिक अवसर है। पुण्यप्राप्ति भी अधिक होगी। अतः यह उक्ति उचित ही है कि अधिक मास में जितना अधिक करेंगे उतना अधिक फल मिलता है। शास्त्रीय भी है। कार्यकारण संबंध का विज्ञान भी यही बोलता है। जो भी कर्म करेंगे उसका परिणाम होगा। जिस भाव से कर्म करेंगे वैसा फल मिलेगा।

यह शास्त्र समझेंगे तो फिर यह विचार केवल अधिक मास तक सीमित नहीं रहेगा। हम सभी अपने जीवन में अधिकतम लाभ चाहते हैं। लाभ अर्थात् पाना। अधिक पाने के लिए प्रयत्न करना कोई अपराध नहीं है। संतोष का अर्थ यह नहीं है कि अभाव में रहो। भूभुक्षा अर्थात् भूख के शमन से उत्पन्न तृप्ति के बाद और अधिक भोग की इच्छा न होना सत्य संतोष है। पाने की इच्छा की समाप्ति ही लक्ष्य है। जिसे पाने से और अधिक पाने की इच्छा ही ना हो वह परम लाभ है। “यं लब्ध्वा च अपरं लाभं मन्यते नाधिकं तत: ॥” संतोष परिणाम के प्रति रखना है प्रयत्न अथवा परिश्रम के प्रति नहीं। बिना परिश्रम के पाने की इच्छा का भी भारतीय दर्शन निषेध करता है। त्याग ही भोग का आधार प्रदान करता है यह हमारा शास्त्र है। अधिक पाना है तो अधिक त्याग और परिश्रम करना पड़ेगा यह हमारी मान्यता है। अधिकस्य अधिकं फलम् का अर्थ है – अधिक त्यागस्य, अधिक परिश्रमस्य अधिकं फलम् ॥

भारत अभाव अथवा दारिद्र्य का उपासक नहीं है। त्याग का अर्थ विपन्नता नहीं है; तुष्टि से उत्पन्न भोग को छोड़ने का परिपूर्ण भाव त्याग है। जैसे पूर्ण भरा घट छलकता है और अंदर का जल बाहर आता है, वह त्याग है। हम केवल लक्ष्मी के नहीं, तो महालक्ष्मी के उपासक हैं। अधिक पाना चाहते हैं क्योंकि ईश्वर अनंत है। वेद में मंत्र है – नाऽल्पे सुखं अस्ति — अल्प अर्थात् कम में सुख नहीं है। उसके पूर्व का मंत्र उसका कारण बताता है – भूमा वै स: — वह (ईश्वर) अनंत है। इसलिए उसके ही अंश मनुष्य को अधूरे में, कम में सुख नहीं मिलता। पूर्ण ही चाहता है। उसी का परिणाम है कि अधिक की कामना सब में है। योगक्षेम में योग का तात्पर्य है जोड़ना, पहले जो है उसमें और जोड़ना। क्षेम अर्थात् जो पा लिया उसकी रक्षा करना। अधिक पाना है तो उसके लिए अधिक मूल्य देने की तत्परता भी रखनी होगी।

यह अधिक अथवा बड़े की कामना सभी मनुष्यों में सामान्य है। इस कारण बड़े बड़े भवनों, प्रासादों और मंदिरों का निर्माण भारत में प्राचीन काल से हुआ है। पश्चिम में भी भोग के साधनों में यह आधिक्य व्यक्त हुआ है। बड़ी कारें, बड़े चषक आदि बातें इसका प्रमाण हैं। भारत में यह समझा गया कि भौतिक वस्तुओं की मर्यादा है। कितना भी बढ़ाया जाए सीमा तो रहेगी ही। अतः भूमा (अनंत) को केवल भौतिक अधिकता से नहीं पाया जा सकता। इसलिए मानसिक और भावनात्मक स्तर पर विस्तार अधिक परिणामकारी होता है, इस बात पर ध्यान दिया गया। व्यष्टि — समष्टि — सृष्टि — परमेष्टि इस चतुष्टय में मनुष्य के मन का क्रमशः विस्तार होने की व्यवस्था भारत में सदियों से रही है। सभी उत्सव, परंपरा और सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से मन का विस्तार सहजता से होता रहा है।

इस भावनात्मक विस्तार का मूल आधार और भारत में प्रत्येक स्तर के सामूहिक जीवन का आधार परिवार है। व्यक्ति का प्रथम भावनात्मक विस्तार परिवार है। भारत में विवाह केवल दो व्यक्तियों के मध्य का अनुबंध (Contract) नहीं है। यह समाज मन (Collective Mind) का व्यक्तिगत मन पर संस्कार है। विवाह संस्कार के विविध प्रकार मूल रूप से मन के विस्तार के संस्कार हैं। इसलिए त्याग ही इन सबका आधार है। दान त्याग का सरलतम माध्यम होने से विवाह में भी वह जुड़ गया है। समाज का मूल एकक परिवार होने के कारण उसकी वृद्धि का माध्यम होने से विवाह एक सामाजिक संस्कार भी है।

परिवार के आगे विस्तार हेतु भी सामूहिक उत्सव आदि से परंपराओं का विकास हुआ। धार्मिक उत्सव, मेले, तीर्थ, मंदिर सब केवल उपासना के स्थान नहीं थे। सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और अंततोगत्वा राष्ट्रीय चेतना के स्तर और समाज मन के विस्तार के सनातन माध्यम रहे हैं। तीर्थयात्राओं की परंपराओं और मान्यताओं से राष्ट्रीय एकात्मता को साधा गया। जैसी चुनौतियाँ आई वैसे ही सजीव भारतीय संस्कृति ने प्रत्युत्तर दिया। कर्मकांड पर प्रश्नचिह्न खड़ा हुआ तो शंकराचार्य और रामानुजाचार्य जैसे आचार्यों ने स्वाध्याय और संन्यास के संगठन से समाज जागरण के साथ ही राष्ट्रीय एकात्मता का कार्य किया। मंदिरों पर आक्रमण हुआ और उन्हें तोड़ा गया तब भक्ति आंदोलन पूरे देश में जन-जन के हृदय तक पहुँचा और व्यक्ति के भावनात्मक विस्तार का कार्य किया। केवल देवभक्ति ही नहीं, राष्ट्रभक्ति भी सभी संतों के साहित्य में प्रधान रूप से प्रगट होता है। उनकी ईशभक्ति भारतभक्ति तक विकसित होती थी। व्यष्टि के परिवार से राष्ट्र तक समष्टि में विकसन का कार्य भारत में विविध संप्रदायों के रूप में किया।

काल के प्रवाह में और बाद में विदेशी आक्रमणों के फलस्वरूप इन पारंपरिक विधाओं के प्रभाव का क्षरण हुआ। जीवित संस्कृति होने के कारण समाजीकरण के संस्कारों में भी परिवर्तन होता रहा है। सहस्राब्दियों से धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संस्थाओं, संगठनों के माध्यम से हो रहा मानसिक विस्तार – अधिक की कामना का साधन बना है। आज भी भारत में ये सभी पूर्ण उत्साह और गौरव से कार्यरत हैं। आचार्यों के मठ और संन्यासियों के अखाडे भी सक्रिय हैं और भक्ति के संप्रदाय भी। इन्हीं के साथ नवसंप्रदाय भी बढ़ रहे हैं। इनके आधिक्य का भी हमने उदारता से स्वागत किया। क्योंकि डेढ़ अरब भारतीयों के लिए इस क्षेत्र में भी — अधिकस्य अधिकं फलम् — ही सत्य है।

यूरोपीय आक्रमण के बाद सामाजिकीकरण के साधन विधिक होना आवश्यक हो गया। अतः 19-20 वी शती में पूरे देश में शैक्षिक, सामाजिक और राजनयिक संस्थाओं और संगठनों का निर्माण राष्ट्रीय विचारों के देशभक्तों ने किया। आर्य समाज, सनातन धर्म सभा, रामकृष्ण मठ, भारत सेवक समाज, युग निर्माण योजना जैसे अनेक संगठन बनें और विकसित हुए। वैसे ही पूरे देश में राष्ट्रीय शिक्षा संस्थान, भारतीय विद्या भवन जैसी संस्थाएँ भी बनी। पुरानी संस्थाओं, संगठनों के साथ ही नूतन जुड़ती गई। भारत में सभी सामाजिक कार्य बल और प्रोत्साहन पाते हैं, फलते-फूलते हैं। यह भी इस जीवित समाज का लक्षण है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि इतने संगठन हैं, और सहस्रों बने तो भी कम है। आवश्यकता है उनके मध्य परस्पर सम्मान और समन्वय का भाव।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 1925 में स्थापना भारत के पारंपरिक धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक संगठन और आधुनिक वैधानिक संस्थाओं से पृथक किंतु समन्वय का परिपाक था। हिंदू समाज का संगठन करने की सहज पारंपरिक किंतु उतनी ही नूतन कार्यपद्धति का विकास संघ में हुआ। संगठन शास्त्र का विकास संघ के कार्य के साथ हुआ। आचरण के द्वारा संघ संस्कृति भी विकसित हुई। उसके अनेक तत्त्व हैं। आज के विषय अधिकस्य अधिकं फलम् को ध्यान में रखते हुए एक विषय पर थोड़ी चर्चा करते हैं।

संघ ने व्यक्ति निरपेक्ष संगठन विधि का विकास किया। व्यक्ति बदलने से भी कार्य चलता रहे ऐसी अद्भुत रचना का निर्माण संघ में हुआ। कार्य है व्यक्ति निर्माण का – सामान्य स्वयंसेवकों में से महान कार्यकर्ताओं का सतत प्रवाह संघ ने खड़ा किया। किंतु व्यक्ति निष्ठा को संघ कार्य में कोई स्थान नहीं है। संगठन निष्ठा ही संघ के सतत विस्तृत होते हुए भी गुणवत्ता में शिथिलता ना आने का कारण है। कार्य का केंद्र व्यक्ति होते हुए भी कोई संगठन से बड़ा नहीं हो सकता। इसके लिए सामूहिक निर्णय पद्धति का विकास संघ में हुआ। इसी कारण सभी उस निर्णय को अपनाकर स्वीकार करते हैं।

शुद्ध सात्विक प्रेम कार्य का आधार होने से स्नेहमय, आत्मीय, पारिवारिक संबंध तो कार्यकर्ताओं में निश्चित ही होते हैं। कार्यकर्ता जुड़ता भी किसी व्यक्ति के माध्यम से ही है। किंतु व्यक्तिनिरपेक्ष कार्यप्रणाली के कारण सहज अनुशासन में मन के विस्तार के गहन आध्यात्मिक तत्वों का संस्कार कार्यकर्ताओं के मन पर होता है और कुछ समय में ही संघनिष्ठा दृढ़ हो जाती है। इसे ही दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने भगवान बुद्ध के तीन मंत्रों के माध्यम से समझाया। बुद्धम् शरणं गच्छामि — व्यक्ति से जुड़ाव, धम्मम् शरणं गच्छामि — तत्वों का संस्कार और अंतत: संघम् शरणं गच्छामि — संगठन के प्रति निष्ठा। कार्यकर्ता के विकास के भी यही तीन चरण हैं। हर कार्यकर्ता इस क्रम में किसी ना किसी सोपान पर है।

सभी को अपने मन में यह स्पष्ट होना चाहिए कि किसी भी बड़े से बड़े कार्यकर्ता, अधिकारी अथवा कुछ संगठनों में नेता से संगठन सदा ही बड़ा रहेगा। हमारी क्षमता, लोकप्रियता और कीर्ति संगठन के कारण ही है यह सदा स्मरण रहने से परीक्षा की घड़ी में भी व्यक्तिनिष्ठा संगठन निष्ठा से प्रबल नहीं होती। जैसे कोई भी विद्युत उपकरण कितना भी कार्यक्षम अथवा प्रकाशित क्यों ना हो उसको ऊर्जा राष्ट्रीय जाल (National Grid) से ही मिलती है। कभी-कभी अदृश्य होने के कारण यह भ्रम हो सकता कि जिस उर्जक (Plug) में हमारा भावक (Charger) लगा है उसी से हम ऊर्जा पा रहे हैं। किंतु उस भावक के पीछे ऊर्जा वितरण का पूरा तंत्र घरेलू मापक (Meter), खंभे से मिला संपर्क (Connection), रूपांतरक (Transformer) होता है। सभी विद्युत उत्पादक अपनी ऊर्जा राष्ट्रीय जाल में प्रदान करते हैं। देश में भी सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, धार्मिक ऊर्जा का उत्पादन सदा से मठ, तीर्थ, महात्मा, कथावाचक, अध्येता, अध्यापक, सज्जनशक्ति करती ही है। संगठन का राष्ट्रीय जाल उसे अंतिम कार्यकर्ता तक उपलब्ध कराता है। संघनिष्ठा का भावक उपलब्ध है ही। समर्पण और आज्ञापालन का ऊर्जक सज्ज हो तो कार्यकर्ता का उत्साह, कर्मठता और योगदान को कोई बाधा नहीं रोक सकती।

एक और रोचक तथ्य है। किसी और में व्यक्तिनिष्ठा का अनुभव उसी कार्यकर्ता को होता है जिसके मन में व्यक्तिगत अभिनिवेश अधिक प्रभावी होता है। संघनिष्ठ अधिकारी अथवा कार्यकर्ता व्यक्तिनिष्ठा का आरोप लगाने के स्थान पर अपने स्नेह, आचरण और आवश्यक अभिमत (feedback) के द्वारा उस कार्यकर्ता को क्रमशः व्यक्ति, तत्व और संघ के प्रति निष्ठा तक विकसित करता है।

व्यष्टि से समष्टि की ओर मन के विस्तार की यात्रा का यह सहज और सरल उपाय है। प्रत्येक को अपनी व्यक्तिगत साधना का भी सामूहिक फल अधिकतम रूप में पाने का अवसर संगठन के प्रति समर्पण प्रदान करता है। इसका सीधे अनुपातिक संबंध है। जितना अधिक समर्पण, संघनिष्ठा उतना अधिक पुण्यलाभ। क्योंकि अधिकस्य अधिकं फलम्।

जुलाई 25, 2023 Posted by | आलेख, सामायिक टिपण्णी, sangathan | , , , , , , , , , , , , , | 3 टिप्पणियां

हमारे विनायकराव — एक आदर्श प्रचारक


सारा जीवन क्रियाशील रहनेवालों के लिए निवृत्ति सबसे कठिन होती है। गृहस्थों के लिए भी अगली पीढ़ी को सूत्र सौंप निवृत्त होना बड़ा कष्टदायक होता है। भले ही उन्होंने संतति की बड़ी प्रतीक्षा की हो और बचपन से ही उन्हें अपने उत्तराधिकारी के रूप में गढ़ा हो, जब समय आता है तब टालमटोल स्वाभाविक ही होती है। समर्पित प्रचारक के लिए भी दायित्व परिवर्तन के बाद स्वयं को समेटना एक परीक्षा ही होती है। नये दायित्व की व्यस्तता में भी पुरानी भूमिका में कुछ अटकाव रह ही जाता है। हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि बढ़ती आयु के कारण सभी संगठनात्मक दायित्वों से मुक्त प्रचारकों के लिए यह कितना महत्कष्टप्रद होता होगा। इस सामान्य संगठनात्मक आसक्ति के लिए विनायकराव कानेटकर एक अपवाद थे। उन्होंने अत्यंत उदारता से २०१६ में भारतीय शिक्षण मंडल के संगठन मंत्री के दायित्व का परित्याग किया।

विनायकराव के साथ २०१२ में शिक्षण मंडल के सह संगठन मंत्री का दायित्व मिलने के बाद परमपूज्य सरसंघचालक जी के कहे शब्द बाद में समझ आये। मा. मोहन जी ने कहा था, “तुम भाग्यशाली हो कि एक आदर्श प्रचारक के मार्गदर्शन में कार्य करने का स्वर्णिम अवसर मिला है। उनसे सीख लो।” अगले दशक भर की संगठनात्मक यात्रा में पग पग पर परमपूज्य के इन शब्दों का साक्षात्कार होता रहा। १९६० के महान प्रचारकों की टोली के विनायकराव निश्चित ही एक आदर्श प्रचारक थे। उनका प्रचारक जीवन मेरी आयु से भी अधिक था। फिर भी उनकी वरिष्ठता और प्रचुर अनुभव हमारे सुमधुर संबंधों में कभी बाधा नहीं बने।

यह एक अनोखी मैत्री थी। गुर्दे की प्राणघातक व्याधि से उबरने के बाद भी उनकी आयु और शारीरिक अवस्था के अनुपात में वे अत्यंत सक्रिय थे। मूत्रमार्ग में प्रत्यारोपित नलियों (Stents) को हर छह माह में बदलना पड़ता था। उपचार को अत्यंत श्रद्धा से स्वीकार कर वे डॉक्टर के आदेशों का संघ अनुशासन से पालन करते थे। औषधी और आहार के कठोर अनुपालन से सत्तर की आयु में भी वे स्वस्थ थे। शारीरिक व्यायाम, प्राणायाम और नियमित शाखा के साथ उनकी दिनचर्या सुनिश्चित थी। संघ की प्रार्थना में उनके द्वारा एक दिन का भी व्यत्यय नहीं हुआ होगा।

पूर्ण रूप से अनासक्त होते हुए भी उनके दायित्व के क्षेत्र के पुराने स्वयंसेवकों के तीन पीढ़ियों से संबंध बनाए रखे थे। पचास वर्ष पुराने संबंधों के बच्चों और अन्य संबंधियों का पूरा विवरण भी उनके पास अद्यतन उपलब्ध रहता था। उनका अधिकतर प्रचारक कार्य ईशान्य क्षेत्र में और विशेषकर असम प्रांत में रहा। वैज्ञानिक दैनंदिनी की सहायता से वे प्रतिवर्ष सब संपर्कों का स्वयं के हस्ताक्षर में नूतनिकरण करते थे। अनेक यशस्वी व्यवसायी, उद्योजक, अधिकारी गर्व से बताते हैं कि बाल्यकाल में वे विनायकराव की गोद में खेले हैं। उनका संपर्क सतत और सुनियोजित होता था। नयी संचार तकनीक को उन्होंने सहज स्वीकार किया था। सम्पर्क सूत्रों का सहज प्रबंधन निश्चित ही एक महत्वपूर्ण प्रेरणा रही होगी।

यह संघ शैली का सम्पर्क तीन बंधु और दो बहनों के नाती-पोतों सह बृहत् परिवार में भी होता था। अपने विद्यालय, महाविद्यालयों के अधिकतर सहपाठियों और उनकी अगली पीढ़ियों से भी उनका जीवंत संपर्क था। एक बार पुणे में उन्होंने एक वरिष्ठ माताजी से यह कहकर परिचय कराया कि वे उनकी तीसरी कक्षा की एक सहपाठी की सुपुत्री हैं। मैंने खूब असफल प्रयत्न किया कि अपने प्राथमिक कक्षा के किसी एक सहपाठी का नाम स्मरण किया जाए। उनकी प्राथमिक कक्षा से २८ वर्ष अधुना होते हुए भी मैं एक भी नाम याद नहीं कर पाया। और यहाँ विनायकराव ना केवल उन्हें अपितु उनके पुत्र-पौत्रों को भी स्मृति में बनाए हुए थे। सामाजिक माध्यमों से हो रहे पुनर्मिलनों के कई वर्ष पूर्व से वे यह करते रहे हैं। प्रतिवर्ष अद्यतन होती दूरभाष पंजी और सामान्य डाक और उसमें भी सस्ते पोस्ट कार्ड से किए पत्राचार की यह पुरातन विधि थी।

वे सदा मेरा परिचय उनके सहयोगी के रूप में कराते थे। किसी पिता द्वारा अपने दायित्व को निभाने को सन्नद्ध पुत्र का सगर्व दिये परिचय के समान घरेलू होने के कारण तकनीकी रूप से सही ना होते हुए भी अत्यंत अपनत्व का अनुभव होता था। सभी संगठनात्मक बैठकों में उनका दृष्टिकोण परस्पर सम्मान और लाड़ से पालकत्व का होता था। हमारे उपनाम (कानिटकर – कानेटकर) में केवल एक मात्राभेद के सिवा पूर्ण साम्य था। पर किसी के भी द्वारा एक ही उच्चारण उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया। वे केवल नाम में त्रुटि सुधार से संतुष्ट नहीं होते थे, अपितु उपजाति के भेद को भी समझाकर ही मानते थे। यह विलोभनीय और शिक्षाप्रद था। वे स्पष्ट करना चाहते थे कि हमारा परस्पर संबंध रक्त से गहरा ध्येय संबंध था। संगठन के विस्तार और विलक्षण विकास से उन्हें आनंद और गर्व दोनों का सत्य अनुभव होता था। आदर्श कर्मयोगी से समान अनावश्यक हस्तक्षेप रहित सजग साक्षी भाव तथा उचित मात्रा में सुझाव, सुधार के साथ ही प्रचुर मात्रा में प्रोत्साहन और स्वातंत्र्य से परिपूर्ण नवपीढ़ी के मार्गदर्शन की उनकी विशिष्ट शैली थी। सभी अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों तथा विराट गुरुकुल सम्मेलन में उनका उत्साह अत्यंत उत्स्फूर्त तथा प्रेरक था। उन्हें सम्मान की कोई अपेक्षा नहीं थी, उल्टे किसी प्रकार के अनावश्यक महत्व को वे कठोरता से हतोत्साहित करते थे l बिना किसी आपत्ति अथवा मंच पर आमंत्रण की अपेक्षा के वे पूरे आयोजन में सक्रिय श्रोता की भूमिका आनंद से निभाते थे। जब कभी आयोजक उन्हें उत्सव केंद्र में लाने की भूल करते थे तब वे सबके सामने डाँट लगाने में भी नहीं चूकते थे कि यह संघ संस्कार नहीं है।

असमिया, बांगला, गुजराती, हिंदी, अंग्रेजी तथा मातृभाषा मराठी के ज्ञान से वे बहुभाषी थे। उन्होंने उत्साह से संस्कृत संभाषण की कक्षा में सहभाग लिया था और देववाणी में भी सहज अचूक संवाद में सक्षम थे। किंतु उनका सर्वोत्तम तो असमिया संभाषण में ही अभिव्यक्त होता था। ब्रह्मपुत्र का तट ही उनका वास्तविक घर था। वानप्रस्थ के बाद भी असम की वार्षिक यात्रा उन्हें वर्षभर के लिए ऊर्जान्वित कर देती थी।

संगीत भी उनका एक और प्रेम था। मूल रूप से शास्त्रीय संगीत के प्रशिक्षित श्रोता होने से वे अत्यंत मधुर गाते थे। औपचारिक शिक्षण के बिना भी हिंदुस्थानी शास्त्रीय संगीत का उनका ज्ञान और अभ्यास लक्षणीय था। उनका वाचन भी अधुनातन होता था। वे न्यूनतम तीन समाचारपत्र आद्योपांत पढ़ते थे और भिन्न भाषाओं में प्रकाशित अनेक लेख पढ़ने की नियमित अनुशंसा भी करते थे। सजीव आभासी बैठकों तथा संचार उपकरणों और सुविधाओं सहित सभी नूतन बातों को सीखने की तत्परता उन्हें अंत तक युवा बनाये हुए थी।

संगठनात्मक कार्य से सक्रिय निवृत्ति सर्वाधिक उल्लेखनीय थी। पूरा सम्पर्क तोड़े बिना उन्होंने उलझना पूर्ण बंद कर दिया। यह आश्चर्यजनक था कि बिना कण भर भी हस्तक्षेप किए वे सभी गतिविधियों में पूर्ण रुचि लेते थे। उनका स्वामित्वबोध अन्य गुणों के समान ही आदर्श था। वे अपनी भूमिका को ठीक से पहचानते थे और कथानक की अंतिम मात्रा तक बिना किसी जोड़ अथवा भेद के अचूक निभाते थे – कोई चुग़ली नहीं, कोई विसंवाद नहीं, कभी भी कोई संभ्रम अथवा ग़लतफहमी नहीं। जहाँ अपेक्षित वहाँ वे निश्चित उपस्थित रहते ही थे। दायित्व निवृत्ति के बाद जब उन्हें सब सत्रों में उपस्थित रहना अनिवार्य नहीं था तब भी वे सत्र नहीं चूकते थे। शिक्षण मंडल में विस्तारक योजना का शुभारंभ उनकी स्वप्नपूर्ति थी। सभी युवा कार्यकर्ताओं के वे सदैव उपलब्ध मित्र और मार्गदर्शक थे।

अद्वितीय मनुष्य निर्माण संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विनायकराव कानेटकर सर्वश्रेष्ठ फलित थे।

जुलाई 20, 2023 Posted by | आलेख, चरित्र | , , , , , , , , , , , , , , , , , , | 16 टिप्पणियां

अर्जुन का शिष्यत्व ही गीता का निमित्त


भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म की सनातनता का रहस्य है कि वह किसी एक आधार पर अवलंबित नहीं है। जिनका आधार मठ-मंदिर है उनका पतन इन भवनों, संस्थाओं के विनाश से हो सकता है जैसा पारसियों और यहूदियों के साथ हुआ। भारत में जितने मंदिरों को तोड़ा गया उसकी तुलना विश्व के किसी अन्य भूभाग में हुए विध्वंस से नहीं हो सकती किंतु हिंदू धर्म आज भी विश्वगुरु बनने को सन्नद्ध है। जिनका आधार एक ग्रंथ है वे भी आज अनेक गुटों में बटकर संघर्षरत हैं। भारत में अनेक ग्रंथ होते हुए भी संप्रदायों में परस्पर समन्वय बना है। इसका कारण है ग्रंथों के भाष्य, व्याख्या आदि की परंपरा। एक ही ग्रंथ को अपने पांथिक दृष्टिकोण से व्याख्या का अधिकार सभी को है। सभी के द्वारा आपसी मतों का स्वागत और स्वीकार किया जाता है। शास्त्रार्थ भी परस्पर सम्मान का ही उत्सव रहा है। समय-समय पर साक्षात्कारी संतों तथा तपस्वी ऋषियों ने मत समन्वय, दर्शन ऐक्य, भेद निरूपण का कार्य किया है।

हिंदू धर्म का सर्वाधिक लोकप्रिय तथा बहुचर्चित ग्रंथ है श्रीमद् भगवद्गीता। विश्व की लगभग सभी भाषाओं में अनूदित भगवद्गीता वर्तमान युग में सभी स्तर, आयु के मानवों के लिए एक उपयोगी साहित्य बना है। भारत के सभी मत संप्रदायों के संतों, विद्वानों ने इस पर भाष्य, व्याख्यान अथवा निरूपण किये हैं। वर्तमान में भी अनेक पुस्तकें इस ग्रंथ पर प्रकाशित हो रही हैं। धार्मिक, आध्यात्मिक, योगिक व्याख्याओं के साथ ही प्रबंधन, वित्त, शासन जैसे आधुनिक विषयों पर भी गीता आधारित लेखन, पाठ्यक्रम संचालन विश्व के अग्रणी विद्यापीठों में हो रहा है। भारतीय प्रबंधन संस्थान (I.I.M.) कोलकाता में प्रो. अनिल चक्रवर्ती द्वारा गीता विषय पर पाठ्यक्रम प्रारंभ किया गया। भारतीय प्रबंधन संस्थान (I.I.M.) बैंगलोर के प्रो. महादेवन ने पाठ्यक्रम के साथ ही इस विषय पर ग्रंथलेखन भी किया है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (I.I.T.) खड़गपुर में गीता पर महाजालस्थल (supersite) का निर्माण किया गया है जिसमें भगवद्गीता के साथ ही भारतीय ज्ञान परंपरा के विभिन्न ग्रंथ मुमुक्षु पाठकों को आन्तरताने (internet) पर उपलब्ध कराए हैं। केवल भारत में ही नहीं, विश्व में भी भगवद्गीता मार्गदर्शक है। विश्वविख्यात हार्वर्ड बिजनेस स्कूल में भारतीय शास्त्रों में प्रबंधन एवं ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के हिन्दू स्टडीज के अंतर्गत भगवद्गीता में विज्ञान तथा प्रबंधन आदि पाठ्यक्रम चलाए जाते हैं। इसी के साथ अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों में भगवद्गीता पर पाठ्यक्रम लोकप्रिय हो रहे हैं।

गीता के विविधांगी प्रयोगों के मध्य उसके मूल भाव को समझना आवश्यक है। गीता का तत्कालीन उद्देश्य तो अर्जुन को युद्ध के लिए तत्पर करना था। अपने मन की संकीर्णता के कारण मोहित अर्थात कर्तव्य के प्रति भ्रमित अर्जुन धर्म्य युद्ध से विमुख होता है। तब उसे स्वधर्म का भान कराने के लिए स्वयं पार्थसारथी भगवान द्वारा गायी इसलिए भगवद्गीता हम सभी के लिए स्वधर्म का स्पष्ट मार्गदर्शन करती है। सामान्यतः हम सबके मन में उठनेवाली शंकाओं, जिज्ञासाओं तथा प्रश्नों को अर्जुन ने वाचा दी है। इस कारण गीता अनेकों के लिए एक सुलभ कुंजी बन गई है। जैसे आधुनिक छात्र पाठ्य अथवा संदर्भ पुस्तकों के अध्ययन के स्थान पर सहज उपलब्ध कुंजियों अथवा प्रश्नोत्तर विधि में प्रकाशित मार्गदर्शिकाओं पर अधिक विश्वास करते हैं, उसी प्रकार विस्तृत शास्त्र ग्रंथों के सांगोपांग अध्ययन के स्थान पर गीता हमें एक सहज कुंजी प्रदान करती है। इस हेतु हमें भगवान कृष्ण से भी अधिक अर्जुन का ऋणी होना चाहिए। भगवान को तो जो भी संदेश देना है वह द्वितीय अध्याय में ही बता दिया है। अर्जुन के प्रश्नों ने व्याख्यान को आगे बढ़ाया और शास्त्रों के विविध अंगों का संक्षिप्त आख्यान हमें स्वयं भगवत्मुख से प्राप्त हुआ।

सत्य को जानने, समझने और अधिक महत्वपूर्ण साक्षात्कार के जितने भी मार्ग हो सकते हैं सबका सुगम आख्यान हमें गीता में प्राप्त होता है। निष्काम किंतु श्रेष्ठ कर्म द्वारा मुक्ति का कुशल मार्ग कर्मयोग गीता का प्रमुख प्रतिपाद्य माना जाता है किंतु उतनी ही स्पष्टता एवं आग्रह के साथ सृष्टि के गूढ़ रहस्यों पर चिंतन का मार्ग ज्ञानयोग अथवा समर्पण और प्रेम का मधुर मार्ग भक्तियोग भी गीता में भगवान ने प्रतिपादित किये हैं। ज्ञान और कर्म के मार्ग को इतने सम समान महत्व के साथ आग्रहपूर्वक कहा है कि अर्जुन तीसरे अध्याय के प्रारंभ में भगवान पर आरोप करता है कि मिश्रित वाक्यों से आप मुझे भ्रमित कर रहे हैं। जब ज्ञान को कर्म से महान बता रहे हैं तो दूसरी ओर युद्ध जैसे घोर कर्म में क्यों धकेल रहे हैं? इस प्रकार दोनों के समन्वय का कर्मसंन्यास योग भी हम सब के कल्याण के लिए गीता में प्रस्तुत होता हैं।

मन का संयम कर चित्त की वृत्तियों का निरोध करने का राज मार्ग राजयोग के विविध अंग अर्थात ध्यानयोग, क्रियायोग, हठयोग आदि का भी विस्तृत वर्णन अर्जुन के प्रश्न और भगवान कृष्ण की अहेतुकी कृपा से गीता में हमें प्राप्त होते हैं। इतना सारा ज्ञान प्रदान करने के बाद भी जब अर्जुन स्वाध्याय में ही रमना चाहता है और युद्ध के लिए तत्पर नहीं होता तब भगवान उसे दिव्य दृष्टि प्रदान कर अपने विराट विश्वरूप का भी दर्शन कराते हैं। इसके त्वरित बाद उत्पन्न समर्पण का सम्यक दिग्दर्शन करने भक्ति का मार्ग प्रतिपादित करते हैं।

सभी षट्दर्शनों का समन्वित प्रतिपादन करने के बाद दैवासुर संपद का सुस्पष्ट आख्यान कर करणीय-अकरणीय, प्राप्य-अप्राप्य अधिगम फलित को व्याख्यायित करते हैं। सभी स्तरों पर सत्व-रज-तम के भेदों को पूर्ण व्यावहारिकता से बताने के पश्चात अर्जुन को अपने मन के अनुसार कर्म करने का स्वातंत्र्य प्रदान करते हैं।

अतः गीता का अंतिम आदेश है ‘यथेच्छसि तथा कुरु’ – जैसा चाहो वैसा करो। वर्तमान युवा को और क्या चाहिए? यही स्वातंत्र्य कि मनमर्जी चला सके। भगवान केवल एक ही पूर्वकार्य अपेक्षित करते हैं। पहले अशेषेण विमर्श कर लो। बिना कुछ बाकी रहे ज्ञान पर चर्चा, स्वाध्याय, विचार कर लो फिर जैसी इच्छा वैसे कार्य करो।

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया ।

विमृश्येतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ।।18.63।।

कहते हैं कि गीता समझनी है तो अर्जुन के भाव में आना होगा। अर्थात युद्धभूमि में भी विस्तृत स्वाध्याय करने को तत्पर होना होगा। केवल विषाद और भ्रम से काम नहीं चलेगा। अर्जुन के ये दो भाव तो हम सबके पास प्रचुर मात्रा में हैं – संबंधों में मोह और कर्तव्य के प्रति भ्रम। किंतु केवल इसी से अर्जुन नहीं हो जाते। अर्जुन का विषाद योग बना क्योंकि उसने शिष्यत्व ग्रहण किया। यदि स्वयं की कृपणता अर्थात् विचारों की संकीर्णता, मन के छोटेपन को स्वीकार कर अर्जुन कृष्ण का शिष्यत्व ग्रहण नहीं करता तो उसका विषाद भी वर्तमान मनोविज्ञान के अनुरूप डिप्रेशन का रोग ही रह जाता। दूसरे अध्याय के सातवे श्लोक में अर्जुन द्वारा प्रपन्न शरणागति ही गीता के प्राकट्य का निमित्त बना है।

स्वयं के पुरुषार्थ से अथवा उसके परिणाम से असंतुष्ट तो लगभग सभी हैं किंतु स्वयं दायित्व ग्रहण करने के स्थान पर परिस्थिति, परिजन आदि औरों को दोष देते रहते हैं। यदि स्वयं के प्रति जवाबदेह बन परिवर्तन का प्रयत्न करने लगते हैं तो वही पिपासा दैवी असंतोष में परिवर्तित हो जाती है। ऐसे कर्तव्य भाव से ही कृष्ण का सारथ्य प्राप्त होता है। हम भी यदि गीता को आत्मसात कर अपने स्वधर्म का दर्शन कर जीवन को सार्थक बनाना चाहते हैं, सच्चे अर्थ में स्वतंत्र हो मन के अनुसार कर्म करना चाहते हैं तो हमें अर्जुन के विषाद और भ्रम के साथ ही समर्पण और स्वाध्याय को भी अपने अंदर जागृत करना होगा। तभी हमारा भवरोग भी कृतियोग में रूपांतरित होगा और हम भी विश्वास से कह सकेंगे कि मोह नष्ट हुआ, कर्तव्य का स्मरण हुआ और ईश्वर अब हम आपके आदेश का पालन करने को तत्पर हैं।

नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।

स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिष्ये वचनं तव ।।18.73।।

दैवी असंतोष से ईश्वरीय उपकरण बनने की यात्रा में गीता की व्याख्या हम सब के लिए उत्तम पाथेय है, अपेक्षा केवल यह है कि अर्जुन सा शिष्यत्व ग्रहण करें।

जुलाई 11, 2023 Posted by | आलेख | , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , | टिप्पणी करे

शुद्ध वाणी ही सिद्धिदात्री


तैत्तिरीय उपनिषद का एक प्रकार से प्रथम अध्याय शीक्षावल्ली है। इसमें आगे कि ब्रह्मसाधना के लिए पूर्व तैयारी के रूप में उच्चारण का शास्त्र बताया है। वाणी ज्ञान की वाहक है। ज्ञान का प्रवहण वाणी के माध्यम से ही होता है। अतः भारतीय शिक्षा पद्धति में वाणी की शुद्धि को भी अन्य पंचशुद्धियों के समान ही महत्व दिया गया है। शीक्षावल्ली में क्रमशः वाचाशुद्धि के भिन्न भिन्न मार्ग बताए गए हैं। उच्चारण का महत्व इतना अधिक है कि पूर्ण अस्तित्व के संयोग का शास्त्र भी इसके शुद्धीकरण का भाग बना है। पंच अधिकरणों से बात का प्रारंभ होता है। पाँच स्तरों पर संहिता अर्थात् एकत्रीकरण के सूत्र शीक्षावल्ली में बताए है। चेतना के सर्वोच्च अर्थात् सूक्ष्मतम स्तर है लोक अतः अधिलोक में निम्न से उच्च लोकों की महासंहिता कही गई है।

अथा॑धिलो॒कम्। पृथिवी पू᳚र्वरू॒पम्। द्यौरुत्त॑ररू॒पम्। आका॑शस्स॒न्धिः। वायु॑स्सन्धा॒नम् इत्य॑धिलो॒कम्

इसके अगले स्तर पर अधिज्योतिष है। जिसका संधान विद्युत में होता है। उसके बाद अधिविद्य स्तर में गुरुशिष्य सम्बंध का अद्भुत वर्णन है।

अथा॑धिवि॒द्यम्। आचार्यः पू᳚र्वरू॒पम् 2
अन्तेवास्युत्त॑ररू॒पम्। वि॑द्या स॒न्धिः। प्रवचनग्ं॑ सन्धा॒नम्। इत्य॑धिवि॒द्यम्।

आचार्य के अनुच्चार में अंतेवासी अर्थात् शिष्य सम्यक् उच्चारण सीखता है। इसका संधान प्र-वचन है। प्रकृष्ट वचन अर्थात् जो उच्चारित हो उसका प्राणस्तर पर श्रोता के भीतर संस्कार हो यही विद्या है। इस संधि के लिए भी वाणी का शुद्ध होना अपेक्षित है।

अधिप्रज में विकसित संतति की संहिता का वर्णन करने के बाद व्यक्तिगत स्तर के करण के रूप में अध्यात्म संहिता का वर्णन हुआ है। यह शरीर के कर्मेंद्रिय वाक् को संधि के रूप में स्थापित करता हैं।

अथाध्या॒त्मम् अधरा हनुः पू᳚र्वरू॒पम् उत्तरा हनुरुत्त॑ररू॒पम् वाक्स॒न्धिः जिह्वा॑ सन्धा॒नम् इत्यध्या॒त्मम्

इन सब को महासंहिता कहा गया है। इनका साधन कर संधि को सिद्ध करने पर साधक जो चाहे वो पा सकता है।

सन्धीयते प्रज॑या प॒शुभिः।ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन सुवर्ग्येण॑ लोके॒न॥ 4

पद, पैसा, प्रतिष्ठा जैसे लौकिक उपलब्धियों के साथ ही ब्रह्मवर्चस जैसी आध्यात्मिक आकांक्षायें भी वाणी की साधना से परिपूर्ण होती है। क्रम में आगे व्याहृतियों की भी चर्चा की गई है। भारत में ऋषियों ने वाचा की शुद्धि पर सर्वाधिक ध्यान दिया है। संस्कृत शब्द का अर्थ ही संस्कारित होता है। स्वरयंत्र से सहज निकलने वाली प्राकृत वाणी का संस्कार होने से वह संस्कृत हो जाती है। संस्कृत भाषा नहीं वाणी की साधना है। अतः शिक्षा व्यवस्था में प्रारम्भ से ही संस्कृत का प्रयोग शिक्षण सहायक (pedagogical tool) के रूप में किया जाना चाहिए। संस्कृत से सभी सिद्धियाँ सम्भव है।

सिद्धिदात्री

नवमी की देवता सिद्धिदात्री है। उन्हीकी कृपा से भगवान शिव को भी सिद्धियाँ प्राप्त हुई थी। अर्द्धनारीश्वर का रूप भी शिवजी को माता सिद्धिदात्री की कृपा से ही प्राप्त हुआ था। इनकी भक्ति से सभी लौकिक और पारलौकिक कामनाओं की पूर्ति होती है। वाणी की लोक से लेकर वाक् तक की शुद्धि भी ऐसे ही सब सिद्धियों का मार्ग खोल सकती है। अणिमा, महिमा केवल आकार के छोटा-बड़ा करने की सिद्धि नहीं है ये मन का संस्कार है कि कार्य की आवश्यकता के अनुसार कहाँ छोटा बनकर बड़ों से मार्गदर्शन लेना है और कहाँ बड़े बनकर सहयोग करना है। मन, वाणी और बुद्धि की शुद्धि से ये क्षमता आती है। वैसे ही मानसिक रूप से ही गरिमा और लघिमा को भी समझा जा सकता है। वाणी की साधना से ही यह बड़प्पन अथवा विनय संभव है। इशित्व में औरों के हृदय में स्थान बनाकर सर्वसमावेशक बनना और वशित्वं में औरों को अपने वश में करना दोनों ही संवाद कौशल से ही संभव है जो फिर वाणी की साधना से ही होगा। आठों सिद्धियाँ वाणी की साधना से मिलती हैं।

माता सिद्धिदात्री की कृपा से वाचा शुद्धि के लिए संस्कृत का समावेश शिक्षा व्यवस्था में सभी स्तरों पर हो यही प्रार्थना।

अक्टूबर 4, 2022 Posted by | आलेख, सामायिक टिपण्णी, Uncategorized | , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , | 1 टिप्पणी

महागौरी का प्रसाद तप


शिक्षण विधि (Pedagogy) सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। अध्ययन केंद्रित शिक्षण विधि ही सर्वाधिक प्रभावी होती है। वर्तमान में Teaching केंद्रित विधि से ही शिक्षा निष्प्रभ दिखाई देती है। Teaching शब्द को वैसे ही प्रयोग किया क्योंकि उसके समानार्थी कोई शब्द हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध नहीं है। सबसे निकट पर्याय उपदेश है। उपदेश शिक्षण विधि के रूप में अत्यंत विरल स्थितियों में ही उपयोगी हो सकती है। सभी के लिए सामान्य विधि के रूप में प्रयुक्त होने के कारण व्याख्यान ही कक्षाओं में मुख्य गतिविधि बन गया है। परिणामस्वरूप शिक्षा में आनंद नहीं रहा। विद्यालय में जाना छात्र और शिक्षक किसी के लिए भी रसमय और आकर्षक नहीं है। सब अवकाश की प्रतीक्षा करते है।

ज्ञान तो आनंद का पर्याय है। जीवन में आनंद ज्ञान से ही मिलता है और छोटी से छोटी ज्ञानानुभूति अपार आनंद देती है। इसी कारण पूरे विश्व के शिक्षाविद सर्वाधिक प्रयोग रसमय शिक्षण विधि पर कर रहे हैं। प्रकल्प विधि (project based learning), अनुभव अध्ययन (Experiential Learning), प्रायोगिक (Experiment) आदि वर्तमान में शोभाचार (fashion) बन गए हैं। ध्येय तथा अध्ययन दिशा के विपरीत होने के कारण ये सारे प्रयोग अधूरे रह जाते हैं। सूचनाओं को बाहर से अंदर भरना ही शिक्षण मानने के कारण ये सारी विधियाँ अनुपयुक्त हो जाती हैं। मूल्यांकन जब तक जानकारी के स्मरण का होगा तब तक केवल शोभाचार के लिए भिन्न भिन्न विधियों का प्रयोग अपर्याप्त ही रहेगा। अंतर्निहित ज्ञान की अभिव्यक्ति शिक्षण की परिभाषा होने से मूल्यांकन का आधार भी संकल्पना स्पष्टीकरण, अभ्यास, व्यवहार और चरित्र हो जाएगा। तब Teaching का स्थान Learning लेगा और ज्ञानसाक्षात्कार की एक ही विधि होगी तप।

तपसाब्रह्मविजिज्ञासस्व।तपोब्रह्मेति। ॥तैतिरीयउपनिषदभृगुवल्ली– 2.1

Ressarch

तप का शाब्दिक अर्थ है अग्नि की आँच में तपना। इसी के भिन्न भिन्न प्रयोग हैं। तप में कष्ट, संयम और अनुशासन आवश्यक हैं। इनके द्वारा शरीर, मन, बुद्धि के सीमित आवरण को हटा असीम ज्ञान का प्रकाश प्रकाशित होता है। तप तो जीवन के संग ही प्रारंभ होता है। गर्भ में भी तप के द्वारा ही एक अंड से भ्रूण और फिर पूर्ण शरीर बनता है। यह जनन भी तप का ही परिणाम है। किंतु गर्भ से बाहर आते ही इसका विस्मरण हो जाता है। तब प्रथम रुदन से ही बाह्य जीवन का तप प्रारंभ होता हैं। आँखे खोलते ही जगत को जानने समझने का प्रयत्न प्रारंभ होता। सभी पाँचो इंद्रियाँ तप से ही ज्ञान ग्रहण सीखती हैं। कर्मेंद्रियों का प्रयोग भी तप से ही सीखना होता है। तप ही एकमात्र शिक्षण विधि है। ऊपर वर्णित सभी प्रायोगिक विधियाँ भी तप के ही भिन्न भिन्न प्रकार हैं।

अधिशील स्तर पर इंद्रिय क्षमता विकास और विविध प्रयोग, अधिचित्त स्तर पर मन को एकाग्र करने तथा सम्बन्धों के द्वारा भावविस्तार के लिए तप ही करना होता है। तप का सहज अभ्यास ही शिक्षा का आनंददायी रहस्य है। तप में स्वप्रेरित कष्ट होने से अनुभूति से प्राप्त ज्ञान से आनंद मिलता है। अतः ये शिक्षण विधि अध्ययन और आनंद केंद्रित होती है। अधिप्रज्ञ स्तर पर धर्म बोध और विवेक जागरण के लिए शारीरिक और मानसिक के साथ ही बौद्धिक तप को भी जोड़ना पड़ता है।

महागौरी

नवरात्रि के अष्टमी की आराध्या माता महागौरी हैं। माँ का यह नाम ही तप के कारण पड़ा है। उग्र तप के कारण माँ का वर्ण काला हो गया तब प्रसन्न होने के बाद शिवजी ने गंगाजी से स्नान करा माता को पुनः गौर वर्ण का बना दिया। इसीसे उनका नाम पड़ा महागौरी। उनकी उपासना भी तप से ही करनी है। माँ का वाहन श्वेत वर्ण का वृषभ है। गौरी का वाहन भी विमल गौर ही होगा। किंतु विमल अथवा शुद्ध होने का तात्पर्य निर्बल होना नहीं है। इसलिए तपोमूर्ति महागौरी का वाहन शक्तिशाली वृषभ है। तैत्तिरीय उपनिषद की शिक्षा वल्ली में वृषभ को वेद अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञान का प्रतीक बताया है।

यश्छंदसामृषभोविश्वरूपः।छंदोभ्योऽध्यमृतात्संबभूव। ॥तै. . शीक्षावल्ली३.१॥

इनके अध्ययन से ही अमृतत्व प्राप्त होता है। महागौरी के वस्त्र भी शुभ्र है। जीवन में शरीर, प्राण, मन, भाव और चेतना के स्तर पर पंचशुद्धि आवश्यक है। महागौरी इसी शुद्धीकरण की देवी है।

आज तप अर्थात् Research को केवल उच्च शिक्षा का अंग बनाया गया है। तप और शुद्धि ही हर स्तर की शिक्षण विधि है। विधि परिवर्तन से मूल्यांकन तथा पाठ्य भी बदलेगा और ज्ञान की दिशा ठीक हो जाएगी। शिक्षा आनंदमय, अध्ययन केंद्रित होगी और छात्र-आचार्य दोनों विद्यालय की ओर आकर्षित होंगे। बिना किसी विवशता और बंधन के शतप्रतिशत से अधिक उपस्थिति रहेगी। यही महागौरी का प्रसाद है।

अक्टूबर 3, 2022 Posted by | आलेख, सामायिक टिपण्णी | , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , | 2 टिप्पणियां

दुर्गुणों का बीज से संहार


महिषासुर के साथ ही माता दुर्गा ने और अनेक असुरों का भी मर्दन किया है। इसमें शुम्भ और निशुंभ ये दो बंधु सबसे अधिक बलशाली थे। पुष्कर तीर्थ में किए प्रचंड तप के फलस्वरूप प्राप्त ब्रह्माजी के वरदान से ना तो कोई मनुष्य अथवा पशु उन्हें मार सकता था। इस वरदान से स्वयं को अमर मान वे अत्यधिक अभिमानी और उद्दंड हो गए। इंद्र को परास्त कर उनके आसन पर विराजमान होने के बाद माता दुर्गा के सौंदर्य का वर्णन सुन उनसे विवाह के लिए प्रस्ताव भेज दिया। नकार मिलने पर असुर धूम्रलोचन के साथ साठ सहस्र असुरसेना को देवी का हरण करने भेजा। माँ ने करुणापूर्वक सबको मुक्ति प्रदान की। उसके बाद चंड- मुंड ने आक्रमण किया। उनका संहार कर माता ने चामुंडा नामाभिधान धारण किया। इनके बाद शुम्भ-निशुम्भ स्वयं युद्ध के लिए आए। इनकी सेना में एक विचित्र दानव था रक्तबीज। इसके रक्त की बूँद भूमि पर गिरते ही उसमें से दैत्य उत्पन्न हो जाते थे। रक्तबीज के संहार के लिए माँ दुर्गा ने काली को अवतरित किया।

Kalratri

यही कालरात्रि सप्तमी नवरात्रि की आराध्या है। अत्यंत उग्ररूप लिए काली क्रूरता से दैत्यों का संहार करती है और उनके मुंड की माला धारण करती है। रक्तबीज का संहार करते समय उसका रक्त भूमि पर गिरे उससे पूर्व ही खप्पर में धारण कर पी जाती है। इस प्रकार रक्तबीज का संहार होता है। बाद में माता दुर्गा शुम्भ-निशुम्भ का मर्दन करती है और विश्व में शांति स्थापित होती है।

यह सारा मानव जीवन का ही वर्णन है। मन में सतत जन्म लेते इन दानवों का ठीक से संहार करने के लिए मनुष्य को तत्पर करना शिक्षा का उद्देश्य है। शुम्भ अभिमान का और निशुम्भ उससे उत्पन्न उद्दंडता का प्रतीक है। इनकी सेना में कपटी धूम्रलोचन है। जो आँख में धुँए के समान भ्रम उत्पन्न कर मनुष्य को अपने लक्ष्य से दूर करते है। चंड और मुंड दंभ और अति आहार के प्रतीक हैं। जो है उससे अधिक का प्रदर्शन दम्भ और सतत बुभक्षु के समान सभी इंद्रियों से अतृप्त भोग का प्रतीक खुले मुखवाला मुंड हैं। इन सबका संहार शिक्षा में आवश्यक है। अभिमान, उद्दंडता के स्थान पर विनय, कपट के स्थान पर ऋजुता (सरलता), दम्भ के स्थान पर निष्ठा और अति आहार के स्थान पर संयम ही मनुष्य जीवन को शांति की ओर ले जाता है।

इस सतत चल रहे देवासुर युद्ध में सबसे बड़ी बाधा है रक्तबीज। एक को मारो तो उसके रक्त से सैंकड़ों उत्पन्न होते है। हमारे मन में दुर्गुण भी ऐसे ही होते है। जैसे हम सोचते है कि इनपर विजय पा ली वैसे ही ये फिर सिर उठा लेते हैं। मन को नीचे जाने के लिए प्रयत्न नहीं करने पड़ते हैं। पतन अपनेआप होता है। किसी को भी किसी भी कक्षा के पाठ्यक्रम में अपशब्द बोलना नहीं सिखाया जाता किंतु बिना किसी प्रयास के अनेक अपशब्द अपनी शब्दावली का अंग बन जाते हैं। अर्थहीन फ़िल्मी गाने बिना यत्न के स्मरण में रहते है और बार बार रटने के बाद भी श्लोक और सूत्र विस्मृत हो जाते हैं। ये रक्तबीज की सेना है। खप्परवाली के खप्पर में इनका रक्त एकत्रित कर प्राशन करने से ही समूल नाश सम्भव है।

कालरात्रि का उग्र रूप हमें बताता है कि अपने अंदर के दानवों को निष्ठुर क्रूरता से मारना होता है। स्नेह से धीरे धीरे ये नष्ट नहीं होते। बार बार उत्पन्न होते हैं। आलस जैसे स्थायी और व्यसन जैसे भयावह राक्षसों का मर्दन काली ही करेगी। जिसके हाथ में तलवार और खप्पर है और दूसरे से सुरों को अभय दे रही हैं। गर्दभ को वाहन के रूप में प्रयोग करना भी शिक्षा शास्त्र का ही मंत्र है। अनुशासन से गर्दभ को भी सही कार्य का साधन बनाया जा सकता है। अपने द्वारा संहारित दुर्गुणों का स्मरण रखना आवश्यक है ताकि वे फिर उठ ना खड़े हो इसलिए मुंडमाल धारण की है।

अधिशील से अधिप्रज्ञ तक की शिक्षा में यह सूत्र समान है। शोधन करते समय ही लगातार मैल भी एकत्रित होता रहता है। कोई निश्चित नहीं कह सकता कि सब मैल हटा दिया। अभी स्वच्छता करो और त्वरित कचरा आ जाता है। इसलिए सतत कठोर अनुशासन भी आवश्यक है। कालरात्रि की साधना स्वयं के प्रति कठोरता की साधना है। शिक्षा में भी यह सातत्य, अनुशासन और जड़ से निर्मूलन की विधि अनिवार्य है।

अक्टूबर 2, 2022 Posted by | आलेख, सामायिक टिपण्णी | , , , , , , , , , , , , , , , , | 1 टिप्पणी

बुद्धि का परिशोधन मेधा से प्रज्ञा तक


अधिशील और अधिचित्त के बाद शिक्षा का अगला स्तर है अधिप्रज्ञ। इसमें बुद्धि के स्तर पर शोधन का कार्य किया जाता है। अशुद्ध बुद्धि केवल भेद को पहचानती है। एकत्व के दर्शन हेतु बुद्धि शुद्ध होना अनिवार्य है। शुद्ध अथवा परिष्कृत बुद्धि ही दृश्यमान विविधता के परे अंतर्निहित एकत्व को देख सकती है। बुद्धि का कार्य तुलना से होता है। चित्त में संग्रहित संस्कारों तथा सूचनाओं के साथ मन द्वारा ग्रहित सूचनाओं की तुलना द्वारा बुद्धि निष्कर्ष पर पहुंचती है। इस निष्कर्ष से ही मनुष्य की क्रिया निर्धारित होती है। इसलिए निष्कर्ष का अचूक होना आवश्यक है। तुलना में जहां भेद देखने है वही समानता भी देखनी होती है। अतः विश्लेषण अर्थात् खंड खंड विभाग करके समझने के साथ ही संश्लेषण अर्थात् विविध भाग जोड़ कर पूर्ण को जानना भी आवश्यक है। इस हेतु बुद्धि का परिष्कार शिक्षा में किया जाना अपेक्षित है।

अधिप्रज्ञ स्तर आयु के 12-14 वर्ष में प्रभावी रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। वर्तमान शिक्षा में यह 6-8 कक्षा की शिक्षा का स्तर है। आधुनिक शब्दावली में राष्ट्रीय शिक्षा नीति में तार्किक विचार क्षमता (Critical Thinking Ability) को इस स्तर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अधिगम बताया है। प्रज्ञा तर्क से अधिक गहन अधिगम से प्राप्त होती है। केवल निश्चय करने का कार्य बुद्धि करती है। यह तात्कालिक परिस्थितियों में उपयोगी होता है। इसमें तर्क का प्रयोग सहजता से होता है। किंतु दीर्घकालीन तथा अधिक जटिल परिस्थितियों में जीवन के निर्णय केवल ऊपरी तर्क पर नहीं लिए जा सकते। उस हेतु अधिक सटीक अथवा कुशाग्र (Sharp) बुद्धि की अपेक्षा होती है। अनेक गणनाओं तथा परस्पर पूरक वा विपरीत स्थितियों का एकत्र विचार कर निर्णय लेने की क्षमता जब परिष्कृत बुद्धि में निर्माण होती है तब इस अधिक शुद्ध करण को मेधा कहते है। ऐसी बुद्धि के धारक को मेधावी कहा जाता है।

DharmGita

बुद्धि का कार्य भी स्वाभाविक रूप से अहं के विस्तार अथवा संकुचन से प्रभावित होता है। बुद्धि के निर्णय इस अभिनिवेश से ही होते है और परिणामतः किए कर्म बंधन का निर्माण करते हैं। शुभ कर्म सुकृत और अशुभ कर्म दुष्कृत के निमित्त बनते हैं। चित्त में इनके संस्कार और संग्रहित होते हैं और नए बंधनों को जन्म देते है। गीता इसका उपाय कर्मयोग के रूप में बताती है। निश्चयात्मिका बुद्धि के स्थान पर व्यवसायात्मिका बुद्धि की चर्चा करती है। जब लक्ष्य निर्धारित कर एकाग्र बुद्धि को प्रयोग किया जाता है उसे व्यवसायात्मिका कहते है।

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन |
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ||भ गी 2:41||

ऐसी बुद्धि से युक्त होकर किया कर्म ही कुशल माना जाता है क्योंकि वह सुकृत और दुष्कृत दोनों को ही नष्ट करता है।

बुद्धियुक्तो जहातीह उभेसुकृतदुष्कृते |
तस्माद्योगाययुज्यस्व योग: कर्मसुकौशलम् || भगी 2:50||

यह बुद्धि के परिमार्जन की स्थिति मेधा से परे की है। ऐसी एकात्म बुद्धि पूर्ण विमल होती है इसलिए उसे प्रज्ञा कहते है। प्रज्ञा कर्म के उद्देश्य को परिष्कृत करती है। कर्म का प्रभाव कार्य से नहीं उद्देश्य से होता है। अतः प्रज्ञा कर्म को भी शुद्ध करती है। उद्देश्य का निर्धारण विवेक द्वारा होता है। विवेक का स्तर पशुवत् भय- अभय तथा लाभ हानि से प्रारंभ कर मनुष्य में क्रमशः न्याय-अन्याय तथा धर्म- अधर्म तक विकसित होता है। इससे शुद्ध विवेक सत् असत् के स्तर पर होता है। ऐसी प्रज्ञा को ऋतंभरा प्रज्ञा कहते है जिस स्तर पर ईश्वर और नश्वर को ठीक से जानकर कर्म होता है।

शिक्षा में न्याय और धर्म के स्तर पर प्रज्ञा विकास आवश्यक है।परिवार, समाज और राष्ट्र जीवन में सुव्यवस्थित कर्तव्य पालन के लिए यह आवश्यक है। आगे सत् की साधना व्यक्तिगत हो जाती है। धर्म का संस्कार बुद्धि में जागृत करने के लिए चुनौती का अनुभव, प्रसंग अध्ययन (case study), भूमिका अभिनय (role play) जैसे उपाय प्रभावी होते हैं। हमारे एक शिक्षक छात्रों को चर्चा हेतु व्यावहारिक परिस्थिति देते थे। जैसे रात को निर्जन चौराहे पर लाल बत्ती होने पर प्रतीक्षा करेंगे क्या ? यदि हाँ तो क्यों और ना तो क्यों ? या फिर किराना दुकानदार द्वारा भूल से अतिरिक्त राशि देने पर लौटाएँगे अथवा नहीं? दोनों के कारणों पर चर्चा होती थी। ऐसे उपायों से प्रज्ञा में धर्म दृष्टि विकसित होती है।

Katyayani

नवरात्रि के षष्ठी की देवी है कात्यायनी। कात्य गोत्र के ऋषि कात्यायन की तपस्या से यह नाम आया है। कुछ पौराणिक आख्यानों के अनुसार महिषासुर के विनाश हेतु देवताओं ने अपने तेजांश को दृष्टि से प्रदान किया। इस प्रचंड तेज को स्वरूप प्रदान करने की शक्ति केवल ऋषि कात्यायन में थी। उन्होंने माँ दुर्गा को सिंहवाहिनी का रूप दिया। इस कारण षष्ठी की देवी का नाम कात्यायनी पड़ा। कुछ अन्य संदर्भों में महर्षि कात्यायन द्वारा पराम्बा की कठोर उपासना देवी को पुत्री के रूप में पाने के लिए की गई। प्रसाद स्वरूप देवी ने उनकी कन्या के रूप में जन्म लिया और इस कारण उनका नाम पड़ा कात्यायनी। माँ का स्वरूप भव्य है वे स्वर्णिम आभा से भासित है। चार भुजाओं में से दाहिनी दोनों में अभय और वर मुद्रा है और बाईं ओर तलवार और कमल हैं। माँ का स्वरूप प्रज्ञा के विकास का द्योतक है। भेदबुद्धि को तलवार काटती है और एकात्म भाव का जागरण पंक में भी खिलता कमल करता हैं। अभय और वर मुद्रा धर्म और न्याय विवेक को दर्शाती। धर्मपालन ही भय को दूर करता है और न्याय बोध ही वर प्रदान कर सकता है।

महिष मानव के भीतर अवशिष्ट पशुत्व का प्रतीक है सब देवताओं के तेजांश से संगठित माँ कात्यायनी ही उस पर आरूढ़ हो उसका मर्दन करती हैं और प्रज्ञासिंह की सवारी कर जीवन के दैवी उद्दिष्ट की ओर अग्रेसर करती हैं।

अक्टूबर 1, 2022 Posted by | आलेख, सामायिक टिपण्णी | , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , | 2 टिप्पणियां

एकाग्रता और भाव विस्तार से ही अभय


सामन्यतः मन के रूप में सम्बोधित अन्तःकरण में चार करण (instruments) आते है -मन, बुद्धि, चित्त और अहं। जब हम मानसिक स्तर की बात करते है तब इन चारों को एक साथ संदर्भित कर रहे होते हैं। सामान्य बोलचाल में मन के चंचल होने जैसी बात हो अथवा योगशास्त्र में चित्त की वृत्तियों का निरोध करने की बात हो वास्तव में अन्तःकरण के विषय में ही चर्चा हो रही होती है। गीता में छठे इंद्रिय के रूप में वर्णित एक ही आंतरिक व्यवस्था के कार्य के अनुसार चार सम्बोधन हैं। जैसे पंच ज्ञानेंद्रियाँ और पंच कर्मेंद्रियाँ बाह्य करण है। वैसे ही यह चार अन्तःकरण हैं। इनका परस्पर अनन्याश्रय सम्बन्ध भी है मन के अधिष्ठान के बिना बाह्य इंद्रिय कार्य नहीं कर सकती।

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते॥ गी 15.9

अधिचित्त शिक्षा की चित्तशुद्धि में चारों स्तरों पर शोधन अपेक्षित है। मन का कार्य है ग्रहण करना। इसके संकल्प-विकल्प से ही इंद्रियों द्वारा बाह्य जगत से संपर्क होता है। संकल्प शुद्धि के लिए मन को एकाग्र करना आवश्यक है। यह शिक्षा का महत्वपूर्ण अंग है। स्वामी विवेकानंद तो यहाँ तक कहते हैं कि एकाग्रता ही शिक्षा है। एक बार छात्र मन एकाग्र करना सीख गया तो बाकि विषयों का अध्ययन तो स्वतः ही लीलया कर लेगा। बुद्धि तुलना तथा संश्लेषण-विश्लेषण का कार्य करती है। उसकी शुद्धि विवेक से होती है। वह आगामी स्तर अधिप्रज्ञ का विषय है। भावशुद्धि से हुई कर्मशुद्धि चित्त अर्थात् संस्कारों के भंडार को शुद्ध करती है। जिसकी व्याख्या चतुर्थ दिन के लेख में की गई।

अहं का विशोधन दो दिशाओं में हो सकता है। विलोपन द्वारा अहं को शून्य करना एक साधना प्रकार है। किंतु जब हम शिक्षा के अधिचित्त स्तर की बात कर रहे है तब अहं की शुद्धि विस्तार से ही होगी। इसीलिए अधिचित्त शिक्षा में ‘मै से हम’ की ओर ले जाने का सहज अप्रत्यक्ष उपाय किया जाता है। इस स्तर अर्थात् वर्तमान शिक्षा की कक्षा 3-5 में 8-11 वर्ष संस्कारक्षम आयु होती है। अतः इसी समय व्यक्ति को परिवार, समाज से क्रमशः राष्ट्र की ओर विस्तारित किया जा सकता है। विषय के पाठों के साथ ही खेल, गीत आदि रोचक गतिविधियों से यह सहज संभव है।

अखंडमंडल

नवरात्रि की पंचमी की देवता स्कंदमाता हैं। देवताओं के सेनापति स्कंद की माता पार्वती ही है। तारकासुर के ताप से बचने के लिए देवताओं को चिर युवा सेनापति की आवश्यकता थी। इसी उद्देश्य से शिव- पार्वती विवाह संपन्न कराया गया। प्रयास में कामदेव भी भस्म हुए। उसके बाद शिव-पार्वती एकनिष्ठा से रति में रममाण हो गए। काम के प्रभाव में काम का मूल उद्देश्य ही विस्मरण हो गया। तब कपोत रूप में अग्नि देव को स्मरण कराने भेजा गया। उनके द्वारा भी शिववीर्य के ताप को धारण नहीं किया जा सका तब माता गंगा द्वारा प्रवाहित यह वीर्य शरवण वन में छः भागों में अवतरित हुआ। कृतिकाओं द्वारा पालित होने से यह कार्तिकेय कहलाया। नारद द्वारा सूचना प्राप्त होने पर शिव-पार्वती कृतिका लोक गए। माँ के स्नेह से छः शिशु एक हो गए। भुजायें तो दो ही बनी किंतु मुख छः थे इसलिए उस रूप में ये षण्मुग कहलाए।

स्कंद नाम से ही देवताओं का सेनापतित्व किया। अतः माता पार्वती के इस रूप को स्कंदमाता कहा है। यह स्वरूप स्नेह और शांति के साथ ही अनुशासक का भी रूप है। चार भुजाओं में से दो में समृद्धि का प्रतीक पद्म अर्थात् कमल है। एक हाथ अभय मुद्रा में भक्तों को भयमुक्त करता है। चतुर्थ भुजा से माता ने षण्मुग शिशु को सम्हाला है। सिंहवाहिनी स्कंदमाता के तीन नेत्र उनके अनुशासक भूमिका को भी स्पष्ट करते है। इसी कारण पुराणों में माता की उपासना पूर्ण एकाग्रता और निष्ठा से करने पर बल दिया है। यह मन के परिष्कार का साधन है। उसी प्रकार कुमार, मुरगन आदि अनेक नामों से विख्यात स्कंद के छः मुख उनके विस्तारित होते परिचय का प्रतीक है। यह भाव विस्तार ही तो अहं के शुद्धिकरण का मार्ग है।

देवी स्कंदमाता की उपासना मन के संकल्पों को शिवमय अर्थात् कल्याणकारी, चिरयुवा सेनापति की शिशु उपस्थिति से स्नेहसिक्त संगठन, तृतीय नेत्र से अनुशासन तथा अहं के विस्तरण का संदेश देती है। यही अधिचित्त शिक्षा का स्वरूप पूरे समाज राष्ट्र को ही नहीं अखिल विश्व को ही अभय प्रदान करता है।

सितम्बर 30, 2022 Posted by | आलेख, सामायिक टिपण्णी | , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , | टिप्पणी करे

भावशुद्धि से ही ज्ञान का साक्षात्कार


जैसे बीज में पूरा विश्व छिपा होता है वैसे ही मनुष्य में पूर्णत्व संभावना के रूप में विद्यमान होता है। शिक्षा का लक्ष्य है उस संभावना को संभव करना। बीज को विराट स्तर पर अंड भी कहते है। इसीलिए ब्रह्मांड संभावना का समुच्चय है। काल के आरंभ में यही ब्रह्म-अंड द्विभाजित हुआ और सृष्टि का सर्जन हुआ। वास्तव में जब काल के चक्रीय अस्तित्व को समझते है तब इस प्रक्रिया को घटना के रूप में भूतकाल में व्यक्त नहीं कर सकते क्योंकि यह सतत घटित हो रही है। सृजन भी सतत प्रक्रिया है। इसी के चलते हम अपने ज्ञानेंद्रियों के आकलन में आ रहे अस्तित्व को जगत कहते है। जो जग रहा है अर्थात् सतत प्रकाशित हो रहा है वह जगत है। यह निरंतर हो रहा है। 

Durga Mata

चतुर्थ दिवस की देवी माता कुष्मांडा। कथा के अनुसार ब्रह्मांड की उत्पत्ति से पूर्व के तमस् में माँ प्रगट हो कर ब्रह्मबीज से सृष्टि की उत्पत्ति करती हैं। ईसीसे उनका नाम भी पड़ा है। यह भी माना जाता है कि माता को कुम्हड़े फल की बलि दी जाती है। इन दोनों बातों को जोड़कर देखते है तो हमें शिक्षा शास्त्र का महत्वपूर्ण चरण समझ में आता है। अधिशील शिक्षा के बाद दूसरा चरण है अधिचित्त। इस चरण में चित्त को शुद्ध किया जाता है। बीज रूप में विद्यमान पूर्णता की अभिव्यक्ति में यह चरण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। कुष्मांडा का अर्थ है कल्मष की बलि के द्वारा अंड का अंकुरण। ज्ञान का दीप प्रत्येक में प्रदीप्त है ही। केवल ऊपर के आवरण को हटाना है। स्वामी विवेकानंद दीप को हवा से बचाने के लिए जिस काँच के गोले को प्रयोग में लिया जाता है उस पर काल के साथ कालिख जमा होती है और फिर प्रकाश अवरुद्ध हो जाता है। मनुष्य अंतकरण की भी यही स्थिति है। चित्त में संग्रहित संस्कारों के आवरण से सत्-चित-आनंद का स्वरूप ढक जाता है। इस आवरण को हटाना ही ज्ञान साक्षात्कार का मार्ग है। इस हेतु चित्तशुद्धि अनिवार्य है। 

उपनिषद में कहा है – 

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्‌।
तत् त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥ईश उप १५॥ 

स्वर्णिम पात्र से सत्य का मुख ढका हुआ है। हे विश्व का पोषण  करनेवाले पुषन् तुम उस ढक्कन को हटा दो और हमें सत्य अर्थात् ज्ञान का तथा उसके प्रयोग धर्म का दर्शन कराओ। 

बालपन से ही मन को आर्जव जैसे दैवी संपद का अभ्यास कराने से मन निर्मल हो जाता है। अंदर बाहर का भेद समाप्त हो जाता है। अंतर्निहित ज्ञान के प्रकाश का यह मार्ग है। करुणा से जागृत संवेदना भी मन के विस्तार के साथ ही पारदर्शिता के लिए आवश्यक है। वेदना तो स्वयं की पीड़ा है किंतु जब दूसरे की पीड़ा की वेदना का अनुभव होने लगे तब उसे संवेदना कहते है। सभी को आत्मवत् देखने के सर्वोच्च आदर्श प्राप्त करने का यह प्रथम सोपान है। यह एकत्व की अनुभूति ही ज्ञान है। इसका अंतिम चरण है भक्ति। भक्ति में संवेदना से भी आगे तत्सुख की अनुभूति आती है। नारद भक्ति सूत्र का २४ वा सूत्र है – तत् सुख सुखित्वं॥ दूसरे के  सुख में सुखी होना ही अव्यभिचारिणी भक्ति है। 

भाव शुद्धि से ही ज्ञान का साक्षात्कार सम्भव है। यही सतत होते सृजन की अनुभूति हैं। माता कुष्मांडा की कृपा से हम अपनी शिक्षा प्रणाली में भावशुद्धि को भी अपनाए यही प्रार्थना। चित्तशुद्धि में और भी दो चरण है उनका स्वाध्याय माता दुर्गा के कुछ अन्य रूपों के साथ करेंगे। 

सितम्बर 29, 2022 Posted by | आलेख, सामायिक टिपण्णी, Uncategorized | , , , , , , , , , | 1 टिप्पणी

पशु-असुर का अधिलवण दिव्यत्व का प्रस्फुटन


अधिजनन के द्वारा अच्छी प्रजा का निर्माण तथा अधि- अयन अर्थात् अध्ययन के द्वारा मनुष्य के जीवन-गठन का मार्ग प्रशस्त करने के साथ ही अतिरिक्त, अनावश्यक वृद्धि का नाश करना भी शिक्षा का उद्देश्य है। इसे अधिलवण कहते है। पाषाण से मूर्ति बनाने की प्रक्रिया यही है। पाषाण खंड में मूर्ति पूर्व से विद्यमान है। केवल अनावश्यक हिस्सों को छिन्नी से हटाना मात्र है और विग्रह स्वतः प्रगट हो जाएगा। उसी प्रकार प्रत्येक मानव में पूर्णत्व पूर्व से ही विद्यमान है उसे प्रगट करना ही अधिगम प्रक्रिया का उद्देश्य है। इस हेतु ‘हेय’ अर्थात् जिसका त्याग करना, छाँटना आवश्यक है उसका भी भान अनिवार्य है। गीता के सोलहवें अध्याय में दैवी संपद का विवरण करने के बाद भगवान आसुरी संपद का भी विस्तार से वर्णन करते है और उसके विमोक्ष का उपाय भी बताते है।  

self Made

शिक्षा की दिशा अंदर से बाहर की ओर होती है बाहर से अंदर की ओर नहीं। सूचना उत्प्रेरक के रूप में बाहर से अंदर की ओर जाती है  और ज्ञान अंदर से बाहर की ओर उद्घाटित होता है। केवल सूचना के सम्प्रेषण को शिक्षा नहीं कहा जा सकता। अंतर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति को जब शिक्षा समझा जाएगा तब विधि का शीर्षासन ठीक हो जाएगा। जानकारी ठुसने के स्थान पर प्रयोग और अनुभूति से ज्ञान साक्षात्कार का यत्न प्रारंभ होगा और तप ही शिक्षणविधि बन जाएगी। 

Mata Chandraghanta

तृतीय नवरात्रि की आराध्या माता चंद्रघंटा हैं। माँ के भाल पर चंद्राकार घंटा है। चंद्र जहां शीतलता प्रदान करता है वही घंटानाद से माँ शत्रुदलन करती है। संहार में भी शांतमन रहना अपेक्षित है। गीता कहती है – यूध्यस्व विगतज्वरः। घंटा निनाद शब्द का प्रतीक है। शब्द अथवा ध्वनि के सूरमय होने से असुर नाश भी अधिलवण का ही उदाहरण है। माँ चन्द्रघंटा दशभुजाओं में शस्त्र धारण किए बाघ अथवा सिंह की सवारी करती है। शस्त्र भी शास्त्र के समान ही शिक्षा का आवश्यक अंग है। विविध प्रकार के त्याज्य को हटाने नानाविध आयुध प्रयोग में लेने होते है। देवी के आयुध जीवन के तथ्य को स्पष्ट करते है कि जीवन में सृजन और संहार साथ साथ चलते है। जीवन के लिए सर्जन जितना आवश्यक है उतना ही संघात भी अनिवार्य है। देवी मातृ स्वरूपा होने से जननी है साथ ही शिव की शक्ति होने के कारण शस्त्र धारी काली भी है। 

मानव शरीर में भी चय- अपचय साथ चलता है। प्रत्येक क्षण लक्षावधि कोशिकायें मरती है और अन्य लक्षावधि नवसृजित हो उनका स्थान लेती है। मनुष्य के जीवित रहने के लिए नव कोशिकाओं के जन्म के साथ ही कोशिका का मरना भी आवश्यक है। यदि कोई कोशिका शरीर का अनुशासन मानने से नकार देती हैं और समय से मरती नहीं तो वह कर्करोग का कारण बनती है। इस विकृत कोशिका से ही गाँठ बनती है। अनुशासनहीन कोशिका अन्यों में इस विकार को फैलाती है और पूरे शरीर के मरण का कारण बनती है। जो कोशिका शरीर के लिए नहीं मरती वह पूरे शरीर को ही मारती है। विराट पुरुष राष्ट्र का भी ऐसा ही है। जिसके राष्ट्रांग देशहित मरने को तत्पर नहीं है उसका विखंडन और पतन निश्चित है। शिक्षा में यह अंगभाव जागृत कर धर्म अर्थात् कर्तव्य हेतु बलिदान करने की तत्परता भी एक महत्वपूर्ण अधिगम फलित है। 

बाघ या सिंह मनुष्य के पराक्रम का प्रतीक है। साहस, बल और वीरता पर जब दैवी शक्ति आरोहण करती है तब ही वह पशुत्व से देवत्व की ओर अग्रसर होता है। मानव में भी यह दोनों ही हैं। पशुत्व का अधिलवण दिव्यत्व प्रस्फुटन का मार्ग है । 

सितम्बर 28, 2022 Posted by | आलेख, सामायिक टिपण्णी, Uncategorized | , , , , , , , | 2 टिप्पणियां