उत्तरापथ

तक्षशिला से मगध तक यात्रा एक संकल्प की . . .

शुद्ध, सात्विक प्रेम से चमुत्व


शुद्ध सात्विक प्रेम अपने कार्य का आधार है। यह गीत स्वयंसेवी संगठनों पर पूर्ण साकार है। जिस भी उदात्त ध्येय के लिए संगठन कार्य करता हो उस ध्येय के प्रति समान निष्ठा के कारण कार्यकर्ताओं में जो मैत्री संबंध बनते हैं वे कई बार रक्त के संबंधों से भी अधिक दृढ़ होते हैं। निःस्वार्थता ही प्रेम का मूल है। जब तक ‘मैं’ की भावना है तब तक प्रेम नहीं हो सकता। जब मैं से अधिक दूसरे का विचार होने लगता है तब वह दूसरा अपना हो जाता है। यह एकात्मता ही प्रेम है। ध्येय की उदात्तता उसके निःस्वार्थ होने में ही है। अतः कार्यकर्ता अपने स्वार्थ से संगठन से भले ही जुड़े, क्रमशः संपर्क, संवाद, सूचना की सीढ़ियाँ चढ़ते चढ़ते कब निःस्वार्थ संबंध में जुड़ जाता है यह उसे स्वयं भी पता नहीं चलता। उसे इस शुद्ध सात्विक प्रेम में जोड़ने वाले ज्येष्ठ कार्यकर्ता भी अनायास इन्हीं सोपानों को चढ़े होते हैं। पूछने पर यह बता पाना असम्भव ही होगा कि कब वे समर्पण के उस स्तर पर पहुँच गए जब संगठन, ध्येय के साथ एकात्म हो गए। इस सबका माध्यम तर्कपूर्ण विचार, चर्चा, प्रेरक उद्बोधन आदि ना हो कर कार्यकर्ताओं का निर्व्याज्य प्रेम ही होता है।

संगठन सूत्र के ‘स’कारात्मक सोपानों में चतुर्थ है संबंध। यह सुनियोजित नहीं हो सकता, सहज ही होता है। संबंध उस बंधन को कहते हैं जो बाँधने के स्थान पर मुक्त करता है। सम्यक् बन्ध अर्थात् अपूर्ण को पूर्ण करनेवाला नाता। मैं का विस्तार संबंध में होता है। अतः वह संकुचित नहीं हो सकता। उलटे सभी संकीर्णता को जो समाप्त करता है वह संबंध होता है। परिवार ऐसे ही सहज निःस्वार्थ संबंधों का संयोग होता है। रक्त संबंधों से बने परिवार में भी जब तक कुल परंपरा और स्वाभिमान से उत्पन्न समाज में योगदान करने का उदात्त ध्येय नहीं होता तब तक ऐसा संकुचित परिवार भी जुड़ा नहीं रह सकता। स्वार्थ रक्त और वंश से बंधे संबंधों को भी तोड़ देता है। जबकि संगठन का संबंध एक विराट परिवार का सृजन कर देता है। सामान्यतः विवाह से परिवार जुड़ते हैं और कुटुम्ब का विस्तार होता है। इसीलिए भारत में विवाह संस्कार का बड़ा समारोह होता है जिसमें वृहत् परिवार साक्षी और सहभागी होता है। संगठन को समर्पित परिवारों के विवाह समारोह भी संगठन के किसी आयोजन के समान ही होते हैं। वहाँ विराट ध्येय परिवार के दर्शन होते हैं।

संगठन में संबंधों का निर्वाह ही कार्यकर्ता निर्माण का सबसे संवेदनशील सोपान है। अतः इसका निर्माण भले ही सुनियोजित पूर्व योजना से ना होता हो, निर्वहन पूर्ण सजगता से करना होता है। संबंध तो होते ही हैं। तभी सैंकड़ों में से कुछ संगठन से जुड़ते हैं। संपर्क, संवाद, सूचना के सोपान पार कर जब संबंधों का साक्षात्कार दोनों ओर अर्थात् जोड़नेवाले ज्येष्ठ कार्यकर्ता और जुड़नेवाले नूतन कार्यकर्ता को होता है तब कार्यकर्ता का जन्म होता है। हर नवजात संबंधों के अखंडमंडल को अनंत की ओर विस्तारित करता है। इसीलिए परिवार में नवजात शिशु का स्वागत बड़े धूमधाम से किया जाता है। यह उत्सव घर में नित्य हो जाता है और कुछ माह तक शिशु ही पूरे घर परिवार का केंद्र उत्सवमूर्ति होता है। उसे एक क्षण के लिए भी अकेला नहीं छोड़ा जाता। संगठन में भी नूतन कार्यकर्ता को इसी उत्साह, स्नेह और आत्मीयता से संभालना सबका सामूहिक दायित्व होता है।

स्नेहमय वातावरण से आपसी मतभेद कम होते हैं और होने पर भी मनभेद में रूपांतरित नहीं होते। स्नेह शब्द का अर्थ ही है तैलीय अथवा स्निग्ध (चिकनाई)। जैसे किसी यंत्र में घर्षण को कम करने के लिए तेल के द्वारा यंत्र की सतह को स्निग्ध किया जाता है वैसे ही स्नेह संबंधों के निर्वहन में निर्माण होनेवाले अनिवार्य घर्षण को कम करने का कार्य करता है। अंग्रेज़ी में यंत्र के घर्षण को कम करने की क्रिया को lubrication कहते हैं। इसका संस्कृतनिष्ठ हिंदी में अनुवाद होगा स्नेहन। संगठन में वरिष्ठ कार्यकर्ताओं पर यह स्नेहन का दायित्व होता है। उन्हें स्वयं को भूलकर इस कठिन कार्य को करना होता है। इससे संबंध व्यक्तिगत ना होकर सामूहिक होते हैं और चमू (Team) का निर्माण होता है। नेतृत्व का दायित्व जिन पर है उन्हें यह समन्वय का असिधारा व्रत करना होता है। भेदभाव रहित मुक्त आचरण से ऐसा वातावरण बनता है जिसमें हर छोटे-बड़े कार्यकर्ता को अपना महत्व अनुभव होता है। समन्वय की भूमिका निर्वाह करनेवाले दायित्ववान कार्यकर्ता/अधिकारी को किसी भी विवाद में पक्ष लेने अथवा बनने से बचना होता है। तभी स्नेहमय वातावरण की निर्मिति संभव है।

प्रेम तो प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव है और सबसे अनिवार्य आवश्यकता भी। हमारा सत्य स्वरूप अनंत होने के कारण उसके प्रति अनायास आकर्षण स्वाभाविक ही है। शरीर, मन, बुद्धि के सीमित आवरण में बद्ध अहं को मुक्ति का मार्ग संबंधों में मिलता है। मित्र, परिवार, प्रेमी में व्यक्ति स्वयं को ही खोज/देख रहा होता है। इस आत्मवत् अनुभूति का आत्मीयता में रूपांतरण ही प्रेम है। शरीर और भाव के स्तर पर यह व्यक्तिगत होने के कारण एकांत और निकटता की अपेक्षा करने लगता है और निम्न वासनाओं के वशीभूत होने की संभावना ही अधिक होती है। मनोरंजन के नाम पर शृंगार साहित्य, चलचित्र, नाटकों के माध्यम से इसी व्यक्तिगत आत्मीयता का ‘प्रेम’ के नाम से महिमामंडन होता है। इस कारण कवि को संगठन में अपेक्षित प्रेम का वर्णन करते समय शुद्ध और सात्विक इन दो विशेषणों का प्रयोग करना पड़ा। संगठन में विविध आयु के भाई-बहन कार्य करते ही हैं। अतः व्यक्तिगत आत्मीयता से बचते हुए सामूहिक, उदात्त, ध्येय केंद्रित संबंध प्रोत्साहित करने होते हैं। अतः मन, भाव के साथ ही शारीरिक स्तर पर उचित सावधानियाँ शुद्धता को सुनिश्चित करती हैं। आपसी संबोधन भी महत्वपूर्ण है। हमारे प्रेम का लक्ष्य और आदर्श बंधुत्व होने के कारण भाई, भैया, दीदी, ताई जैसे संबोधन वातावरण की शुचिता को बनाये रखते हैं। इस कारण राष्ट्रीय विचारों से प्रेरित संगठनों में अधिकतर ऐसे ही संबोधनों का प्रयोग होता है। बड़ी आयु के अधिकारी भी अपने से छोटी बहनों को दीदी कहते हैं। यही आदर्श सभी को शुद्ध प्रेम के लिए प्रेरित करता है। शुद्ध प्रेम आध्यात्मिक उन्नति का सहज साधन है।

सात्विकता का अर्थ मात्रा और सघनता में संतुलन से है। भावों में सघनता अथवा संवाद साहचर्य में आधिक्य राजसिकता की श्रेणी में आएगा। इसमें आवेग अधिक होने से कई बार शीघ्र और तीव्र प्रभाव प्राप्त होते हैं। किंतु उतने ही अविलंब मतभेद और विवाद भी निर्माण होता है। ऊष्णगतिमानता (Thermodynamics) का नियम ही है कि शीघ्र उष्ण होनेवाली वस्तु उतनी ही गति से ऊर्जा खोती है और अविलंब शीत हो जाती है। उसी प्रकार स्वार्थ और उच-नीच का भाव तामसिकता की श्रेणी में आ जाएगा। ऐसे में प्रेम केवल दिखावा रह जाएगा और संबंध शोषण का माध्यम। अतः सात्विक प्रेम सबके प्रति समान, बराबरी के भाव के साथ संतुलित आवेग तथा संवाद एवं साहचर्य में संयमित होता है।

शुद्ध, सात्विक प्रेम से ही संगठनात्मक संबंधों में सुदृढ़ता आती है। यही हमारा वास्तविक कार्य है। ममता जनित गुटबाज़ी, व्यक्तिगत राग-द्वेष, व्यवहार में भेदभाव और अनुचित निकटता संगठन को तोड़ने का ही कार्य करती है। संगठन का ध्येय महान और दूरदुर्लभ हो सकता है। कभी कभी परिस्थितिवश असम्भव भी प्रतीत होता है। ऐसे में मार्ग पर चलते रहने का उत्साह और प्रेरणा सहयात्रियों के शुद्ध सात्विक संबंधों से ही प्राप्त होता है। ध्येय के अनुरूप कार्यप्रणाली और कार्यपद्धति का विकास योजनापूर्वक करने के बाद पूर्ण विश्वास के साथ उसपर लगे रहना ही एकमात्र मार्ग है। इस सतत ध्येय गमन के लिए सतत प्रेरणा और साथ अपेक्षित होता है क्योंकि यह व्यक्तिगत के साथ ही संगठनात्मक ध्येय पथ है। इसलिए परिवार से भी अधिक आत्मीय चमू ही यह कार्य संपूर्ण कर सकती है। चमू का निर्माण और सतत स्नेहन संबंधों के निर्वहन से ही संभव है। यही हम सब का मुख्य कार्य है और इसका आधार है शुद्ध, सात्विक प्रेम।

दिसम्बर 19, 2022 Posted by | sangathan | , , , , , , , , , , , , , , , , , | 1 टिप्पणी

चुनावी रणभूमी मे राष्ट्रवाद का शंखनाद


Republic day2चुनाव लोकतंत्र का महोत्सव है। वर्तमान में चुनाव आयोग द्वारा डाले गये कठोर निर्बंधों के कारण इस महोत्सव का उत्साह कुछ धीमा पड गया दिखता है। जमीनी गतिविधियों का स्थान अब प्रसार माध्यमों के अंदर होनेवाली प्रचार उथल-पुथल ने ले लिया है फिर भी चुनाव का समय सबके लिए ही अतिविशिष्ट सक्रियता का समय होता है। सभी प्रकार के कार्यकर्ता सक्रिय हो जाते हैं। सामाजिक कार्यों मे लगे, सामन्यतः गैर राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय कार्यकर्ताओं के लिए यह चिरंतन संभ्रम बना रहता है कि इस सक्रियता में योगदान करें अथवा नहीं और करें तो किस प्रकार से करें? भारत के वर्तमान परिदृश्य में सरकारी व्यवस्था से अछूता रहना लगभग असंभव है। जीवन के हर क्षेत्र में शासन का हस्तक्षेप है। माना कि ये स्थिति आदर्श नहीं है और विदेशी दासता के अवांछनीय अवशेष के रुप मे विद्यमान है किंतु यह भी नकारा नही जा सकता कि यह वास्तविकता है।

स्वतंत्रता पश्चात् हमने लोकतंत्र को राजनैतीक व्यवस्था के रुप मे स्वीकार किया। भारत के संविधान ने जनता को सर्वोपरि सार्वभौम सत्ता के केन्द्र के रुप के प्रतिष्ठित किया। अपेक्षा थी कि लोकतांत्रिक व्यवस्था इस धारणा को सृदृढ कर प्रत्यक्ष मे उतारती किन्तु प्रतिनिधिक लोकतंत्र के जिस स्वरुप को हमने भारत में अपनाया उसने समाज को जोडने के स्थान पर विघटित करने का ही काम किया। सर्वाधिक मत पाने वाले प्रत्याशी के विजय की व्यवस्था के कारण सबसे बडे गुट का प्रतिनिधि ही जनप्रतिनिधि कहलाया जाता है। बहुदलीय व्यवस्था के अंतर्गत चुनाव क्षेत्र मे अनेक प्रत्याशी होते हैं। जिसको सर्वाधिक मत प्राप्त होते हैं उसे विजयी घोषित कर दिया जाता है। इस व्यवस्था ने ऐसी हास्यास्पद विडम्बना की स्थिति उत्पन्न कर दी है कि कई स्थानो पर 15% से कम मत प्राप्त करने वाले प्रत्याशी भी जनप्रतिनिधि के रुप मे चुने जाते हैं। वास्तव मे देखा जाए तो डाले गए मतों मे से 85% से अधिक मतदाताओं ने इस नेता को प्रतिनिधि के रुप मे नकार दिया फिर भी सबसे बडे गुट का नेता होने के कारण वह उन 85% लोगो का भी प्रतिनिधि कहलाया जाता हैं। यह स्वाभाविक ही था कि राजनीतिक दलों ने अपने निहित स्वार्थ के लिए व्यवस्था की इस कमजोरी का उपयोग किया।

EVMजाति, वर्ग, भाषा आदि जो भी समाज को तोडने के माध्यम मिले उनके द्वारा अपने गुट को सबसे बडा सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाने लगा। क्षेत्रीय दलों के उभार ने रणनीति को और आगे बढ़ाकर अपने सीमित समर्थन को बड़ा बनाने के लिए बाकी बचे समाज को छोटे छोटे टुकड़ों में खंडित करने का काम किया। यदि किसी नेता या दल के पास जाति अथवा ऐसे ही किसी आधार पर 100 मे से 20 मतदाताओं का समर्थन है तो उसने भिन्न-भिन्न तरीकों से समाज के बाकी बचे 80 मतदाताओं को इतने टुकडों मे बाँटने का काम किया कि कोई गुट उसके गुट से बड़ा न हो जाए। विभाजनकारी राजनीति ने स्वतंत्रता के 66 वर्षों के पश्चात भी भारत की सुप्त क्षमता को प्रकट नहीं होने दिया है। आज विश्व मे चहुँ ओर सभी देश भारत के सामथ्र्य की सराहना करते हैं। जिनके मन मे मित्रता नही है वे भारत के उभरने की संभावना से आशंकित रहते हैं। किंतु इस राष्ट्र के सामथ्र्य-सूर्य को विघटनकारी राजनीति का ग्रहण लगा है। भारत में राष्ट्र पुनर्निर्माण के कार्य को यदि पूर्ण गति प्रदान करनी है व व्यवस्थागत प्रतिष्ठा दिलानी है तो उसके लिए राजनीति के विभाजक तंत्र को बदलना आवश्यक है। इसके बिना बाकी सारे प्रयास छलनी मे पानी भरने के समान निष्प्रभावी हो जाते हैं।

व्यवस्था  परिवर्तन इसका स्थायी समाधान है।First past the post ’सर्वाधिक मत पानेवाला विजयी’ इस व्यवस्था के स्थान पर प्रत्यक्ष एवं पूर्ण लोकतंत्रकारी ECव्यवस्था ‘बहुसंख्य का समर्थन’ ‘Mojority representation’ की व्यवस्था को लागू करना होगा। इसके अंतर्गत किसी भी चुनाव में जीतने के लिए डाले गए कुल मतों में से 50 प्रतिशत से कम से कम एक मत अधिक पानेवाला व्यक्ति ही विजयी घोषित होगा। ऐसी स्थिति में समर्थन करने वाले मतदाताओं की संख्या नकारने वाले मतदाताओं से निश्चित ही अधिक होगी। तब चुना हुआ नेता सच्चे अर्थ में क्षेत्र का प्रतिनिधि होगा। इस व्यवस्था को लागू करने मे अनेक आक्षेप व कठिनाइयाँ गिनाई जाती है किन्तु राजनीति को राष्ट्रीय एकात्मता के लिए बाध्य करने के लिए यही चिरस्थायी उपाय है। विश्व के अनेक देशों में इसी व्यवस्था के अंतर्गत चुनाव होते है। भारत से भी भौगोलिक रुप से विस्तृत व आबादी में भी लगभग बराबरी के रशिया में भी सभी आम चुनाव इसी विधि से होते हैं। यदि किसी चुनाव क्षेत्र में प्रथम चरण के मतदान में किसी को भी 50% से अधिक मत नही प्राप्त होते हैं तो प्रथम व द्वितीय स्थान पर रहने वाले प्रत्याशियों के मध्य दूसरे दिन पुनः मतदान कराया जाता है। अपने आप किसी न किसी को 50% से अधिक मत मिलेंगे ही। प्रायः ऐसा देखा गया है दूसरे चरण के मतदान की आवश्यकता ही नही पड़ती। इस व्यवस्था में स्वाभाविक रुप से ही प्रत्येक दल ऐसे प्रत्याशी का चयन करता है जिसे समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों का समर्थन मिल सके। गुटीय हितों के स्थान पर सामूहिक हित चुनावी मुद्दे बन जाते हैं। क्षेत्रीयता, साम्प्रदायिकता, जातीयता आदि चुनाव जिताने के लिए सक्षम नही होते। अतः राष्ट्रीयता, एकात्मता, एकता, समरसता यह विषय अधिक प्रभावी होते हैं।

मन में यह प्रश्न आना स्वाभाविक है कि जब तक यह व्यवस्था परिवर्तन नही हो जाता तब तक राष्ट्रवाद का चुनावी राजनीति में कोई स्थान ही नहीं? वास्तव में बात बिल्कुल इसके विपरीत है जब तक संपूर्ण एवं प्रभावी लोकतंत्र के रुप मे बहुसंख्या का प्रतिनिधित्व यह नियम लागू नही होता तब तक राजनीति के द्वारा समाज के विभाजन को रोकने का एकमात्र उपाय है ’राष्ट्रवादी राजनीति’। जातीयता, साम्प्रदायिक तुष्टीकरण, वर्गवाद, धनबल तथा बाहुबल आदि लोकतंत्र के असाध्य विकारों को ठीक करने का एकमात्र उपाय है – ’चुनावी रणभूमी मे राष्ट्रवाद का शंखनाद’। राष्ट्र का हित, राष्ट्र की संस्कृती, राष्ट्रीय परंपरायें, राष्ट्रीय जीवनध्येय इन पर आधारित नीतियों को महत्व देनेवाले दल एवं नेता का जब समाज स्वयंस्फूर्त समर्थन करने लगेगा तब अन्य सभी संकुचित स्वार्थों पर आधारित विघटनकारी मुद्दे गौण हो जायेंगे। समाज में काम कर रहे प्रत्येक सामाजिक कार्यकर्ता का यह कर्तव्य बन जाता है कि ऐसे राष्ट्रवादी वातावरण का जागरण करें।

bharatmataलोकतंत्र के महत्वपूर्ण स्तंभ प्रसार माध्यमों का भी कर्तव्य बन जाता है कि विघटनकारी मुद्दों को महत्व देने के स्थान पर जोडनेवाले एकात्मता को बढावा देने वालें विषयों, नेताओं तथा दलों का अधिक प्रचार दें। धन के द्वारा क्रय की हुयी प्रसिद्धी के आधार पर समाज को तोडनेवाले नेताओं व दलों को सबक सिखाने का काम राष्ट्रकार्य के रुप में प्रसार माध्यमों को भी करना होगा। पेड न्यूज के द्वारा माध्यमों का धनबल के आगे समर्पण लोकतंत्र के विनाश का कारण बन रहा है। भारत एक निर्णायक दौर से गुजर रहा है। वैश्विक परिदृश्य में अवसर की जो एक छोटी सी खिडकी खुली है उसका यदि निर्णायक उपयोग करना है तो आज राष्ट्र को सुदृढ, सक्षम व निःस्वार्थ नेतृत्व की आवश्यकता है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ही ऐसे नेतृत्व को जन्म एवं पोषण दे सकता है। पश्चिम में राष्ट्रवाद की अवधारणा राजैनतिक व आर्थिक है। इस कारण से वह राष्ट्रों के मध्य प्रतिस्पर्धा को जन्म देती है। इस प्रतिस्पर्धा का रुपांतरण बाजारी शोषण, शस्त्र स्पर्धा व अंततः युद्धों में भी होता है। द्वितीय महायुद्ध में सारे विश्व पर युद्ध की विभीषिका थोपने वाल हिटलर ने भी जर्मन राष्ट्रवाद के नारे का ही तात्विक आधार लिया था। उसके बाद से अंतरराष्ट्रीय विमर्श में राष्ट्रवाद एक घृणित एवं निन्दनीय पद बन गया है। भारत में भी साम्यवादी व समाजवादी विचार को पोषित करनेवाले विचारकों ने इसी पश्चिमी दृष्टि से प्रभावित होकर राष्ट्रवाद की घोर आलोचना की है। इसे संकुचित, तानाशाही व फासिस्ट जैसे संबोधनों से पुकारा है। इस कारण सामान्य बुद्धिजीवी भी राष्ट्रवाद के प्रति सकारात्मक विचार नही रखते किन्तु भारत में राष्ट्रवाद की संकल्पना कतई आर्थिक अथवा राजनैतिक नहीं है। भारत में यह मूलतः आध्यात्मिक व व्यवहार में सांस्कृतिक विचार है। आर्थिक व राजनैति राष्ट्रवाद जहाँ भौगोलिक सीमाओं और बाजारी प्रतिस्पर्धाओं के कारण विभाजनकारी बन जाता है वहीं दूसरी ओर आध्यात्मिक, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद व्यक्ति से परिवार, समाज से आगे राष्ट्र तक मन के विस्तार का माध्यम होने के कारण एकात्मदृष्टि का विकास करता है। स्वाभाविक ही यह राष्ट्रवाद विस्तार की अगली सीढ़ी के रुप में मानवता को देखता हैं। अतः इस राष्ट्रवाद में राष्ट्रहित के साथ ही विश्वहित व उससे भी परे सृष्टि का हित भी निहित है। यह राष्ट्रवाद तोडता नही जोड़ता है।

जाति, पंथ, सम्प्रदाय, वर्ग, भाषा, क्षेत्र आदि के द्वारा विभिन्न वादों का निर्माण कर चल रहे समाज विघटन के तांडव को यदि रोकना है तो सभी को मिलकर एक ही उद्घोष करना होगा कि ‘राष्ट्र सर्वोपरि है’। मेरे व्यक्तिगत, पारिवारिक, क्षे़त्रीय, सामाजिक, पांथिक, साम्प्रदायिक अथवा प्रांतीय हितों से अधिक महत्वपूर्ण राष्ट्रहित हैं। इस विचार को अपने हर कार्य मे अभिव्यक्त करना होगा। चुनाव में आग्रह पूर्वक सहभागी होना, मतदाताओं का पंजीयन करना अधिक से अधिक लोगों को सकारात्मक मतदान के लिए प्रेरित करना, दलों व नेताओं को राष्ट्रहित के मुद्दों पर विचार एवं बात करने के लिए विवश करना यह हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। आइए! लोकतंत्र के महोत्सव में राष्ट्रवाद के उजास को प्रकाशित करने का संकल्प लें।

नवम्बर 29, 2013 Posted by | सामायिक टिपण्णी | , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , | 1 टिप्पणी

कैसे दूर हो संसद के प्रति समाज की अनास्था ?


संसद के ६० वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर विशेष सत्र का आयोजन कर उत्सव मनाया गया । पर क्या केवल उत्सव मनाना पर्याप्त है ? सैद्धांतिक रूप से जो सम्मान व महत्व संसद का है क्या वह गरिमा आज जनमानस में स्थापित है ? क्या देश की जनता संसद के हीरक महोत्सव के समारोह में मन से जुडी ? क्या उसे इसका कोई हर्ष हुआ ?

हमारे लोकतन्त्र की सबसे बडी पंचायत संसद के सत्रों को १३ मई २०१२ को ६० वर्ष पूरे हुए । संसद का महत्व इस कारण है क्योंकि स्वतन्त्र भारत के संविधान के अनुसार यह हमारी सर्वोच्च विधायिका है । देश में सुशासन के लिये समुचित कानून बनाने का कार्य संसद को करना है । जिस संविधान के द्वारा इसकी स्थापना हुई उसमें परिवर्तन का अधिकार भी संसद को ही है । सामूहिक निर्णय लोकतन्त्र में सुराज की आत्मा है । संसद चर्चा के द्वारा सामूहिक निर्णय का स्थान है । देश की नीतियों के निर्धारण का कार्य यद्यपि कार्यपालिका का है, किन्तु उनकी समीक्षा तथा दिशा निर्देशन का कार्य संसद में विभिन्न चर्चाओं के माध्यम से किया जाता है । भारतीय लोकतन्त्र में हमने जो व्यवस्था स्वीकार की है उसमें कार्यपालिका भी संसद का ही अंग होती है । मुख्य कार्यपालक प्रधानमंत्री का संसद सदस्य होना अनिवार्य है । यदि नियुक्ति के समय वह सांसद नहीं है तो ६ माह के भीतर सांसद बनना अनिवार्य है । इस प्रकार संसद भारतीय राजव्यवस्था में सर्वोच्च है । न्यायपालिका को संसद के निर्णय बदलने का अधिकार नहीं है । संसद द्वारा बनाये कानून यदि संविधान के विपरीत हो तब ही न्यायपालिका हस्तक्षेप कर सकती है । अन्यथा इन कानूनों के अनुसार ही निर्णय देने के लिये सर्वोच्च न्यायालय बाध्य है ।

संसद के वर्चस्व का आधार उसका निर्वाचित स्वरूप है । सैद्धांतिक रूप से लोकतन्त्र में जनता ही राजा है । जनता के प्रतिनिधि राज चलाते हैं । अत: जनता के प्रतिनिधियों को सर्वाधिक अधिकार प्राप्त हैं । जिसको संसद में बहुमत प्राप्त है वह भारतीय राजव्यवस्था में सर्वाधिकारी है । जनता के निर्वाचन द्वारा सांसदों को यह नैतिक अधिकार मिल जाता है कि वे देश के बारे में निर्णय करें । यह नैतिक अधिकार ही वास्तव में संसद को राजनीति की सबसे महत्वपूर्ण संस्था का दर्जा देता है । संसद के ६० वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर विशेष सत्र का आयोजन हुआ । स्मृतियों को संजोया गया । पूर्व सांसदों का स्मरण किया गया । प्रथम लोकसभा के दो जीवित सदस्यों श्री रिशांग किशिंग तथा श्री रेशमलाल जांगिड का सम्मान भी किया गया । कुल मिलाकर उत्सव मनाया गया । पर क्या केवल उत्सव मनाना पर्याप्त है ? सैद्धांतिक रूप से जो सम्मान व महत्व संसद का है क्या वह गरिमा आज जनमानस में स्थापित है ? क्या देश की जनता संसद के हीरक महोत्सव के समारोह में मन से जुडी ? क्या उसे इसका कोई हर्ष हुआ ?

वास्तव में स्वतन्त्र भारत के पडौस में जो देश हैं उसकी राजनीतिक दृष्टि से समीक्षा करें तो यह अपने आप में हमारे लिए बहुत बडी उपलब्धि है । भारत के साथ उसी से कटकर बने सभी पडौसी देशों में लोकतन्त्र का अस्तित्व ही खतरे में रहा है । पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यान्मार, श्रीलंका, नेपाल, मालदीव तथा अफगानिस्तान सभी देशों में राजनैतिक उथल-पुथल ही चल रही है । ऐसे में १९७५ से ७७ के आपात्काल के कुछ माह छोड दिये जाये तो भारत ने स्थिर लोकतन्त्र का परिचय दिया है । इतने विशाल, विविधता सम्पन्न राष्ट्र के लिये यह अपने आप में ही बहुत बडी उपलब्धि है । किन्तु आज कितने भारतीय इस विचार से ऐसी सकारात्मकता से जुड सकते हैं ? दोष उनका भी नहीं है । हमारी लगभग सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं में से समाज की आस्था उठ चुकी है । इसके चारित्रिक कारण है । संसद की गरिमा की रक्षा सांसद ही कर सकते हैं और पिछले कई वर्षों में राजनीतिक दलों के साथ ही सांसदों के चरित्र में भी गिरावट आई है । जो हमारी विशेषतायें थी वे ही बाधा बन गई । कार्यपालिका पर निर्वाचित संसद का अंकुश रहने के स्थान पर भ्रष्टाचार में भागीदारी के लिए कार्यपालिका का अंग बनने हेतु सांसद चुने जाने की परम्परा प्रारम्भ हो गई । सेवा के स्थान पर राजनीति व्यवसाय बन गई । इसी कारण संसद के ६० वर्ष पूर्ण होने पर सांसदों के अलावा किसी ने उत्सव नहीं मनाया । यह तो ऐसा हुआ कि स्वयं का जन्मदिन केवल स्वयं ही मनाये । केवल व्यक्तिगत चारित्र्य ही संसद की गिरती गरिमा के लिए कारणीभूत नहीं है, वरन् वास्तव में ऐसे व्यवस्थागत कारण भी है जिसके चलते चरित्रहीन व्यक्ति लोकतन्त्र के मंदिर का पुजारी बन सकता है । भारत में पंचों को परमेश्वर का प्रतिनिधि माना जाता है । यदि संसद को देश की सर्वोच्च पंचायत का यह दैवी सम्मान पुन: दिलाना है तो राजनैतिक दलों से सुयोग्य व्यक्ति को विधायिका में भेजने के साथ ही दो महत्वपूर्ण व्यवस्थागत सुधार भी अनिवार्य है ।

१.   निर्वाचन में सही अर्थों में बहुमत के प्रतिनिधि का चयन हो । वर्तमान चुनाव प्रणाली में मतदान के सर्वाधिक हिस्से का प्रतिनिधि निर्वाचित हो जाता है । विविधता के कारण दलों व प्रत्याशियों की संख्या बडी होती है । अत: ऐसा यदा कदा ही होता है कि निर्वाचित प्रतिनिधि को बहुमत ने चुना हो । अधिकतर सांसद १५ से २५ प्रतिशत मत पाकर सांसद बन जाते हैं । यह प्रतिशत भी उन मतों का है जो मतदान में सम्मिलित हुए । परंतु जो २५ से ४० प्रतिशत मतदाता अपने मताधिकार का आलस, व्यस्तता अथवा घोर अनास्था के कारण प्रयोग ही नहीं कर रहे, उनकी तो गणना ही नहीं है । इस प्रकार समाज के ८० प्रतिशत से अधिक लोगों द्वारा नकारे हुए प्रतिनिधि संसद में जनता का प्रतिनिधित्व करने का दंभ भरते हैं । इस नकारा पद्धति के कारण राजनीति का स्वरूप विभाजनकारी हो गया है । जाति, पंथ, भाषा अथवा जो भी मिल जाये उस आधार पर जनता को बाँटकर अपने लिये प्रभावी अल्पमत का समर्थन प्राप्त करना प्रत्येक दल व नेता का लक्ष्य बन गया है । इसी के चलते सांसदों की भी मंडी लगती है । अत: संसद के ६० वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर चुनाव में विजय के लिये ५० प्रतिशत से कम से कम एक मत अधिक का प्रावधान किया जाना चाहिये ।

२.   सांसदों में भ्रष्टाचार का दूसरा व्यवस्थागत कारण कार्यपालिका व विधायिका का घोलमेल है । मंत्री बनने के लिये सांसद होना अनिवार्य है । मंत्री के कार्यों पर नियन्त्रण व अंकुश रखने का काम भी संसद को करना है । इस दोहरे दायित्व के आपसी हितसम्बन्ध होने के कारण ही कार्यपालिका के भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के स्थान पर विधायिका उसकी भागीदार बनती दिखाई दे रही है । अत: कार्यपालिका के स्वतन्त्र स्वरूप को विकसित कर संसद केवल विधायिका के रूप में तथा कार्यपालिका की नीति के लिये मार्गदर्शक तथा समीक्षक की भूमिका में हो, यह आवश्यक है । वर्तमान स्थिति में इसका एक समाधान मुख्य कार्यपालक प्रधानमंत्री के प्रत्यक्ष चुनाव से हो सकेगा । यदि देश की पूरी जनता प्रधानमंत्री के चुनाव में मतदान करे तथा उसमें भी बहुमत से चयन का ही नियम हो तो, एक स्थिर कार्यपालिका के साथ ही तटस्थ विधायिका का निर्माण हो सकेगा ।

संसद के हीरक महोत्सव के अवसर पर हम वैचारिक मंथन के द्वारा देश में एक लोकतांत्रिक क्रांति का सुत्रपात करें जिससे कि विश्व का सबसे बडा लोकतन्त्र भारत और भी अधिक आदर्श एवं प्रभावशाली बनें ।

मई 16, 2012 Posted by | सामायिक टिपण्णी | , , , , , , , , , | 2 टिप्पणियां

गण संस्कृति यज्ञ संस्कृति


‘‘हम भारतवासी, पूरी गंभीरता से भारत को एक सार्वभौम, लोकतान्त्रिक गणराज्य के रुप में संगठित करने का संकल्प करते है।’’ भारत के संविधान की मूल प्रस्तावना की यह प्रारम्भिक पंक्तियाँ  हैं। 1975 में पूरे देश में आपात्काल थोपकर संविधान की हत्या करनेवाले 42 वे संविधान संशोधन में इसमें सार्वभौम के बाद पंथनिरपेक्ष तथा समाजवादी ये दो विशेषण और जोड़े गये। संविधान की मूल प्रकृति तथा प्रावधान में किसी भी प्रकार के संशोधन के बिना ही उसके उद्देश्य में दो अनावश्यक संकल्पनाओं की पूछ जोड़ दी गई। चुनावी मजबुरियों के नाम पर इन को पुनः संशोधित करने का साहस कोई भी राजनैतिक दल आजतक नही दिखा पा रहा है। आपात्काल के बाद स्थापित जनता सरकार ने 44 वें संविधान संशोधन से 42 वें संशोधन द्वारा जनता मौलिक अधिकारों को स्थगित करनेवाले सभी प्रावधानों को तो निरस्त कर पूर्ववत् कर दिया किन्तु प्रस्तावना में की गई छेड़छाड़ को वैसे ही रखा। इन विशेषणों के जुड़ने के कारण ही आज हम राजनैतिक दलों को तुष्टिकरण की नित नई सीमाओं को लांघते हुए देखते है। सहिष्णुता का दायरा सीमटता जा रहा है और कट्टरता बढ़ती ही जा रही है।

इन विषयों पर चिंतन करना इसलिये आवश्यक है क्योंकि इन बातों से गणतन्त्र की नीव पर ही आघात हो रहे है। गणराज्य का आधार हे गण। गण अर्थात एकमन से कार्य करने वाला समूह। प्रबन्धन के क्षेत्र में आजकल अत्यधिक प्रचलित अंगरेजी शब्द है टीम। इसकी परिभाषा की जाती है, ‘‘एक कार्य के लिये गठित, एकलक्ष्यगामी दल’’। यह तात्कालिक होता है कार्य की अवधि तक के लिये कार्य की पूर्णता का लक्ष्य लेकर यह कार्य करता है। ‘गण’ की संकल्पना अधिक गहरी है। अंगरेजी में उपयुक्त Republic शब्द से भी बहुत गहरी। गण एक पारम्पारिक पारिभाषिक शब्द है। इसके राजनीति शास्त्र के उपयोग से भी पूर्व इसका आध्यात्मिक प्रयोग है। हमारी परम्परा में पूजा का पहला अधिकार गणेश जी का हैं जो गणों के ईश, गणनायक हैं। केवल शिवजी के गणों का नायक होने के कारण ही वे गण पति नहीं है। मानव का मानव से सम्बन्ध स्थापित करने की वैज्ञानिक आध्यात्मिक प्रक्रिया ‘गण’ के वे अधिपति है। मै से हम की ओर जाने की प्रक्रिया है गण।  और इस प्रक्रिया के लिए लिए आवश्यक साधना के अधिपति गणपति|
भारतीय आध्यात्म विद्या में आगम व निगम की दोनों विधियो की मान्यता है। निगम विधि में जहाँ  स्वयं को नकारकर शुन्य बना दिया जाता है|  नेति नेति की विधि से अहंकार को शुन्य कर शिवत्व से एकत्व की प्रक्रिया बतायी गई है। वही आगम विधि में अपने क्षुद्र अहं को विस्तारित कर सर्वव्यापि करने की प्रक्रिया द्वारा विराट से एकाकार होने की प्रक्रिया भी आध्यात्मिक साधना है। इस विधि में अपने व्यक्तिगत मै को सामूहिक मै के साथ क्रमशः एकाकार करते हुए स्वयं के स्वत्वबोध का विकास किया जाता है। यही अखण्डमण्डल की साधना है जो चराचर में व्याप्त ईश्वर का साक्षत्कार करवाती है। यह गण साधना है। मै को समूह में विसर्जित करने की साधना। गण के अंग का कोई व्यक्तिगत अस्तीत्व ही नहीं रह जाता है वह अपने गण परिचय से एकाकार हो बड़ी इकाई के रक्षार्थ अपने आप को समर्पित कर देता है।

‘गण’ गठन की प्रक्रिया व्यक्ति की साधना के साथ ही समूह की भी साधना है। भारत में सामूहिक साधना का ही विशेष महत्व रहा है। हमारे सारे वेद मन्त्र बहुवचन में प्रार्थना करते है। अहं का नहीं वयं का प्रयोग किया जाता है। मन, वचन, कर्म में सामूहिकता की प्रार्थना बार बार की गई है। हम एक मन से एक संकल्प के साथ एक दिशा में अग्रेसर होते हुये साथसाथ उत्कर्ष व कल्याण को प्राप्त करें। यह हिन्दूओं की सनातन वैश्विक प्रार्थना है। इस बात को हमने केवल दर्शन के सिद्धान्तों तक ही सीमित नहीं रखा अपितु कर्म, अथवा आचार की परम्परा में ढ़ालकर उसे जीवन का नियमित अंग बना दिया। यह भारतीय जीवन दर्शन की विशेषता है। प्रत्येक तत्व का कर्मकाण्ड के रुप में सघनीकृत संस्थापन (Concrete  Institutionalization ) किया गया। यही अनेक आक्रमणों के बाद भी हमारे जीवित रहने का महत्वपूर्ण रहस्य है। जीवन के प्रत्येक अंग में इस ‘गण’ संकल्पना को साकार किया गया। परिवार, वर्ण, ग्राम, नगर, जनपद तथा राष्ट्र इन सभी स्तरोंपर गणों के गठन की विधि को हमने सदियों से विकसित किया है। धार्मिक, औपासनिक परम्पराओं के साथ ही सामाजिक, आर्थिक व राजनयिक व्यवस्थाओं में गणों का विकास हिन्दूओं ने प्राचीनतम काल से किया है।

यह देश का दुभाग्य ही है कि स्वतन्त्रता के बाद हमारे इन प्रचण्ड ऐतिहासिक अनुभूतियों को पूर्णतः दुर्लक्षित कर हमने विदेशी विचारों पर आधरित व्यवस्था को अपनाया। इतना ही नहीं सेक्यूलर के नाम पर अपनी सभी प्राचीन परम्पराओं को प्रभावी रुप से नकारने का काम किया। परिणामतः परिभाषा में गणराज्य होते हुए भी सामूहिक चेतना के विकास के स्थान पर हमने विखण्डित गुटों की राजनैतिक चेतना का विकास किया। पंथ, प्रांत, भाषा तथा जाति जैसी सामूहिक चेतना व्यक्ति के विस्तार का माध्यम बनने के स्थान पर हमारी प्रचलित राजनैतिक व्यवस्था में यह सभी परिचय विघटन का कारण बनते जा रहे है। समाज में धार्मिक स्तर पर आज भी जीवित ‘गण’ संकल्पना को ठीक से समझकर उसे व्यवस्थागत रुप प्रदान करना वर्तमान भारत की सबसे बड़ी चुनोति है।

गण के गठन के शास्त्र को हम समझने का प्रयत्न करते है तो हम पाते है कि इसका भावात्मक आधार ‘त्याग’ में है। त्याग से ही व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज व समाज से राष्ट्र के स्तर पर स्वत्वबोध का विस्तार सम्भव है। त्याग का संस्थागत स्वरुप हे यज्ञ। यज्ञ के द्वारा हम सहजता से त्याग को परम्परा के रुप में ढ़ाल पाये है। आज भी हमारे घरों में गाय के लिये गोग्रास, तुलसी को पानी देने जैसी परम्पराओं का प्रयत्नपूर्वक पालन किया जाता है। अतिथि भोजन जैसे भूतयज्ञ द्वारा समाज को आपस में बांध रखा था। अतः यज्ञ को समझने से ही गण के गठन का कार्य किया जा सकता है।

गीता में भगवान कृष्ण कहते है कि यज्ञ के द्वारा ही प्रजा का सृजन कर प्रजापति ने लोगों को कहा कि यह यज्ञ ही आपकी कामधेनु है जिसके द्वारा आप अपनी सभी ईच्छाओं की पूर्ति कर सकते हो। सहयज्ञाः प्रजा सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वम् एष्वोSस्विष्टकामधुक्।।गी 3.10।। अगले दो श्लोंकों में यज्ञ के द्वारा त्याग से कैसे परस्पर सामंजस्य बनाकर समुत्कर्ष की प्राप्ति हो सकती है इसका वर्णन है। देवान्भवयतानेन ते देवा भवयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्सथ।। गी 3.11।। यह भी कहा है कि बिना यज्ञ में हवि दिये अर्थात समाज, सृष्टि में अपने योगदान की श्रद्धापूर्वक आहुति दिये बिना जो भोग करता है वह तो चोर है। इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभावितः। तैर्दत्तान प्रदायेभ्यो यो भुन्क्ते स्तेन एव सः।। गी 3.12।। आजके समस्त भ्रष्टाचारी इसी श्रेणी में आते है। यह श्लोक तो इन पापियों के लिये और भी कठोर शब्दावली का प्रयोग करता है। यज्ञ के प्रसाद के रुप में भोग करनेवाले लोग सर्व पापों से मुक्त हो जाते है वहीँ जो केवल अपने स्वार्थ के लिये ही भोग करते है वे तो पाप को ही खा रहे होते है।

यज्ञ अपने निर्माण में सबके योगदान को अधोरेखित कर अपने कर्म में उसके प्रति कृतज्ञता का व्यवहार लाने का संस्कार देता है। अतः यज्ञ के द्वारा ही गण का गठन सम्भव है। आज हमें पुनः यज्ञ संस्कारों के जागरण के द्वारा गण संस्कृति की पुनस्थार्पना करने की आवश्यकता है। इसीसे वास्तव में हमारे संविधान का ध्येय गणतन्त्र साकार हो सकेगा। संविधान में मौलिक अधिकारों के साथ मौलिक कर्तव्यों की भी बात की है| भारतीय संस्कृति में सदा कर्त्तव्य को ही महत्त्व दिया गया है| अधिकार को उसके अप्रिनाम के रूप में ही देखा गया| यज्ञ का व्यवहारिक रूप कर्त्तव्य में ही प्रगट होता है| स्वाहः का मंत्र अपने कर्तव्यों की आहुति का परिचायक है| किन्तु भारतीय संस्कृति के स्थान पर विदेशी राज के प्रभाव में बने होने के कारण हमारे संविधान में मौलिक अधिकार तो न्यायलय में कार्यान्वित किये गए है किन्तु मौलिक कर्तव्यों का स्वरुप मात्र सुझावात्मक रखा गया है| इनकी अवहेलना को किसी न्यायलय में चुनौती नहीं दी जा सकती| यह हमारी विडम्बना है|

गण संकल्पना पर आधारित व्यवस्थाओ के निर्माण के लिये यज्ञ को और अधिक विस्तार से समझने की आवश्यकता है। इस गणतन्त्र दिवस के अवसर पर हम गणत्व को जीवन में उतारने के लिये यज्ञ को समझाने व जीवन में उतारने का संकल्प ग्रहण करें।

जनवरी 26, 2012 Posted by | योग, सामायिक टिपण्णी | , , , , , , , , , , , , , | 4 टिप्पणियां

Constitutional Introspection on Republic Day


”We, the people of India that is Bharat, having solemnly resolved to constitute India into a sovereign, democratic republic. …” the preamble of Indian Constitution began like this on 26th of Nov 1949 when the draft was finalized and enacted and then adopted on the 26th January 1950 which we all celebrate every year as Republic Day. It has undergone 115 amendments in last 62 years. But otherwise it has stood the test of time by surviving in the unique challenges posed by the largest and certainly most complex democracies of the world today. The most controversial of these amendments was the 42nd amendment which ushered in the darkest periods of our recent history called, Emergency. The other sibling of the midnight delivery had seen much more turbulence and a large measure of Marshall Law. The notorious neighbour has spent more years in autocracy than in democracy in its fragile existence. 2 years of emergency is the Indian experience of the political autocracy. This very amendment which suspended all the fundamental rights guaranteed by the constitution also altered the basic nature of the constitution by strangely amending its preamble to add two more adjectives, namely socialist and secular.


India after 25 years of its constitution as a republic was now a sovereign, Socialist, Secular, Democratic Republic. Nothing was changed in the main body of the constitution to match these adjectives. The other portions of the 42nd amendments were to give the autocratic power to the executive by suspending the fundamental rights of the citizens. This act in itself was neither socialist nor secular. Thus logically the amendment accepted that the constitution in its originality was secular and socialist enough that it did not need any modification to suit the additions in preamble. The funniest part of this exercise is that after the end of Indira Rule and Janta Party coming in power the emergency provisions were removed from the constitution by the 44th amendment but the additions to the preamble were left untouched. Thus endorsing the enhanced emphasis on the socialist and secular nature of the constitution.

Though there are no changes in the original provisions, in practice secularism is being unnecessarily pronounced in all the governmental actions. The political parties for their petty electoral benefit tend to appeasement of so called minorities in the name of secularism. Secularism is used to denigrate everything traditional and Hindu in origin. The famous instance of the controversy over Saraswati Puja in the convention of education ministers during the NDA rule started by the objection raised by a few politicians. The issue was raised under the garb of secularism. Media gave great publicity to the issue. No one bothered to check the constitutionality of the claim. Recently the issue of Ayud Puja and Sarasavati Puja was raised before the Madras high court in a PIL. The high court has rejected the contention that performing Puja in the offices is against the secular nature of the government. “Showing respect to the place of work and the objects of work will in no way offend the feelings of others or affect secularism. Ayudha Puja is referable to prayer, reverence or respect given to objects through which an individual performs his profession or occupation. Ayudha Puja in its real terms transcends all religion,” a division bench of Justice R Sudhakar and Justice Aruna Jagadeesan has said. This should make the constitutional position clear on the issue. The practice of the media and intellectuals is very pathetic on this issue as it was well demonstrated by the Jaipur Lit fare issue. Even though on his very channel every representative of Islam from Lakhnau to Hyderabad was vociferously demanding that Sulman Rushdie should not be allowed to come to India, the star anchor Arnab Goswami kept on saying fringe elements of the Muslim society are opposed. This is the way the faulty concept of secularism corroborated by another unfounded concept of minority has developed into a divisive element in the constitutional discourse.

Socialism is very hard to define. But it can be said without slightest of doubt that the Indian state in last two decades has abandoned socialism as an economic policy. From 1991 we claim to have tried to follow the liberal free market economics. But according to the constitution India is still a Socialist Republic.

On the occasion of the 63rd Republic day we must introspect on the functioning of our constitution in the present scenario. We need not go far for the parameters on which to do the self evaluation. The preamble of the constitution puts forth the goals to be achieved by the independent Indian Republic. It proclaims ”…. and to secure to all its citizens: JUSTICE, social, economic and political; LIBERTY of thought, expression, belief, faith and worship; EQUALITY of status and of opportunity; and to promote among them all FRATERNITY assuring the dignity of the individual and the unity and integrity of the Nation;”

After 6 decades it definitely is a time to evaluate the performance of constitutional framework in light of the goals it had set before itself. Justice, Liberty, Equality and Fraternity are the lofty ideas we had kept before us to put them in practice by implementing the provisions of the Constitution. It demands a detailed study of all the parameters and an objective comparison with the bottom-line from where we started. We would definitely try to do some such attempts in the coming months with the available data from the open sources. But even without the benefit of such detailed statistical study one can say without any fear of serious opposition from any quarter of the civil society or even the government, that we have not been successful to ensure any of these lofty ideals to all our citizens. In fact we will hardly find any section of the society satisfied enough to concede that all these constitutional promises have been fulfilled.

This total despondency should not be taken lightly. A large number of citizens are totally dissatisfied. Many of them have given up hope of any change. Some have taken extreme measures falling pray to the devious design of the antinational forces in their desperation. The spreading Red terror and other separatist movements in many parts of the country are the result of this desperation and hopelessness. The more civil of the disappointed citizenry have also taken up to the democratic form of protests. The number of protests and the response they yielded last year is an eye-opener for the patriots in the country. It is not a good sign that the educated, well off middle class urban population has lost faith in the political and constitutional mechanism for change in the system and in this cynical desperation are ready to come to the streets and demonstrate their anger and cry for reform. This depicts the total failure of governance. The loss of faith of the population in the government’s conflict redressal mechanism is the most dangerous bane of Democracy.

In this background it is urgent that we take stock of things as they stand. We must be ready to face that we need basic change of approach. The system based on the colonial experience has worked fine for these 6 decades. But the whole paradigm within the country and at the Global level has changed. In 1950 we were a nation trying to rebuild on the ruins of the colonial Raj. The economic situation was pathetic. The confidence level of the masses individually and collectively was not very high. It was time for survival and reconstruction. But today the Global leaders are falling on the economic front. India is being seen as an upcoming power at economic and geopolitical level by the whole world. The most discouraging analysts put us as a regional power and more optimistic claim that India has a Global role to play. More importantly the youth has a confidence that they can achieve anything in India. Whatever is possible in any other part of the world is achievable by us. We have shown it practically in the fields of science and technology, communications, finances, space technology and many more. The national belief in its capacity is not reflected in the state machinery. The government does not exude this confidence shown by the society. The policies framed by the government still smack of the stink of olden days of begging and struggle for survival. This psychological dichotomy between the state and the nation is the cause of all the cynical despondency. The state has to come up to the level and expectations of the awakened India.

This strange mixture of strength and vulnerability is the reality of Indian Republic on the eve of its 63rd Republic day celebration. We need to have a fresh constitutional structure to meet this unique situation in the Indian History. This is a very important window of opportunity for the great and the most ancient nation of the whole world. This is the moment when the destiny of not only 1/6th of the world’s population but the whole world will be decided. We need gear ourselves up for the occasion. The first important step can be constitutional review. In fact it should be afresh constitutional drafting exercise. This time we must take the vast and deep Historical and philosophical experience of Bharat in to account. The constitution must be indigenous. Based in the cultural ethos of the people of Bharat.

We, the people of Bharat must come together to give unto ourselves a real Bharatiya Constitution. Let this be our resolve this Republic Day.

जनवरी 25, 2012 Posted by | सामायिक टिपण्णी, English Posts | , , , , , , , , , | टिप्पणी करे

लूला लोकतंत्र : जरुरी है सर्जरी


वर्ष २०११ में हुए आंदोलनों में जनता की प्रचंड ताकत देखने में आई |
किसी भी नीति के निर्धारण में जनता की सोच लोकतान्त्रिक ढांचे में एक महत्वपूर्ण कारक होती है| इसलिए नीतियाँ बनाने वालो की तरफ से हमेशा से ही जनमत या जनता की “सोच”  को ढालने का संगठित प्रयास होता रहता है | मिडिया के बड़े प्रभाव क्षेत्र से लोगो की सोच को प्रभावित करना अब एक विशेष कार्य बन चुका है | प्रिंट मिडिया का अपना एक वर्ग है, और वह उन्हें प्रभावित भी करती है | इलेक्ट्रोनिक मिडिया और सोशल मिडिया में हुयी बढोत्तरी से लोगो को अपनी राय व्यक्त करने के और भी मार्ग मिल गए हैं | पहले दो पर तो सरकार  का प्रभाव   हो सकता है, चूँकि उसके पास इन्हें देने के लिए  भारी भरकम मात्र में धन होता है जो वह अपने विज्ञापनों पर खर्च करती है विज्ञापनों के लिए| लेकिन पूरी दुनिया में सोशल मिडिया पर किसी भी सरकार का प्रभाव जमाना मुश्किल है|
लेकिन अब इस अभूतपूर्व चुनौती  से निपटने के लिए भी कुछ  व्यावसायिक रूप से लोगो की सोच प्रभावित करने वाले  “प्रोफेशनल” लोग काम पर लगाये जा चुके है | विकसित देशो में तो पिछले एक दशक से और अपने यहाँ कोई दो सालो से ही इस तरह के कला और विज्ञान ने प्रगति की है | वर्तमान सरकार तो इसमें बहुत ही निपुण है और इस काम में उसने इस क्षेत्र के सबसे अनुभवी लोगो को लगा रखा है | कुछ अखबारों की रिपोर्टिंग के अनुसार तो सत्ताधारी पार्टी के युवराज को “कौन से कपडे पहनने है” , “किस तरह बोला जाय ” यहाँ तक की कैमरे के सामने भीड़ में “किसी छोटे बच्चे को कैसे अपनी गोद में उठाना है ” यह तक सलाह देने के लिए प्रोफेशनल रखे गए है | कुछ अखबारों की माने तो पिछले दिनों चेहरे पर जो चमक दिखी वह भी प्रधानमंत्री के खास प्रोफेशनल सलाहकारों की सलाह का परिणाम थी | व्यावसायिक रूप से ऐसा करने वालो की करतूत का एक चिंताजनक उदहारण है अन्ना का मुम्बई अनशन |
इसके पूर्व आई. ए. सी. (बिना किसी प्रोफेशनल के ) लोगो में यह सोच बनाने में सफल रही थी की “जनलोकपाल” ही सरकार से सम्बंधित सारी समस्याओं की चाबी है | और केंद्र की सरकार ने बड़ी चालाकी से इसे संभाला …. उसने ऐसा माहोल बनाया  की भ्रष्टाचार के खिलाफ एक कानून “लोकपाल “बनाकर लाये है भले ही जनलोकपाल की कॉपी ही न हो , पर एक कदम तो बढाया! इस से लोगो के मन में एक भ्रम उत्पन्न हो गया की सरकार कुछ कर रही है और अन्ना सिर्फ अपने अहंकार की तुष्टि के लिए ही अनशन कर रहे है | टीम अन्ना ने अपनी राजनैतिक असमर्थता सिद्ध की| भारतीय जनता की मूल प्रवृत्ति है की वो कानूनी कार्यवाही  में अधिक विश्वास  करती है | अगर उन्हें थोड़ी बहुत आशा भी दिखती हो तो लोग सरकार में विश्वास बनाये रखते है | पूर्व में अप्रैल और जून में युपिए की सरकार लोगो को यह मौका देने में चूक गयी | ४ जून  को लोगो के शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर हुए वीभत्स सरकारी हमले (जिसमे महिलाये औ बच्चे भी शामिल थे ) से लोग भड़क गए और लोगो ने स्वयं को अकेला महसूस किया और इसीलिए फिर आन्दोलन को इतना भारी जनसमर्थन मिला |लेकिन सरकार इस बार लोगो में यह सोच बनाने में सफल रही की वे कुछ कर रहे है विपक्ष और टीएमसी जैसी पार्टिया केंद्र सरकार पर कड़े कानून के लिए दवाब बनाये हुए है ऐसे में अलग से कुछ करने की आवश्यकता नहीं रह जाती है ….भारत में सब कैसे होता है यह उस का सटीक उदहारण है |
इसी प्रकरण में एक जो अजीब चीज और देखने में आई वो है उनका कहना है की सारी गड़बड़ी की वजह शासन तंत्र ही है न की कोई शासन करने वाले लोग| जिस प्रकार लोकतान्त्रिक व्यबस्था भारत ने अपनाई हुयी है वास्तव में वाही सारी समस्याओ का मूल है यहाँ तक की टीम अन्ना ने तो सांसदों द्वारा उनकी पार्टी अनुशासन में बंधे रहने तक की आलोचना की | उन्होंने संसद से (व्हिप) “सचेतक”   के प्रावधान को हटाने की मांग की ताकि एक संसद अपनी मर्जी से अपनी सोच से वोट दे सके | दोगलेपन की हद हो गयी | एक तरफ तो आप लोगो के “राईट टू रिकाल ”  की बात कर रहे है , दूसरी तरफ सांसद अपनी ही पार्टी अनुशासन को न माने यह चाहते है | सचेतक का जो वैधानिक प्रावधान है वह  १९८० के समय हुयी सांसदों की खरीद फरोख्त के बाद बने “दल बदल विरोधी कानून” के बाद से और मजबूत हुआ है| एक सांसद अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह के आधार पर चुनाव जीतता है न की उसकी व्यक्तिगत जीत होती है | चुनावों में जनता के मध्य पार्टी की कार्य योजना रखी जाती है जिस पर लोग उन्हें वोट देंगे ऐसी उम्मीद की जाती है | अब कहना की पार्टी के घोषणा पत्र में बंधने की अपेक्षा एक सांसद किसी नैतिक स्थान के लिए व्यक्तिगत रूप से अधिक उपयुर्क्त होगा यह तो संसद में भ्रष्टाचार की बाढ़ ला देगी |
वास्तव में गठबंधन की  वर्तमान विडंबना ही हमारे इस त्रुटी पूर्ण  लोकतंत्र में एक भरी नौटंकी जैसे है| चुनावों में जो पार्टिया एक दुसरे के खिलाफ लडती है , वही जीतने के बाद मिलकर सरकार बनाती है, एक तरफ जहा केंद्र के स्तर पर सी.बी.आई. का डर दिखाकर या राहत का लालच देकर जिन पार्टियों से गठबंधन बनाया जाता है , राज्यों में वही एक दुसरे के कटुता पूर्ण अभियानों का निशाना बनती है |
लेकिन क्या हम इस सब के लिए लोकतंत्र को जिम्म्मेदार ठहरा सकते है ? लोकतंत्र ही मूल समस्या है ऐसा अभिमत बनाना एक वस्तुनिष्ठ समीक्षा के लिए ठीक नहीं बैठता | कोई और विकल्प ही स्वाभाविक रूप से शोषण और भ्रष्टाचार से निजत का उपाय हो सकता है |
१९७७ में जय प्रकाश नारायण की समग्र क्रांति और उसके बाद १९८६ के अयोध्या आन्दोलन में जो देखा, लोकतंत्र में राष्ट्रीय स्तर पर लोगो में हिम्मत जगाने की क्षमता है, और वही गैर राजनितिक रूप से पिछले वर्ष हुआ| निश्चित ही हम यह निष्कर्ष निकाल सकते है की लोकतंत्र के वर्तमान स्वरुप ने कुछ यथाक्रम में गलतियां की है जो हमारी आज की शासन व्यवस्था के ढहने के लिए जिम्मेदार है | पर सिर्फ लोकतंत्र को ही अपने आप ने जिम्मेदार मानकार नकारना समय के साथ उचित नहीं होगा | हमें खेल को खेल के नियमो का पालन करते हुए जीतना  होगा | इसमें कोई संदेह नहीं की बदलाव होना चाहिए | पर हमें सुधार इसी तंत्र में से इसी की अनुरूप उभार कर लाने होंगे न की एकदम अलग से कोई कदम उठाया जाय |
सैधांतिक रूप से देखा जाय तो लोकतंत्र के दो रूपों का चलन है .. पहला है  १- प्रत्यक्ष लोकतंत्र :  ऐसा माना जाता है की यूनान में एथेंस जैसे कुछ नगरो में और उत्तर भारत के कुछ गणों में सिकंदर के आक्रमण के समय यह लागू था, इसमें जनता प्रत्यक्ष रूप से शासन विधि में भाग लेती है और विधान परिषद् की कार्यकारिणी का और कही कही तो न्यायपालिका का भी चुनाव  करती है |
दूसरी है २. प्रतिनिधि आधारित लोकतंत्र :– यह वेस्टमिन्स्टर  नमूना है जो हमने अंगेजी हुकूमत की वसीयत रूप में अपनाया है| इसमें जनता द्वारा अपने प्रतिनिधि निर्वाचित किये  जाते है जो आगे कार्यपालिका का चुनाव करते है तथा अधिकांशतः न्यायपालिका को नियुक्त किया जाता है नाकि निर्वाचित किया जाता है | दोनों ही प्रकारों के तंत्र के अपने अपने गुण-दोष है | अमेरिका ने दोनों के संकर रूप को अपनाया हुआ है , इसमें राज्यों में तथा राष्ट्रीय स्तर पर भी कार्यपालिका का प्रत्यक्ष निर्वाचन होता है |जहाँ एक और विधान परिषद् के लिए प्रतिनिधि सभा होती है वही दूसरी ओर वह कार्यपालिका के नियामक प्राधिकरण के तौर पर भी  कार्य करती है | ऐसा प्रतीत होता है की अमेरिका के अधिकांश राज्यों में न्यायपालिका भी निर्वाचित होती है |
पर लगता है हमने अपने यहाँ भारत में लोकतान्त्रिक नियमो की बुरी गति कर रखी है , जिसमे बहुमत का नियम सबसे पहले है |दोनों ही प्रकार के तंत्र में  बहुमत द्वारा ही नीतिया तय होती है | निर्वाचन में यह निश्चित होना चाहिए की विजयी प्रत्याशी  को  में डाले गए मतों में से कम से कम ५०% से १ अधिक मत प्राप्त हो |जबकि यहाँ भारत में  लोकतंत्र के दिखावटी मुखिया, राष्ट्रपति का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से होता है| और सबसे खतरनाक प्रावधान यह है की कार्यकारिणी का मुखिया, प्रधानमंत्री का निर्वाचन भी प्रत्यक्ष रूप से करना अनिवार्य नहीं होता है | वर्तमान प्रधानमंत्री भी राज्यसभा सदस्य है जहाँ जनता के मत का प्रत्यक्ष उपयोग नहीं होता है|  लेकिन एक प्रधानमंत्री के रूप में बने रहने के लिए  लोकसभा के सदस्यों का बहुमत उसके पास होना चाहिए , जिसमे १ +५०% का नियम अनिवार्य है | लेकिन हमारे सांसद  जिस प्रक्रिया से निर्वाचित होते है उसमे यह आवश्यक नहीं होता है की उन्हें बहुमत में वोट प्राप्त हुए हो और इसीलिए हमारे सांसद डाले गए वोटो में से ७% भी अपने पक्ष में पाकर चयनित  हो जाते है | मुश्किल से ही कोई सांसद हो जो यह दावा कर सके की उसे अपने निर्वाचन क्षेत्र से ५०% से भी अधिक वोट प्राप्त हुए हो |और इस प्रकार यह हमारेलोकतंत्र का क्रमश ढहना है | हमारे पास यहाँ तक की संवैधानिक प्रावधानों में भी वास्तविक लोकतंत्र है ही नहीं  | यह तो केवल एक झलक मात्र है | इसी से समाज में अभिजात शासन वर्ग और जाती, क्षेत्र, भाषा  और धर्मं की गन्दी ,भेद और फूट की राजनीती पनपती है | किसी भी  राजनेता के पास जीतने का यही मंत्र है की औरो को इतने टुकडो में बाँट दो की अपना हिस्सा सबसे बड़ा हो जाये | यह अनुवांशिक तौर पर व्याप्त हो चुका है|
जब तक हमारी लोकतान्त्रिक ढांचे की आधारभूत कमी दूर नहीं होती तब तक हम किसी सुधार की आशा नहीं कर सकते |
दो जरुरी आधारभूत सुधार मांगो को रखने की आवश्यकता है |
१. वर्त्तमान पटकथा के हिसाब से पहले  तो कार्यकारिणी के मुखिया, प्रधानमन्त्री का प्रत्यक्ष/सीधा  निर्वाचन हो | इसके लिए संवैधानिक संशोधन लाने होगा की गठबंधन  दौर की इस राजनीती में होना मुश्किल है, जहाँ एक छोटी क्षेत्रीय पार्टी को भी असंगत महत्व और मूल्य प्राप्त है | लेकिन हम शुरुआत  के तौर पर इस मांग का मुद्दा तो उठा ही सकते है | या दूसरा विकल्प यह हो की पहले कदम के रूप में  राष्ट्रपति शासन वाली सरकार जिसमे राष्ट्रपति का सीधा निर्वाचन हो , हो सकता है |
२. दूसरा यह की पंचायत से लेकर राष्ट्रपति तक के चुनाव में जीतने की शर्त , डाले गए कुल मतों में १+५० % मत प्राप्त करना अनिवार्य हो | यह अपेक्षाकृत आसान भी है | केवल “जनप्रतिनिधि अधिनियम” से संशोधन करने से यह हो जायेगा और साधारण बहुमत से इसे पारित भी किया जा सकता है | इससे दो सबसे बड़ी पार्टियों को सीधा लाभ मिलने की सम्भावना है, इसलिए यह सर्वसम्मति से हो भी सकेगा| यह नैतिक और तार्किक दोनों रूप से ही वजनदार तर्क है और कोई इसे नकार भी नहीं सकता | जिसे उसके निर्वाचन क्षेत्र की बहुमत जनता ने नकार दिया हो उसे जनता का प्रतिनिधित्व करने का कोई अधिकार नहीं है |
लेकिन यह कोई जादू की छड़ी भी नहीं है की सारी गड़बड़ियां  ही दूर हो जाएँगी | अंततोगत्वा हमें दो शताब्दी पूर्व के एतिहासिक अनुभवों के परे जनि की आवश्यकता है | वर्त्तमान व्यवस्था  ब्रिटिश शासन के परिणाम स्वरुप सामने आई है, इसकी जड़े वही उपनिवेशिक काल में जमी हुयी हैं| इसलिए अंतिम उपचार के लिए हमें मूल कारण तक जाना होगा और जिसके लिए हमें अपने राष्ट्र के इतिहास की और भी गहराइयो में जाना होगा |
हमारा ५००० वर्षो से भी अधिक का ज्ञात इतिहास है जिसमे प्रत्येक दूसरी शताब्दी में हमारा स्वर्णिम काल रहा है | और हमने आर्थिक सम्पन्नता, शिक्षा, विज्ञान और तकनीक, और सबसे महत्वपूर्ण शांतिपूर्ण सामाजिक-राजनैतिक तंत्र स्थापना में विश्व की अगुवाई की है | शासन तंत्र के विभिन्न प्रकारों  का हमने प्रयोग किया है|  हम भारत के विभिन्न भागो के उस विविध राजनीती तंत्र को पुनः नहीं ला सकते जो पहले हुआ करता था | हिन्दुओ का सदैव ही सामान सिद्धांत के विविध प्रगटीकरण में विश्वास रहा है और हमने राजनीती में भी इसे लागू किया था |चक्रवर्ती अपने जीते हुए राज्यों में उनके स्वयं के  लागू किये हुए शासन -व्यवस्था का सम्मान किया करते थे | इसी श्रंखला में हमारे यहाँ एक और जहाँ विविधताओं से पूर्ण राजनैतिक तंत्र वाले गणराज्य थे वाही दूसरी और मगध साम्राज्य जैसे जटिल ढांचे के  विविध रूप थे |  कुछ  व्यवस्थाये तो ऐसी थी जहाँ केवल एक महिला का ही शासन रहा | लेकिन इन सभी  का आधारभूत  सिद्धांत “धर्मं” था, उन सभी को एक सूत्र में बांधने वाला | आज वास्तव में जिस चीज की कमी है वाह है धार्मिक तंत्र |
आजके इस सामने आये तंत्र को स्वीकार्य कर हमें इसमें धार्मिक सिद्धांतो को लागू करना होगा | किसी ‘विदेशी’ को पचाने का यह हिन्दू तरीका है |  आज हमें वर्तमान समाज के अनुरूप  सनातन धर्म की व्याख्या और युगधर्म की आचार-संहिता तैयार करने के लिए एक नयी स्वच्छ स्मृति की आवश्यकता है | संविधान का यह हमारा स्वदेशी विचार है |
हमारी संसद-भवन  के  नक़्शे के पीछे की प्रेरणा मध्यप्रदेश के मितावली स्थित  चौसठ  योगिनी मंदिर का नक्शा है | वैसे ही हमारे लोकतंत्र को भी हमें अपने राष्ट्रधर्म के सिद्धांतो ठोस आधार पर आधारित करना होगा | वर्तमान लूली व्यवस्था की सम्पूर्ण शल्य-चिकित्सा बहुत जरुरी है न की केवल उपरी दिखावटी लीपापोती मात्र|

जनवरी 22, 2012 Posted by | सामायिक टिपण्णी | , , , , , , , , , , | टिप्पणी करे

Fractured Democracy : Demands Surgery


People’s power was amply exhibited in different protests in the year 2011. In a democratic setup public opinion is very important factor in policy making. Hence there is always a concerted effort on the part of the establishment to mange the public perception. With the explosion of media of mass communication this task has become more and more specialized. Print media has its own influence in the class of people in the polpulation but the spread of electronic channels and then the sudden explosion of social media has given the masses multiple avenues to express there opinion. The first two are influenced by the government by spending enormous amounts on advertisements. But the internet being an open forum without much financial involvement it is very difficult for the governments all over the world to effectively control this.

Professional perception managers are employed to meet this unprecedented challenge. The art and science has been developing gin the developed countries for more than decade now but we are experimenting with this in last couple of years. This government is learnt to have used most expensive professionals available in the field. It was reported in some news papers that these agencies have been advising the prince of the ruling party on matters like how to dress? How to speak? How to pick up a child at appropriate moment to be photographed etc. Same report claimed that the couple of day’s growth seen on the face is also a planned move suggested by PMs –Perception managers. On a more serious stage an example of effective perception management was the Mumbai fast of Anna. It was reversal of perceptions that worked against India Against Corruption. Earlier IAC had successfully created a perception (without any professional help) that Janalokpal is the key to all the problems related to Governance. The central government very cleverly managed to put forth that they have come up with Lokpal. May not be copycat of JLP but nevertheless a Lokpal is here. This created an overwhelming impression in the public mind that Mumbai fast is just an ego boosting exercise. Hence we did not see the response as before. It was naive on the part of team Anna to think that they are in an honest fight. They proved to be politically immature to match the choreography of the political managers of the government. Basically Bharatiya Public wants to believe in the Rule of law. They tend to follow the government even if little less than perfect. Agitation is only an extreme measure. The UPA had failed to give this room for an alternative earlier in April and August. After the 4th June crack down on the peaceful gathering of fasting protestors including women and children in the Ramlila grounds created an out rage. Public felt cornered hence the agitations got mass support. This time around the government was successful in creating a perception that the effort is on and there are parties like TMC apart from the opposition who are grinding the Govt for strong Lokpal, hence no need for extracurricular measures. This is most typical how Bharat works.

There is another extreme in the discourse. They claim that the system and not the governing group are responsible for the mess. The Democratic set-up adopted by Bharat is the root cause of all the problems. Even the team Anna members criticized the practice MPs following the party line. They demanded removing the provision of whip so that individuals can vote in the parliament according to their own thinking. This is height of duplicity. On one hand we are talking about people’s right to recall and on the other we want the MPs not to follow party discipline. The legal provisions of whip were strengthened by anti defection law after the repeated horse-trading episodes in the 1980s. An MP is elected on the party symbol. It is not his individual win. The party policy is projected to the public in the election; they are supposed to have voted accordingly. To claim that the individual will be in a better position to take moral position than within the party mandate may open flood gates for more dangerous corruption in the houses of Parliament. In fact the present irony of coalitions is also a great drama of our flawed democracy. The parties which fought against each other in the election come together and form the government. On one hand at the central level support of parties is bought by CBI threats or relaxations, on the other hand the same parties are target of vicious campaign at the State level.

But can we blame Democracy for all this? Contention that Democracy is the root cause of all the evil does not hold good in an objective analysis. Any other alternative will be inherently more prone to dishonesty and exploitation. Democracy as such at least notionally has the potential of generating people’s power as witnessed in the “Samagra Kranti” led by Jaiprakash Narain in 1977 and again during the Ayodhya agitation in 1992. The same was done apolitically last year. We can definitely infer that present form of democracy has created systemic faults that are responsible for the failure of governance mechanism in the country today. But to say that per say Democracy need to be negated does not go with the times. We will have to win the game by following the rules of the game. Reforms are no doubt needed in our democratic system. But we will have to demand reforms in accordance with the evolved system and not totally out of box.

Theoretically speaking, there are two forms of practicing Democracy. A > Direct Democracy – This is said to be practiced in the city states of Athens or some of the Ganas in the northern Bharat at the time of Alexander’s attack. The citizens directly participate in the governance process in legislature and they elect the executive, even the Judiciary in some cases.

B> Representative Democracy- The Westminster model that we have adopted as a legacy of British Raj. In this the representatives are elected by the citizens and they in turn ‘choose’ the Executive. Mostly the Judiciary is not elected but selected.

Both the models have their pros and cons. US has hybridized the two systems. It has direct elections for the executive heads in the states as well as at the Federal level. At the same time there is a representative houses for legislation primarily but it also serves as a regulatory authority on the Executive.  It seems the Judiciary is also elected in most of the States in US.

We, in Bharat seem to have made a total mess of the democratic principles. The most important of which is the Rule of the majority. Whether in the direct or representative democracy it is the majority that should decide the policy. The elections should ensure that the winning representative of the citizens should have the backing of at least one more than 50% of the polled votes. Here, in Bharat the Decorative head, President, is elected by indirect elections. The more damaging constitutional provision is that the executive Head, Prime-minister, as well need not even be elected directly. Present PM is Rajyasabha member, where the election does not involve citizen’s vote directly. But to continue as the Prime-minister he must always have backing of Majority Members of Loksabha. There 1+50% is mandatory. But the MPs are elected by a process where they do not need to have majority vote in their respective constituency. So, we have MPs who won the elections by securing only 7% of the polled votes. There are hardly a few members who can claim to have got more than 50% of the polled votes in their own Loksabha seat.

This is systemic failure of the democracy. We do not have democracy in practice here even in the constitutional provisions, it is only notional. Hence the rise of elite ruling class and also the evolution of increasingly divisive politics based on all the possible fault lines of caste, region, language or religion. The only thing the politician has to make sure to win an election is to divide others into enough groups to make his group largest. This is inherent in the system.

We can not hope to have any reforms unless we change this basic flaw in the democratic set-up. Two basic demands need to be put forward.

1)      Direct election of the head of the executive, Prime minister in present scenario. This will need constitutional amendment hence very difficult in the era of coalition politics in which even small regional parties have disproportionate importance and value. But we must start a discourse to create a demand for this. The other alternative is Presidential form of government with direct election of the President being the first step.

2)      Demand for making 1+50% as the winning criterion in all the elections from Panchayat to Rashtrapati. This is relatively easier. It can be done by amending the Peoples Representative act. This can be done by simple majority. The major two political parties are expected to benefit most by this reform so it can be done with consensus. It is morally and logically very sound argument and no one ca deny that those who are denied support by the majority of the voters in their constituency have no right to represent people.

These are not the magic wand reforms which will cure all the evils of our system. Ultimately we need to go beyond the historical experience of just a couple of centuries. The present day system has evolved out of the British raj and has its Historic roots in the colonial period. But for the final cure we will have to go to root cause and for that we will have to still deeper in the Historical experience of the nation. We have known history of more than 5000 years with a golden era every second century. We led the world in economic prosperity, Education, Science and Technology and most importantly a peaceful socio-political system. We had variety of political experiments. We can not bring back the diverse political systems which existed in different parts of Bharat. Hindus have always believed in diversity of expression of the same principle. We followed it in political systems also. The Chakravartis respected the existing system of the conquered state and allowed it to continue. We had so many variations of political systems Gana-rajya with total direct democracy on one end of the spectrum to different forms of complex structures like the Magadha Empire. There were systems where only women ruled. But the basic principle of rule was Dharma. That was the common thread.

What we lack today is the Dharmik System. Today we have to accept the system that has evolved and apply the Dharmik principles to it. That is the Hindu way of digesting the alien. We need a fresh Smriti to interpret Sanatana Dharma according to present day society and to codify Yugadharma. This is our indigenous idea of constitution. We need a Smriti instead of this cut & paste document, that we call Constitution of India.

The parliament house has drawn inspiration for its architecture from the Chausath Yogini Temple in Mitawali, Madhya Pradesh in the same way our democratic structure needs to be based on the sound foundations of the principles of the Dharma of the land. The fractured Democracy demands a complete surgery not just cosmetic make-over.

जनवरी 7, 2012 Posted by | सामायिक टिपण्णी, English Posts | , , , , , , , , , , , , , , , | 4 टिप्पणियां