उत्तरापथ

तक्षशिला से मगध तक यात्रा एक संकल्प की . . .

हिंदुत्व में हर भूमिका में पूज्य नारी


विचार नवरात्रि – 2

नवरात्रि नारी शक्ति की पूजा का उत्सव है। देवत्व स्त्रीरूप में भी प्रगट होता है यह माननेवाली हमारी संस्कृति और उपासना पद्धति है। ईसापूर्व की सभ्यताओं में देवियाँ पूजित थी। फिर भी हर नारी में देवत्व का भाव नहीं था। प्रत्येक जीवात्मा में दिव्यत्व ही प्रगट हुआ है यह सर्वसमावेशक विचार केवल हिंदुत्व में ही पाया जाता है। इस कारण हर क्षेत्र में महिला को केवल समानता ही नहीं, वरीयता भारतीय परंपरा में आज भी दिखाई देती है। आक्रमण काल में संघर्षरत समाज में परिष्कार के अभाव से कुछ विकृति अवश्य आयी होगी, किंतु ऐसी किसी भी रूढ़ि को शास्त्रीय अथवा धार्मिक आधार ना होने के कारण अनुकूल सुरक्षित समय आते ही परिवर्तन सहजता से हो गया। शिक्षा के साथ बचाखुचा भेदभाव भी आगामी पीढ़ी में पूर्णतः समाप्त होगा। विधर्मी आक्रांताओं से पूर्व भी समय और देश की परिस्थितियों से कुछ अन्याय्य बातें आचरित हुई होंगी किंतु आज धर्माचार्यों सहित संपूर्ण हिंदू समाज उसका समर्थन नहीं करता। विश्व में अन्य सभी मान्यताओं में नारी को अपने अधिकारों के लिए सतत संघर्ष करना पड़ा है और आज भी उन्हें उचित स्थान, सम्मान और आदर प्राप्त नहीं होता। अब्राहमिक पंथों में महिला को शास्त्रग्रंथों के आधार पर गौण और केवल भोग की वस्तु माना गया है। उसी दृष्टि से उपजे आधुनिक विचार भी ऐसा ही व्यवहार करते हैं। समानता के नाम पर बने साम्यवादी व्यवस्था में भी नारी को कोई स्थान अथवा महत्व नहीं है। बाज़ार तो उनका प्रयोग वस्तु के रूप में ही करता है। केवल भारतीय संस्कृति ही स्त्री के दिव्यत्व का उत्सव मनाती है। भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराई को भी हमने स्वयं ही धिक्कार कर सुधारना प्रारंभ कर दिया। एक दशक के भीतर चमत्कारिक परिणाम दिखाई देने लगे हैं। बाक़ी बचा परिवर्तन भी हिंदू सहजता से कर लेगा।

यह सर्वसमावेशक लचीलापन हिंदुत्व की विशेषता है। एकत्व बोध पर आधारित दर्शन, सबके कल्याण हेतु रचनाएँ, परंपरा और तंत्र के निर्माण का सदियों से आधार बना है। किसी भी भेद के आधार पर किसी को भी ना नकारने वाले हिंदुओं के लिए सर्वे भवन्तु सुखिनः यह केवल प्रार्थना नहीं है जीवन का आदर्श है जिसे हमने सहस्राब्दियों में कई बार देश के अनेक भागों में विविध पद्धतियों से साकार किया है। समृद्ध, सुसंस्कृत और धर्मनिष्ठ समाज और राज्य के नानाविध प्रतिमान हमारे अखंड इतिहास में प्राप्य हैं। ऐसी धर्माधारित समाज रचना में बिना किसी बाहरी दण्ड के सभी अपने-अपने स्तर से अग्रिम उन्नति करते हुए सामंजस्य से सहजीवन जीते थे। यह आदर्श हमने भिन्न-भिन्न व्यवस्थाओं का पालन करते हुए साकार किया है। कहीं गणराज्य की लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो कहीं कल्याणकारी सम्राट की छत्रछाया में, कहीं ग्राम स्वावलंबन से तो कहीं निर्यात और विश्वव्यापार की प्रगत मंडियों से सजे महानगरों से, संयुक्त परिवार के अविभाजित कुनबे से तो किसी कोने में मातृसत्ताक कुल परंपरा जैसे अनेकविध आत्मनिर्भर रचनाओं के प्रयोग इस राष्ट्र की अनंत लोकयात्रा में हुए हैं। सबको सम्मिलित कर सर्वसुखकारी जीवन का प्रसाद विश्व को बाँटने का अद्वितीय कार्य हिंदू समाज निरंतर करता रहा है।

‘नित्य नूतन, चिर पुरातन’ यह विशेषण इस कालसुसंगत जीवन पद्धति के लिए अत्यंत समर्पक है। शाश्वत, सनातन, प्राकृतिक, शास्त्रीय मानवी सिद्धांतों का युगानुकूल और देशानुकूल उपायोजन करने की स्वतंत्रता ने हिंदुत्व को अनादि अनंत कालजयी मृत्युंजय वरदान प्रदान किया है। इतने भीषण आक्रमणों के पश्चात भी यह राष्ट्र न केवल जीवित है अपितु अपने उन्नत संस्कारों से अभिशप्त विश्व को शिक्षित करने को भी सन्नद्ध है। युगाब्द ५११७, विक्रमी २०७२ अर्थात् 2015CE से विश्व भर में स्वीकृत अंतरराष्ट्रीय योग दिवस तो भारत के पुनः विश्वगुरु बनने का शुभारंभ मात्र है। हिंदू किसी भी पुरातन का अतिआग्रह नहीं करता। परंपरा के परिवर्तन को सहज स्वीकार करने की वृत्ति भी हिंदुत्व के अमरत्व का रहस्य है। संघर्ष काल के संक्रमण से कुछ सामाजिक कुरीतियाँ रूढ़ हुई। उनमें से कुछ आज भी समाज में यदा-कदा कहीं-कहीं पर प्रभाव डालती रहती हैं। किंतु हिंदू समाज हर बात से ऊपर उठकर एकत्व को अक्षुण्ण रखने को तत्पर है। राजनीतिक स्वार्थ के लिए सीमित अस्मिता से जगाये जाति, वर्ण जैसे भेद इस अंतर्निहित एकात्मता में बाधा नहीं बन सकते।

Gods of Arunachal

विविधता का उत्सव भी हिंदुत्व का स्वाभाविक लक्षण है। उपासना के विविध मार्गों को सत्य स्वीकार करने के कारण मज़हबी आतंक अथवा सांप्रदायिक दुर्भाव का स्थान भारत में कभी नहीं रहा। ‘ईश्वर एक, रूप अनेक, नाम अनेक’ यह सत्य हमारे समाज के सभी वर्गों को साक्षात् हुआ है। उसी प्रकार ‘गंतव्य एक पंथ अनेक’, ‘भाषा अनेक भाव एक’ जैसे जोड़नेवाले सिद्धांत हिंदू समाज में सहज आचरित हैं। भारत में वेष, खानपान, कला आदि अभिव्यक्ति की यह विविधता कृत्रिम नहीं है। वास्तव में हम अंदर से जानते हैं कि एक तत्व ही विविध रूपों में प्रगट हो रहा है। अरुणाचल प्रदेश में एक जनजाति की देवी का नाम दुयुँयाँ है। उनका स्वरूप सिंहवाहिनी, अष्टभुजा ही है, केवल मुखाकृति, परिधान और शस्त्र अरुणाचली हैं। देवी दुर्गा से समानता का उल्लेख किसी कार्यकर्ता द्वारा होने पर उस जनजाति की एक माता जी द्वारा कहा गया, “जो शक्ति आपके यहाँ दुर्गा के रूप में प्रगट हुई है वही हमारे यहाँ दुयुँयाँ के नाम से प्रगट हुई है। नाम-रूप भिन्न होगा माँ एक ही है। प्रचलित उद्घोष ‘विविधता में एकता’ का सही रूप ‘एकता की विविधता हिंदू की विशेषता’ ऐसा है। नवरात्रि के प्रत्येक दिन देवी के भिन्न-भिन्न स्वरूप की पूजा भी भक्त को यही एकत्व का संदेश देती है।

स्त्रीत्व की भारतीय संकल्पना में मातृत्व का विशेष स्थान है। अन्य सभी परंपराओं से यह भिन्न है। कई पंथों में नारी को मादा के रूप में प्रजनन का साधन ही माना जाता है। उसकी केवल यही भूमिका उन मज़हबों में है। इस्लाम और ईसाइयों में भी समान मान्यता है। दोनों के मूल ग्रंथों में स्त्री को ऐसे खेत का रूपक दिया है जिसमें पुरुष को बीज बोने का अनिर्बंध अधिकार प्राप्त है। अंग्रेज़ी भाषा में पति के लिए सामान्य रूप से प्रयुक्त शब्द Husband का भी यही अर्थ है। अन्न की खेती को Husbandry और पशुपालन को Animal Husbandry कहते हैं। उसी अर्थ में मनुष्य का प्रजनन करनेवाले को Husband कहते हैं। हिंदुत्व में पत्नी को अर्द्धांगिनी कहा जाता है और पति के साथ धर्मकार्य में उसकी सहभागिता अनिवार्य है, इसीलिए वह धर्मपत्नी है। केवल माता बनना ही उसका जीवन ध्येय नहीं है। द्वितीय नवरात्रि की देवी है ब्रह्मचारिणी। यह सीधा संदेश है कि मातृत्व के बिना भी स्त्री वंदनीय, पूजनीय है। यही हिंदुत्व का वास्तविक विचार है।

विश्व की सभी समस्याओं का समाधान हिंदुत्व ही कर सकता है। यह स्वाध्याय आगामी विचार नवरात्रि में निरंतर करेंगे।

अक्टूबर 16, 2023 Posted by | सामायिक टिपण्णी | , , , , , , , , , , , , , , , , | 6 टिप्पणियां

हिंदू विकास दर


सनातन विकास प्रतिमान – 2

भारत के स्वतंत्र होने के बाद अंग्रेज़ी शिक्षा के चलते स्वाभिमान शून्य बने नेतृत्व ने समाज की अंतर्निहित शक्तियों को केंद्र में रखकर अपने स्वबोध और स्वधर्म पर आधारित तंत्र विकसित करने के स्थान पर औरों का अनुकरण करना स्वीकार किया। समाज तो चिरपुरातन संस्कारों से ही संचालित हो रहा था किंतु शासन ने अपनी व्यवस्थाओं को दासता से मुक्त करने के स्थान पर औपनिवेशिक विचार को ही महत्व दिया। फिर भी भारतबोध पूर्ण मिटा नहीं, समाज में हर स्तर पर व्यक्त होता रहता है। प्रतिकूल वातावरण और नीतियों में भूमिगत रूप से और थोड़ी सी स्वतंत्रता मिलते ही पूर्ण उत्साह से भारतीय उद्यमिता अपना चमत्कार दिखाती रही है। पूर्ण समर्थन और कुछ प्रोत्साहन मिलते ही महामारी के काल में भी सृजन और निर्माण के कीर्तिमान भारतीय प्रतिभा ने कर दिखाए हैं।

द्वितीय महायुद्ध के बाद विश्व दो भागों में बँटा था। अटलांटिक महासागर से उत्तर दिशा के देश NATO के रूप में अमेरिकी नेतृत्व को स्वीकार कर पूँजी पर आधारित मुक्त बाज़ार की अर्थव्यवस्था पर चल पड़े। अमेरिकी प्रौद्योगिकी के आक्रामक प्रदर्शन से चमत्कृत ये सब देश उसी मार्ग पर चल पड़े। दूसरी ओर सोवियत रशिया के दबाव और प्रभाव में दक्षिणी गुट साम्यवाद और समाजवाद पर आधारित शासनकेंद्रित अर्थव्यवस्था द्वारा विकास के मार्ग पर चल पड़े। विज्ञान, प्रौद्योगिकी, सामरिक शक्ति तथा अन्य सभी जीवन के क्षेत्रों में दोनों गुटों में प्रतिस्पर्धा चल पड़ी। अर्थनीति के साथ ही राजनीतिक व्यवस्था में भी भेद था। उत्तरी गुट लोकतांत्रिक राजतंत्र, मुक्त संचार माध्यम, व्यक्तिगत स्वातंत्र्य आदि सिद्धांतों का प्रतिपादन करते रहे। राजनयिक लाभ के लिए समय समय पर इन तत्वों का उपयोग अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आज भी होता है। दूसरी ओर साम्यवादी व्यवस्था में व्यक्ति अथवा राजनीतिक दल के हाथ में केंद्रित सत्ता, सामूहिक संपदा, शासनकेंद्रित जीवन ऐसे प्रतिमान विकसित हुआ। दोनों ओर से अपनी श्रेष्ठता की प्रतिस्पर्धा होती रही।

इस प्रतिस्पर्धा से बचते हुए दोनों समूहों के प्रति समान दूरी रखते हुए मित्रता का प्रयत्न करने हेतु निर्गुट सम्मेलन का मार्ग भारत ने स्वीकार किया। लोकतंत्र का सहज स्वीकार भारत ने स्वभावगत किया। संचार तंत्र का स्वातंत्र्य और व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा भी भारत में विनायास प्रफुल्लित हुई। किंतु आर्थिक व्यवस्था में हमने उस समय के नेतृत्व के व्यक्तिगत अनुराग के कारण साम्यवाद का अनुकरण किया। उसके देशानुकरण का प्रयत्न अवश्य हुआ किंतु पंचवार्षिक नियोजन और उद्योगों, विपणन और व्यापार का शासकीय नियंत्रण जैसे सोवियत प्रतिमान के मूल लक्षणों को भारत में कठोरता से लागू किया गया। प्रत्येक गतिविधि पर निरीक्षक राज के कारण हिंदू समाज की आंतरिक उद्यमिता का गला घोंट दिया। चाकरी और उसमें भी सरकारी नौकरी सामाजिक प्रतिष्ठा का केंद्र बन गई।

इस सबके फलस्वरूप 1950CE के दशक से 1980CE के दशक तक भारत का विकास दर केवल 4% रहा। 1978 में एक भारतीय अर्थशास्त्री राज कृष्णा ने इसे ‘हिंदू विकास दर’ (Hindu Growth Rate) का नाम दिया। कुछ अर्थशास्त्रियों ने हिंदू धर्म के कर्म सिद्धांत और भाग्यवादी होना तथा संतोष के आदर्शों के चलते प्रतिस्पर्धा के भाव का अभाव ऐसे कारणों से आर्थिक विकास का दर कम होने की बात कही। इन बातों को गंभीर अर्थशास्त्रियों ने तुरंत नकार दिया किंतु ‘हिंदू विकास दर’ शब्दावली का प्रयोग राजनीतिक स्वार्थ और सनातन द्वेषी विचारधारा से प्रेरित अवसरवादी समय समय पर करते रहते हैं। सत्तावादी और शैक्षिक रूप से प्रामाणिक अध्येता इसे नेहरू प्रतिमान का विकास दर मानते हैं। रुस के अंधानुकरण से उपजे सरकारी अति नियंत्रण के कारण उस कालखंड में भारत का विकास दर पाकिस्तान से भी कम था।

सोवियत रशिया के 1989 में हुए विखंडन के बाद जब नेहरूवीय प्रतिमान की विफलता स्पष्ट हो गई तब भारतीय मूल के अमेरिकी अर्थशास्त्री जगदीश भगवती के शिष्य डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में भारत ने उत्तराभिमुख होते हुए वैश्विक मुक्त बाज़ार की ओर दिशा परिवर्तन किया। उस समय भी अवसर था कि हम हमारी सनातन परंपरा के आधार पर अपना स्वदेशी मार्ग अपनाते। पंडित दीनदयाल उपाध्याय, दत्तोपंत ठेंगड़ी सहित अनेक विचारक कई वर्षों से भारत द्वारा पश्चिम के भौतिक वाद पर आधारित दोनों व्यवस्थाओं के स्थान पर स्वयं के स्वतंत्र तृतीय मार्ग अनुसरण का प्रतिपादन कर रहे थे। विश्व अधिकोश (World Bank), आंतरराष्ट्रीय मुद्रा निधि (IMF) जैसे बहुराष्ट्रीय संगठनों के प्रभाव में बन रही नीतियों में सभी सनातन विचारों और परंपराओं की केवल अनदेखी ही नहीं हुई अपितु उन्हें हेय माना गया। उस कालखंड में भी ‘हिंदू विकास दर’ को भर्त्सना के रूप में प्रयुक्त किया गया। भारतीय ज्ञान परम्परा पर स्वाभिमान का अभाव ही दासता की निरंतरता का कारण है।

उदारीकरण (Liberalization), निजीकरण (Privatisation) तथा वैश्वीकरण (Globalisation) इस LPG की त्रिसूत्री के नाम पर हुए आर्थिक सुधारों में शासकीय नियंत्रण को कम किया गया। राज्यों के मध्य आपसी व्यापार को खुला किया गया। इसके फलस्वरूप भारत की आंतरिक शक्ति उद्दीप्त हुई। घरेलू पूँजी की नींव पर उद्यमिता की बाढ़ आई। हमारी पारंपरिक गणित और अभियान्त्रिकी प्रतिभा में वैश्विक अवसरों को भुनाते हुए विश्वमंच पर स्थान बनाया। विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ ही भारत में स्थापित स्वदेशी निगम भी बहुराष्ट्रीय सफलता पाने लगे। विशेषकर संगणक के क्षेत्र में भारत का प्रभाव बढ़ता गया। 1998CE में किए पोखरण विस्फोट ने भारत के तकनीकी वर्चस्व का प्रदर्शन किया। निवासी और प्रवासी भारतीयों में स्वाभिमान जागरण के साथ ही विश्व की भारत दृष्टि बदल गई। सहस्राब्दी परिवर्तन से पूर्व भारत उदय में विश्व की रुचि बढ़ती गई। पॉल बैरोच, विलियम डेलरिम्पल जैसे लेखकों ने भारत की इस बढ़ती शक्ति को पुनरुत्थान का नाम दिया। उन्होंने सप्रमाण लिखा कि विदेशी आक्रमणों से पूर्व भारत एक समृद्ध राष्ट्र था जो विश्व भर में व्यापार करता था। उपनिवेश बनने के बाद खोये वैभव को भारत पुनः प्राप्त कर रहा है।

इस विषय पर विश्व के विकसित देशों में चर्चा चली। चीन और भारत नई शताब्दी की आर्थिक शक्ति बनेंगे यह स्पष्ट होने के बाद इतिहास के इस पक्ष पर अर्थशास्त्रियों का ध्यान गया। प्रामाणिक इतिहासकार तो इस तथ्य को सदा से ही कहते आये हैं। ईसा पूर्व से भारत में आए अनेक विदेशी यात्रियों ने भारत की संपन्नता का परीकथा के समान वर्णन किया है। अनेक उत्खननों में प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्य, भारत से यूरोप में ले जायी गई पाण्डुलिपियों में मिले साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर विल ड्यूरैंड जैसे अमेरिकी इतिहासकार कहते रहे हैं कि सदियों की लूट के बाद भी प्रचलित गणना CE की 19वी शताब्दी तक भारत ना केवल स्वयं समृद्ध रहा अपितु पूरे विश्व को संपदा का वितरण करता रहा है। ब्रिटिश राज से पूर्व भारत के ज्ञान, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में भी सर्वाधिक प्रगत होने के प्रमाण इन इतिहासकारों के वृत्तों में मिलते हैं। सहस्राब्दी परिवर्तन के समय विश्व में गहन मंथन चल पड़ा था। विकास के प्रतिमान पर भी गंभीर पुनर्विचार होने लगा था। पर्यावरण के विनाश, संपन्न और विपन्न के मध्य बढ़ती खाई और टूटते परिवार और बिखरते मानव-मन के कारण विकास की अंधी दौड़ में है इसका साक्षात्कार पश्चिम के संवेदनशील विचारकों के लेखन में भी आने लगा। इस कारण पूर्व के दर्शन, परंपरा और इतिहास में विश्व की रुचि बढ़ गई।

संपन्न देशों के आर्थिक विकास और सहयोग संगठन (Organisation for Economic cooperation and Development — OECD) ने ब्रिटिश मूल के अर्थशास्त्री एंगस मेडिसन को विश्व का आर्थिक इतिहास लिखने का प्रकल्प दिया। चार वर्ष गहन शोध कर पूरे विश्व से 2000 वर्षों के उत्पादन और व्यापार की जानकारी (Data) एकत्रित कर उन्होंने ग्रंथ लिखा – ‘विश्व का आर्थिक इतिहास – सहस्राब्दी दृष्टिकोण’ (Economic History of the world – Millennial perspective)। इस शोध पर आधारित निष्कर्षों में उन्होंने बताया की प्रचलित युग CE के प्रथम 15 शताब्दी तक भारत निर्विवाद रूप से विश्व का सबसे समृद्ध देश रहा। चीन के आँकड़े ही इसके बाद भारत के समकक्ष दिखाई देते हैं। (चीन के किसी भी जानकारी पर विश्वास नहीं किया जा सकता।) एक अनुमान के अनुसार इस कालखंड में भारत का विश्व उत्पादन में योगदान 30% से 46% तक रहा। प्रति व्यक्ति उत्पाद का अनुमान इतना आकर्षक नहीं है। तथाकथित औद्योगिक क्रांति के बाद भी भारत यूरोप और अमेरिका से अधिक समृद्ध था। मेडिसन के निष्कर्ष के अनुसार अंग्रेज़ी शासन के स्थिर होने के प्रारंभिक समय 18वी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भी भारत का वैश्विक योगदान 23-25% था। यह वास्तविक ‘हिंदू विकास दर’ है।

जब तक हम सनातन आर्थिक प्रतिमान पर व्यवहार करते रहे तब तक भारत सुसंस्कृत होने के साथ ही समृद्ध भी था। विदेशी शासकों द्वारा भारतीय परंपरा का विध्वंस कर अपने तंत्र को थोपने से ही भारत में अकाल, विपन्नता और भुखमरी की स्थिति बनी। जब अंग्रेजों को खदेड़ कर भारत स्वतंत्र हुआ तब उसका वैश्विक उत्पादन में अवदान केवल 2% बचा था। पश्चिमी शोषण तंत्र से ध्वस्त आर्थिक तंत्र को स्वाधीनता के बाद भी उन्हीं विदेशी प्रतिमानों पर चलाया गया और धृष्टता ऐसी कि ‘हिंदू विकास दर’ के नाम से दोष सनातन सिद्धांतों पर मढ़ने का विमर्श खड़ा किया गया। हेरोडोटस, मेगस्थनीज़ जैसे ईसा पूर्व भारत में आये यात्रियों से लेकर ब्रिटिश शासकों में से कुछ नैष्ठिक अधिकारियों के यात्रा वर्णन पढ़ने से ज्ञात होता है कि जब वास्तविक हिंदू आर्थिक प्रतिमान व्यवहार में थे तब भारत विश्व का सबसे समृद्ध राष्ट्र था और पूरे विश्व में सागरी और भूमार्ग से व्यापार करता था। यह प्रचंड विकास ही सत्य हिंदू विकास दर है।

आज जब सारा विश्व आर्थिक मंदी की कगार पर है तब भी अपने आंतरिक सनातन सांस्कृतिक सामर्थ्य को फिर से गर्व के साथ स्वीकार करने वाला भारत सबसे सुरक्षित माना जा रहा है। विश्व को मंदी से बचाने के लिए भी अधिक अध्ययन के साथ समझना होगा कि क्या है भविष्य का हिंदू विकास दर।

अगस्त 14, 2023 Posted by | सनातन विकास प्रतिमान | , , , , , , , , , , , , , , , , , , | 4 टिप्पणियां

Expansion by organisational Communication


The purpose of outreach in an organisational communication is to connect. In some cases, the contact though new connects so as if there is a very natural bond awaiting to happen. In most cases connecting needs conscious efforts. Listening is the prime most need in communication. The way we pay attention to listening and the long patience we display are more effective than what we say or speak. Those who can encourage others to share openly about themselves have a very good art of connecting with others. Listening with full concentration encourages sharing. Apt reaction also helps. Over reactions as well as interruptions always sound artificial and dramatic which takes away the friendly warmpth reducing the conversation to a mere formality.

Channelising conversation in the direction of organisational topics while listening is the best way. Discussing the areas of interest, expertise and experience of the new contact are effective in steering the field naturally towards organisational activities such as education. While establishing connect it is better to avoid unnecessary debate. Best is to stay away from arguments as much as possible. That does not mean we have to agree with everything. Some minor disagreements about our area of activities may be neglected at first. It is not prudent to clarify each concept in the opening communication. If any major contradiction about the organisational stand is observed, it may be pointed politely, adding possibility of detailed discussion in future. One thing should be firm in the mind of the organiser that it is more important to win hearts than arguments. “We agree to disagree” is the mantra of a deft activist. If connect is established with patience lot many opportunities to clarify outlook will present themselves gradually.

Communication has to be a dialogue, hence efforts should be to give more freedom and chance to others to express themselves. Even if we get less share in the first occasion, it lays foundation of lots of future communications. Only a few of the hundreds of contacts really connect in serious communication. It demands continuity. Hence the responsibility is not over with just a one time conversation. It’s better to initiate possibility of next interaction in the first connect itself. An experienced campaigner always ends every conversation by fixing next appointment or time for call. Communication leads to friendship and it’s the way to motivate the new contact to be active.

Communication has to be maintained with the old associates as well as the new ones. This must be a daily ritual for all Karyakartas. Communication is also a daily practice same as the new contacts everyday. Today the means of communication are numerous. But it’s important to use them prudently. Along with personal messaging, group messages and broadcasts are also available in many apps. All these can become tools of organisational communication with proper use. The fear of wasting time is very real hence proper caution needs to be exercised while using the apps. Direct face to face interaction is always the best mode as it involves body language and gestures also. Audio and video communication can be more useful in regular and frequent communication. When distances prevent more direct meetings the gadgets and apps can be useful for continued connect.

Organisation is hierarchical. Each Karyakarta is on one of the steps. In the habit of daily communication one must connect at three levels. First is the higher ups. One must talk to the reporting authority and other senior office bearers on regular intervals. It need not be the same official everyday, but one must plan to connect with all the higher ups frequently. It helps developing a healthy organisation. There is reporting authority for each one. Giving regular activity report to them is essential. In case of doubts, or confusions clarifications can be sought from them. Normal dialogue is expected with others. In the decision making it’s organisationally detrimental to bypass the reporting authority. But when there is some objection or difference of opinion with the direct authority it is better to take it to the authority at the immediate next higher level. But it must stop there with full trust and never be spread anywhere.

The second stage is communication with other Karyakartas on your level. This daily connection is most important for evolving a common organisational understanding. The friendly dialogue helps in strengthening the team as well. This same level communication can be one on one individually or collective. This daily communication must become character of individual and organisational working style so that small differences of opinion do not fester into ego clashes. Two precautions are advisable. There is a possibility of groupism infected through friendship of equals. This has to be avoided deliberately. This can be done by connecting with all consciously. Another danger is of spreading of negativity. Horizontal spreading of negative comments is the proven way to weaken organisation from within. In the 16th chapter of Gita this gossiping is referred as demonic attribute ‘Paishunam’. It’s a symptom of weaker mind set. Hence Karyakarta should stay away from it. Direct dialogue with the person with whom negativity is there can purify and strengthen the mind in return. Open and free atmosphere has to be created through collective interactions so that receiving and giving feedback becomes a natural process. This is possible only through regular communication.

The third stage of connect is with those who are on the steps below you, under your care. This mentoring is not a heavy burden but a friendly guidance. This communication need not be as big brother or authority but being available as an experienced senior. The initiative has to be form the senior. The voluntary communication has to be started for listening. Regularity increases the impact. Some precautions are needed at this stage also. The communication should not be preaching or fault-finding. Listening is no doubt more important but when correction is needed then the clarity to provide and acceptance to receive the same both are possible through regularity of dialogue.

Daily connect with all the three levels of hierarchy has to be done resolutely same as new contacts everyday. This is organisational Sadhana. As the spiritual practitioner does daily practices like Japa, worship or Meditation same way Karyakarta engages in regular contact and connect. The organisation spreads.

दिसम्बर 23, 2022 Posted by | English Posts, sangathan | , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , | 1 टिप्पणी

चुनावी रणभूमी मे राष्ट्रवाद का शंखनाद


Republic day2चुनाव लोकतंत्र का महोत्सव है। वर्तमान में चुनाव आयोग द्वारा डाले गये कठोर निर्बंधों के कारण इस महोत्सव का उत्साह कुछ धीमा पड गया दिखता है। जमीनी गतिविधियों का स्थान अब प्रसार माध्यमों के अंदर होनेवाली प्रचार उथल-पुथल ने ले लिया है फिर भी चुनाव का समय सबके लिए ही अतिविशिष्ट सक्रियता का समय होता है। सभी प्रकार के कार्यकर्ता सक्रिय हो जाते हैं। सामाजिक कार्यों मे लगे, सामन्यतः गैर राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय कार्यकर्ताओं के लिए यह चिरंतन संभ्रम बना रहता है कि इस सक्रियता में योगदान करें अथवा नहीं और करें तो किस प्रकार से करें? भारत के वर्तमान परिदृश्य में सरकारी व्यवस्था से अछूता रहना लगभग असंभव है। जीवन के हर क्षेत्र में शासन का हस्तक्षेप है। माना कि ये स्थिति आदर्श नहीं है और विदेशी दासता के अवांछनीय अवशेष के रुप मे विद्यमान है किंतु यह भी नकारा नही जा सकता कि यह वास्तविकता है।

स्वतंत्रता पश्चात् हमने लोकतंत्र को राजनैतीक व्यवस्था के रुप मे स्वीकार किया। भारत के संविधान ने जनता को सर्वोपरि सार्वभौम सत्ता के केन्द्र के रुप के प्रतिष्ठित किया। अपेक्षा थी कि लोकतांत्रिक व्यवस्था इस धारणा को सृदृढ कर प्रत्यक्ष मे उतारती किन्तु प्रतिनिधिक लोकतंत्र के जिस स्वरुप को हमने भारत में अपनाया उसने समाज को जोडने के स्थान पर विघटित करने का ही काम किया। सर्वाधिक मत पाने वाले प्रत्याशी के विजय की व्यवस्था के कारण सबसे बडे गुट का प्रतिनिधि ही जनप्रतिनिधि कहलाया जाता है। बहुदलीय व्यवस्था के अंतर्गत चुनाव क्षेत्र मे अनेक प्रत्याशी होते हैं। जिसको सर्वाधिक मत प्राप्त होते हैं उसे विजयी घोषित कर दिया जाता है। इस व्यवस्था ने ऐसी हास्यास्पद विडम्बना की स्थिति उत्पन्न कर दी है कि कई स्थानो पर 15% से कम मत प्राप्त करने वाले प्रत्याशी भी जनप्रतिनिधि के रुप मे चुने जाते हैं। वास्तव मे देखा जाए तो डाले गए मतों मे से 85% से अधिक मतदाताओं ने इस नेता को प्रतिनिधि के रुप मे नकार दिया फिर भी सबसे बडे गुट का नेता होने के कारण वह उन 85% लोगो का भी प्रतिनिधि कहलाया जाता हैं। यह स्वाभाविक ही था कि राजनीतिक दलों ने अपने निहित स्वार्थ के लिए व्यवस्था की इस कमजोरी का उपयोग किया।

EVMजाति, वर्ग, भाषा आदि जो भी समाज को तोडने के माध्यम मिले उनके द्वारा अपने गुट को सबसे बडा सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाने लगा। क्षेत्रीय दलों के उभार ने रणनीति को और आगे बढ़ाकर अपने सीमित समर्थन को बड़ा बनाने के लिए बाकी बचे समाज को छोटे छोटे टुकड़ों में खंडित करने का काम किया। यदि किसी नेता या दल के पास जाति अथवा ऐसे ही किसी आधार पर 100 मे से 20 मतदाताओं का समर्थन है तो उसने भिन्न-भिन्न तरीकों से समाज के बाकी बचे 80 मतदाताओं को इतने टुकडों मे बाँटने का काम किया कि कोई गुट उसके गुट से बड़ा न हो जाए। विभाजनकारी राजनीति ने स्वतंत्रता के 66 वर्षों के पश्चात भी भारत की सुप्त क्षमता को प्रकट नहीं होने दिया है। आज विश्व मे चहुँ ओर सभी देश भारत के सामथ्र्य की सराहना करते हैं। जिनके मन मे मित्रता नही है वे भारत के उभरने की संभावना से आशंकित रहते हैं। किंतु इस राष्ट्र के सामथ्र्य-सूर्य को विघटनकारी राजनीति का ग्रहण लगा है। भारत में राष्ट्र पुनर्निर्माण के कार्य को यदि पूर्ण गति प्रदान करनी है व व्यवस्थागत प्रतिष्ठा दिलानी है तो उसके लिए राजनीति के विभाजक तंत्र को बदलना आवश्यक है। इसके बिना बाकी सारे प्रयास छलनी मे पानी भरने के समान निष्प्रभावी हो जाते हैं।

व्यवस्था  परिवर्तन इसका स्थायी समाधान है।First past the post ’सर्वाधिक मत पानेवाला विजयी’ इस व्यवस्था के स्थान पर प्रत्यक्ष एवं पूर्ण लोकतंत्रकारी ECव्यवस्था ‘बहुसंख्य का समर्थन’ ‘Mojority representation’ की व्यवस्था को लागू करना होगा। इसके अंतर्गत किसी भी चुनाव में जीतने के लिए डाले गए कुल मतों में से 50 प्रतिशत से कम से कम एक मत अधिक पानेवाला व्यक्ति ही विजयी घोषित होगा। ऐसी स्थिति में समर्थन करने वाले मतदाताओं की संख्या नकारने वाले मतदाताओं से निश्चित ही अधिक होगी। तब चुना हुआ नेता सच्चे अर्थ में क्षेत्र का प्रतिनिधि होगा। इस व्यवस्था को लागू करने मे अनेक आक्षेप व कठिनाइयाँ गिनाई जाती है किन्तु राजनीति को राष्ट्रीय एकात्मता के लिए बाध्य करने के लिए यही चिरस्थायी उपाय है। विश्व के अनेक देशों में इसी व्यवस्था के अंतर्गत चुनाव होते है। भारत से भी भौगोलिक रुप से विस्तृत व आबादी में भी लगभग बराबरी के रशिया में भी सभी आम चुनाव इसी विधि से होते हैं। यदि किसी चुनाव क्षेत्र में प्रथम चरण के मतदान में किसी को भी 50% से अधिक मत नही प्राप्त होते हैं तो प्रथम व द्वितीय स्थान पर रहने वाले प्रत्याशियों के मध्य दूसरे दिन पुनः मतदान कराया जाता है। अपने आप किसी न किसी को 50% से अधिक मत मिलेंगे ही। प्रायः ऐसा देखा गया है दूसरे चरण के मतदान की आवश्यकता ही नही पड़ती। इस व्यवस्था में स्वाभाविक रुप से ही प्रत्येक दल ऐसे प्रत्याशी का चयन करता है जिसे समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों का समर्थन मिल सके। गुटीय हितों के स्थान पर सामूहिक हित चुनावी मुद्दे बन जाते हैं। क्षेत्रीयता, साम्प्रदायिकता, जातीयता आदि चुनाव जिताने के लिए सक्षम नही होते। अतः राष्ट्रीयता, एकात्मता, एकता, समरसता यह विषय अधिक प्रभावी होते हैं।

मन में यह प्रश्न आना स्वाभाविक है कि जब तक यह व्यवस्था परिवर्तन नही हो जाता तब तक राष्ट्रवाद का चुनावी राजनीति में कोई स्थान ही नहीं? वास्तव में बात बिल्कुल इसके विपरीत है जब तक संपूर्ण एवं प्रभावी लोकतंत्र के रुप मे बहुसंख्या का प्रतिनिधित्व यह नियम लागू नही होता तब तक राजनीति के द्वारा समाज के विभाजन को रोकने का एकमात्र उपाय है ’राष्ट्रवादी राजनीति’। जातीयता, साम्प्रदायिक तुष्टीकरण, वर्गवाद, धनबल तथा बाहुबल आदि लोकतंत्र के असाध्य विकारों को ठीक करने का एकमात्र उपाय है – ’चुनावी रणभूमी मे राष्ट्रवाद का शंखनाद’। राष्ट्र का हित, राष्ट्र की संस्कृती, राष्ट्रीय परंपरायें, राष्ट्रीय जीवनध्येय इन पर आधारित नीतियों को महत्व देनेवाले दल एवं नेता का जब समाज स्वयंस्फूर्त समर्थन करने लगेगा तब अन्य सभी संकुचित स्वार्थों पर आधारित विघटनकारी मुद्दे गौण हो जायेंगे। समाज में काम कर रहे प्रत्येक सामाजिक कार्यकर्ता का यह कर्तव्य बन जाता है कि ऐसे राष्ट्रवादी वातावरण का जागरण करें।

bharatmataलोकतंत्र के महत्वपूर्ण स्तंभ प्रसार माध्यमों का भी कर्तव्य बन जाता है कि विघटनकारी मुद्दों को महत्व देने के स्थान पर जोडनेवाले एकात्मता को बढावा देने वालें विषयों, नेताओं तथा दलों का अधिक प्रचार दें। धन के द्वारा क्रय की हुयी प्रसिद्धी के आधार पर समाज को तोडनेवाले नेताओं व दलों को सबक सिखाने का काम राष्ट्रकार्य के रुप में प्रसार माध्यमों को भी करना होगा। पेड न्यूज के द्वारा माध्यमों का धनबल के आगे समर्पण लोकतंत्र के विनाश का कारण बन रहा है। भारत एक निर्णायक दौर से गुजर रहा है। वैश्विक परिदृश्य में अवसर की जो एक छोटी सी खिडकी खुली है उसका यदि निर्णायक उपयोग करना है तो आज राष्ट्र को सुदृढ, सक्षम व निःस्वार्थ नेतृत्व की आवश्यकता है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ही ऐसे नेतृत्व को जन्म एवं पोषण दे सकता है। पश्चिम में राष्ट्रवाद की अवधारणा राजैनतिक व आर्थिक है। इस कारण से वह राष्ट्रों के मध्य प्रतिस्पर्धा को जन्म देती है। इस प्रतिस्पर्धा का रुपांतरण बाजारी शोषण, शस्त्र स्पर्धा व अंततः युद्धों में भी होता है। द्वितीय महायुद्ध में सारे विश्व पर युद्ध की विभीषिका थोपने वाल हिटलर ने भी जर्मन राष्ट्रवाद के नारे का ही तात्विक आधार लिया था। उसके बाद से अंतरराष्ट्रीय विमर्श में राष्ट्रवाद एक घृणित एवं निन्दनीय पद बन गया है। भारत में भी साम्यवादी व समाजवादी विचार को पोषित करनेवाले विचारकों ने इसी पश्चिमी दृष्टि से प्रभावित होकर राष्ट्रवाद की घोर आलोचना की है। इसे संकुचित, तानाशाही व फासिस्ट जैसे संबोधनों से पुकारा है। इस कारण सामान्य बुद्धिजीवी भी राष्ट्रवाद के प्रति सकारात्मक विचार नही रखते किन्तु भारत में राष्ट्रवाद की संकल्पना कतई आर्थिक अथवा राजनैतिक नहीं है। भारत में यह मूलतः आध्यात्मिक व व्यवहार में सांस्कृतिक विचार है। आर्थिक व राजनैति राष्ट्रवाद जहाँ भौगोलिक सीमाओं और बाजारी प्रतिस्पर्धाओं के कारण विभाजनकारी बन जाता है वहीं दूसरी ओर आध्यात्मिक, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद व्यक्ति से परिवार, समाज से आगे राष्ट्र तक मन के विस्तार का माध्यम होने के कारण एकात्मदृष्टि का विकास करता है। स्वाभाविक ही यह राष्ट्रवाद विस्तार की अगली सीढ़ी के रुप में मानवता को देखता हैं। अतः इस राष्ट्रवाद में राष्ट्रहित के साथ ही विश्वहित व उससे भी परे सृष्टि का हित भी निहित है। यह राष्ट्रवाद तोडता नही जोड़ता है।

जाति, पंथ, सम्प्रदाय, वर्ग, भाषा, क्षेत्र आदि के द्वारा विभिन्न वादों का निर्माण कर चल रहे समाज विघटन के तांडव को यदि रोकना है तो सभी को मिलकर एक ही उद्घोष करना होगा कि ‘राष्ट्र सर्वोपरि है’। मेरे व्यक्तिगत, पारिवारिक, क्षे़त्रीय, सामाजिक, पांथिक, साम्प्रदायिक अथवा प्रांतीय हितों से अधिक महत्वपूर्ण राष्ट्रहित हैं। इस विचार को अपने हर कार्य मे अभिव्यक्त करना होगा। चुनाव में आग्रह पूर्वक सहभागी होना, मतदाताओं का पंजीयन करना अधिक से अधिक लोगों को सकारात्मक मतदान के लिए प्रेरित करना, दलों व नेताओं को राष्ट्रहित के मुद्दों पर विचार एवं बात करने के लिए विवश करना यह हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। आइए! लोकतंत्र के महोत्सव में राष्ट्रवाद के उजास को प्रकाशित करने का संकल्प लें।

नवम्बर 29, 2013 Posted by | सामायिक टिपण्णी | , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , | 1 टिप्पणी

लूला लोकतंत्र : जरुरी है सर्जरी


वर्ष २०११ में हुए आंदोलनों में जनता की प्रचंड ताकत देखने में आई |
किसी भी नीति के निर्धारण में जनता की सोच लोकतान्त्रिक ढांचे में एक महत्वपूर्ण कारक होती है| इसलिए नीतियाँ बनाने वालो की तरफ से हमेशा से ही जनमत या जनता की “सोच”  को ढालने का संगठित प्रयास होता रहता है | मिडिया के बड़े प्रभाव क्षेत्र से लोगो की सोच को प्रभावित करना अब एक विशेष कार्य बन चुका है | प्रिंट मिडिया का अपना एक वर्ग है, और वह उन्हें प्रभावित भी करती है | इलेक्ट्रोनिक मिडिया और सोशल मिडिया में हुयी बढोत्तरी से लोगो को अपनी राय व्यक्त करने के और भी मार्ग मिल गए हैं | पहले दो पर तो सरकार  का प्रभाव   हो सकता है, चूँकि उसके पास इन्हें देने के लिए  भारी भरकम मात्र में धन होता है जो वह अपने विज्ञापनों पर खर्च करती है विज्ञापनों के लिए| लेकिन पूरी दुनिया में सोशल मिडिया पर किसी भी सरकार का प्रभाव जमाना मुश्किल है|
लेकिन अब इस अभूतपूर्व चुनौती  से निपटने के लिए भी कुछ  व्यावसायिक रूप से लोगो की सोच प्रभावित करने वाले  “प्रोफेशनल” लोग काम पर लगाये जा चुके है | विकसित देशो में तो पिछले एक दशक से और अपने यहाँ कोई दो सालो से ही इस तरह के कला और विज्ञान ने प्रगति की है | वर्तमान सरकार तो इसमें बहुत ही निपुण है और इस काम में उसने इस क्षेत्र के सबसे अनुभवी लोगो को लगा रखा है | कुछ अखबारों की रिपोर्टिंग के अनुसार तो सत्ताधारी पार्टी के युवराज को “कौन से कपडे पहनने है” , “किस तरह बोला जाय ” यहाँ तक की कैमरे के सामने भीड़ में “किसी छोटे बच्चे को कैसे अपनी गोद में उठाना है ” यह तक सलाह देने के लिए प्रोफेशनल रखे गए है | कुछ अखबारों की माने तो पिछले दिनों चेहरे पर जो चमक दिखी वह भी प्रधानमंत्री के खास प्रोफेशनल सलाहकारों की सलाह का परिणाम थी | व्यावसायिक रूप से ऐसा करने वालो की करतूत का एक चिंताजनक उदहारण है अन्ना का मुम्बई अनशन |
इसके पूर्व आई. ए. सी. (बिना किसी प्रोफेशनल के ) लोगो में यह सोच बनाने में सफल रही थी की “जनलोकपाल” ही सरकार से सम्बंधित सारी समस्याओं की चाबी है | और केंद्र की सरकार ने बड़ी चालाकी से इसे संभाला …. उसने ऐसा माहोल बनाया  की भ्रष्टाचार के खिलाफ एक कानून “लोकपाल “बनाकर लाये है भले ही जनलोकपाल की कॉपी ही न हो , पर एक कदम तो बढाया! इस से लोगो के मन में एक भ्रम उत्पन्न हो गया की सरकार कुछ कर रही है और अन्ना सिर्फ अपने अहंकार की तुष्टि के लिए ही अनशन कर रहे है | टीम अन्ना ने अपनी राजनैतिक असमर्थता सिद्ध की| भारतीय जनता की मूल प्रवृत्ति है की वो कानूनी कार्यवाही  में अधिक विश्वास  करती है | अगर उन्हें थोड़ी बहुत आशा भी दिखती हो तो लोग सरकार में विश्वास बनाये रखते है | पूर्व में अप्रैल और जून में युपिए की सरकार लोगो को यह मौका देने में चूक गयी | ४ जून  को लोगो के शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर हुए वीभत्स सरकारी हमले (जिसमे महिलाये औ बच्चे भी शामिल थे ) से लोग भड़क गए और लोगो ने स्वयं को अकेला महसूस किया और इसीलिए फिर आन्दोलन को इतना भारी जनसमर्थन मिला |लेकिन सरकार इस बार लोगो में यह सोच बनाने में सफल रही की वे कुछ कर रहे है विपक्ष और टीएमसी जैसी पार्टिया केंद्र सरकार पर कड़े कानून के लिए दवाब बनाये हुए है ऐसे में अलग से कुछ करने की आवश्यकता नहीं रह जाती है ….भारत में सब कैसे होता है यह उस का सटीक उदहारण है |
इसी प्रकरण में एक जो अजीब चीज और देखने में आई वो है उनका कहना है की सारी गड़बड़ी की वजह शासन तंत्र ही है न की कोई शासन करने वाले लोग| जिस प्रकार लोकतान्त्रिक व्यबस्था भारत ने अपनाई हुयी है वास्तव में वाही सारी समस्याओ का मूल है यहाँ तक की टीम अन्ना ने तो सांसदों द्वारा उनकी पार्टी अनुशासन में बंधे रहने तक की आलोचना की | उन्होंने संसद से (व्हिप) “सचेतक”   के प्रावधान को हटाने की मांग की ताकि एक संसद अपनी मर्जी से अपनी सोच से वोट दे सके | दोगलेपन की हद हो गयी | एक तरफ तो आप लोगो के “राईट टू रिकाल ”  की बात कर रहे है , दूसरी तरफ सांसद अपनी ही पार्टी अनुशासन को न माने यह चाहते है | सचेतक का जो वैधानिक प्रावधान है वह  १९८० के समय हुयी सांसदों की खरीद फरोख्त के बाद बने “दल बदल विरोधी कानून” के बाद से और मजबूत हुआ है| एक सांसद अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह के आधार पर चुनाव जीतता है न की उसकी व्यक्तिगत जीत होती है | चुनावों में जनता के मध्य पार्टी की कार्य योजना रखी जाती है जिस पर लोग उन्हें वोट देंगे ऐसी उम्मीद की जाती है | अब कहना की पार्टी के घोषणा पत्र में बंधने की अपेक्षा एक सांसद किसी नैतिक स्थान के लिए व्यक्तिगत रूप से अधिक उपयुर्क्त होगा यह तो संसद में भ्रष्टाचार की बाढ़ ला देगी |
वास्तव में गठबंधन की  वर्तमान विडंबना ही हमारे इस त्रुटी पूर्ण  लोकतंत्र में एक भरी नौटंकी जैसे है| चुनावों में जो पार्टिया एक दुसरे के खिलाफ लडती है , वही जीतने के बाद मिलकर सरकार बनाती है, एक तरफ जहा केंद्र के स्तर पर सी.बी.आई. का डर दिखाकर या राहत का लालच देकर जिन पार्टियों से गठबंधन बनाया जाता है , राज्यों में वही एक दुसरे के कटुता पूर्ण अभियानों का निशाना बनती है |
लेकिन क्या हम इस सब के लिए लोकतंत्र को जिम्म्मेदार ठहरा सकते है ? लोकतंत्र ही मूल समस्या है ऐसा अभिमत बनाना एक वस्तुनिष्ठ समीक्षा के लिए ठीक नहीं बैठता | कोई और विकल्प ही स्वाभाविक रूप से शोषण और भ्रष्टाचार से निजत का उपाय हो सकता है |
१९७७ में जय प्रकाश नारायण की समग्र क्रांति और उसके बाद १९८६ के अयोध्या आन्दोलन में जो देखा, लोकतंत्र में राष्ट्रीय स्तर पर लोगो में हिम्मत जगाने की क्षमता है, और वही गैर राजनितिक रूप से पिछले वर्ष हुआ| निश्चित ही हम यह निष्कर्ष निकाल सकते है की लोकतंत्र के वर्तमान स्वरुप ने कुछ यथाक्रम में गलतियां की है जो हमारी आज की शासन व्यवस्था के ढहने के लिए जिम्मेदार है | पर सिर्फ लोकतंत्र को ही अपने आप ने जिम्मेदार मानकार नकारना समय के साथ उचित नहीं होगा | हमें खेल को खेल के नियमो का पालन करते हुए जीतना  होगा | इसमें कोई संदेह नहीं की बदलाव होना चाहिए | पर हमें सुधार इसी तंत्र में से इसी की अनुरूप उभार कर लाने होंगे न की एकदम अलग से कोई कदम उठाया जाय |
सैधांतिक रूप से देखा जाय तो लोकतंत्र के दो रूपों का चलन है .. पहला है  १- प्रत्यक्ष लोकतंत्र :  ऐसा माना जाता है की यूनान में एथेंस जैसे कुछ नगरो में और उत्तर भारत के कुछ गणों में सिकंदर के आक्रमण के समय यह लागू था, इसमें जनता प्रत्यक्ष रूप से शासन विधि में भाग लेती है और विधान परिषद् की कार्यकारिणी का और कही कही तो न्यायपालिका का भी चुनाव  करती है |
दूसरी है २. प्रतिनिधि आधारित लोकतंत्र :– यह वेस्टमिन्स्टर  नमूना है जो हमने अंगेजी हुकूमत की वसीयत रूप में अपनाया है| इसमें जनता द्वारा अपने प्रतिनिधि निर्वाचित किये  जाते है जो आगे कार्यपालिका का चुनाव करते है तथा अधिकांशतः न्यायपालिका को नियुक्त किया जाता है नाकि निर्वाचित किया जाता है | दोनों ही प्रकारों के तंत्र के अपने अपने गुण-दोष है | अमेरिका ने दोनों के संकर रूप को अपनाया हुआ है , इसमें राज्यों में तथा राष्ट्रीय स्तर पर भी कार्यपालिका का प्रत्यक्ष निर्वाचन होता है |जहाँ एक और विधान परिषद् के लिए प्रतिनिधि सभा होती है वही दूसरी ओर वह कार्यपालिका के नियामक प्राधिकरण के तौर पर भी  कार्य करती है | ऐसा प्रतीत होता है की अमेरिका के अधिकांश राज्यों में न्यायपालिका भी निर्वाचित होती है |
पर लगता है हमने अपने यहाँ भारत में लोकतान्त्रिक नियमो की बुरी गति कर रखी है , जिसमे बहुमत का नियम सबसे पहले है |दोनों ही प्रकार के तंत्र में  बहुमत द्वारा ही नीतिया तय होती है | निर्वाचन में यह निश्चित होना चाहिए की विजयी प्रत्याशी  को  में डाले गए मतों में से कम से कम ५०% से १ अधिक मत प्राप्त हो |जबकि यहाँ भारत में  लोकतंत्र के दिखावटी मुखिया, राष्ट्रपति का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से होता है| और सबसे खतरनाक प्रावधान यह है की कार्यकारिणी का मुखिया, प्रधानमंत्री का निर्वाचन भी प्रत्यक्ष रूप से करना अनिवार्य नहीं होता है | वर्तमान प्रधानमंत्री भी राज्यसभा सदस्य है जहाँ जनता के मत का प्रत्यक्ष उपयोग नहीं होता है|  लेकिन एक प्रधानमंत्री के रूप में बने रहने के लिए  लोकसभा के सदस्यों का बहुमत उसके पास होना चाहिए , जिसमे १ +५०% का नियम अनिवार्य है | लेकिन हमारे सांसद  जिस प्रक्रिया से निर्वाचित होते है उसमे यह आवश्यक नहीं होता है की उन्हें बहुमत में वोट प्राप्त हुए हो और इसीलिए हमारे सांसद डाले गए वोटो में से ७% भी अपने पक्ष में पाकर चयनित  हो जाते है | मुश्किल से ही कोई सांसद हो जो यह दावा कर सके की उसे अपने निर्वाचन क्षेत्र से ५०% से भी अधिक वोट प्राप्त हुए हो |और इस प्रकार यह हमारेलोकतंत्र का क्रमश ढहना है | हमारे पास यहाँ तक की संवैधानिक प्रावधानों में भी वास्तविक लोकतंत्र है ही नहीं  | यह तो केवल एक झलक मात्र है | इसी से समाज में अभिजात शासन वर्ग और जाती, क्षेत्र, भाषा  और धर्मं की गन्दी ,भेद और फूट की राजनीती पनपती है | किसी भी  राजनेता के पास जीतने का यही मंत्र है की औरो को इतने टुकडो में बाँट दो की अपना हिस्सा सबसे बड़ा हो जाये | यह अनुवांशिक तौर पर व्याप्त हो चुका है|
जब तक हमारी लोकतान्त्रिक ढांचे की आधारभूत कमी दूर नहीं होती तब तक हम किसी सुधार की आशा नहीं कर सकते |
दो जरुरी आधारभूत सुधार मांगो को रखने की आवश्यकता है |
१. वर्त्तमान पटकथा के हिसाब से पहले  तो कार्यकारिणी के मुखिया, प्रधानमन्त्री का प्रत्यक्ष/सीधा  निर्वाचन हो | इसके लिए संवैधानिक संशोधन लाने होगा की गठबंधन  दौर की इस राजनीती में होना मुश्किल है, जहाँ एक छोटी क्षेत्रीय पार्टी को भी असंगत महत्व और मूल्य प्राप्त है | लेकिन हम शुरुआत  के तौर पर इस मांग का मुद्दा तो उठा ही सकते है | या दूसरा विकल्प यह हो की पहले कदम के रूप में  राष्ट्रपति शासन वाली सरकार जिसमे राष्ट्रपति का सीधा निर्वाचन हो , हो सकता है |
२. दूसरा यह की पंचायत से लेकर राष्ट्रपति तक के चुनाव में जीतने की शर्त , डाले गए कुल मतों में १+५० % मत प्राप्त करना अनिवार्य हो | यह अपेक्षाकृत आसान भी है | केवल “जनप्रतिनिधि अधिनियम” से संशोधन करने से यह हो जायेगा और साधारण बहुमत से इसे पारित भी किया जा सकता है | इससे दो सबसे बड़ी पार्टियों को सीधा लाभ मिलने की सम्भावना है, इसलिए यह सर्वसम्मति से हो भी सकेगा| यह नैतिक और तार्किक दोनों रूप से ही वजनदार तर्क है और कोई इसे नकार भी नहीं सकता | जिसे उसके निर्वाचन क्षेत्र की बहुमत जनता ने नकार दिया हो उसे जनता का प्रतिनिधित्व करने का कोई अधिकार नहीं है |
लेकिन यह कोई जादू की छड़ी भी नहीं है की सारी गड़बड़ियां  ही दूर हो जाएँगी | अंततोगत्वा हमें दो शताब्दी पूर्व के एतिहासिक अनुभवों के परे जनि की आवश्यकता है | वर्त्तमान व्यवस्था  ब्रिटिश शासन के परिणाम स्वरुप सामने आई है, इसकी जड़े वही उपनिवेशिक काल में जमी हुयी हैं| इसलिए अंतिम उपचार के लिए हमें मूल कारण तक जाना होगा और जिसके लिए हमें अपने राष्ट्र के इतिहास की और भी गहराइयो में जाना होगा |
हमारा ५००० वर्षो से भी अधिक का ज्ञात इतिहास है जिसमे प्रत्येक दूसरी शताब्दी में हमारा स्वर्णिम काल रहा है | और हमने आर्थिक सम्पन्नता, शिक्षा, विज्ञान और तकनीक, और सबसे महत्वपूर्ण शांतिपूर्ण सामाजिक-राजनैतिक तंत्र स्थापना में विश्व की अगुवाई की है | शासन तंत्र के विभिन्न प्रकारों  का हमने प्रयोग किया है|  हम भारत के विभिन्न भागो के उस विविध राजनीती तंत्र को पुनः नहीं ला सकते जो पहले हुआ करता था | हिन्दुओ का सदैव ही सामान सिद्धांत के विविध प्रगटीकरण में विश्वास रहा है और हमने राजनीती में भी इसे लागू किया था |चक्रवर्ती अपने जीते हुए राज्यों में उनके स्वयं के  लागू किये हुए शासन -व्यवस्था का सम्मान किया करते थे | इसी श्रंखला में हमारे यहाँ एक और जहाँ विविधताओं से पूर्ण राजनैतिक तंत्र वाले गणराज्य थे वाही दूसरी और मगध साम्राज्य जैसे जटिल ढांचे के  विविध रूप थे |  कुछ  व्यवस्थाये तो ऐसी थी जहाँ केवल एक महिला का ही शासन रहा | लेकिन इन सभी  का आधारभूत  सिद्धांत “धर्मं” था, उन सभी को एक सूत्र में बांधने वाला | आज वास्तव में जिस चीज की कमी है वाह है धार्मिक तंत्र |
आजके इस सामने आये तंत्र को स्वीकार्य कर हमें इसमें धार्मिक सिद्धांतो को लागू करना होगा | किसी ‘विदेशी’ को पचाने का यह हिन्दू तरीका है |  आज हमें वर्तमान समाज के अनुरूप  सनातन धर्म की व्याख्या और युगधर्म की आचार-संहिता तैयार करने के लिए एक नयी स्वच्छ स्मृति की आवश्यकता है | संविधान का यह हमारा स्वदेशी विचार है |
हमारी संसद-भवन  के  नक़्शे के पीछे की प्रेरणा मध्यप्रदेश के मितावली स्थित  चौसठ  योगिनी मंदिर का नक्शा है | वैसे ही हमारे लोकतंत्र को भी हमें अपने राष्ट्रधर्म के सिद्धांतो ठोस आधार पर आधारित करना होगा | वर्तमान लूली व्यवस्था की सम्पूर्ण शल्य-चिकित्सा बहुत जरुरी है न की केवल उपरी दिखावटी लीपापोती मात्र|

जनवरी 22, 2012 Posted by | सामायिक टिपण्णी | , , , , , , , , , , | टिप्पणी करे

Fractured Democracy : Demands Surgery


People’s power was amply exhibited in different protests in the year 2011. In a democratic setup public opinion is very important factor in policy making. Hence there is always a concerted effort on the part of the establishment to mange the public perception. With the explosion of media of mass communication this task has become more and more specialized. Print media has its own influence in the class of people in the polpulation but the spread of electronic channels and then the sudden explosion of social media has given the masses multiple avenues to express there opinion. The first two are influenced by the government by spending enormous amounts on advertisements. But the internet being an open forum without much financial involvement it is very difficult for the governments all over the world to effectively control this.

Professional perception managers are employed to meet this unprecedented challenge. The art and science has been developing gin the developed countries for more than decade now but we are experimenting with this in last couple of years. This government is learnt to have used most expensive professionals available in the field. It was reported in some news papers that these agencies have been advising the prince of the ruling party on matters like how to dress? How to speak? How to pick up a child at appropriate moment to be photographed etc. Same report claimed that the couple of day’s growth seen on the face is also a planned move suggested by PMs –Perception managers. On a more serious stage an example of effective perception management was the Mumbai fast of Anna. It was reversal of perceptions that worked against India Against Corruption. Earlier IAC had successfully created a perception (without any professional help) that Janalokpal is the key to all the problems related to Governance. The central government very cleverly managed to put forth that they have come up with Lokpal. May not be copycat of JLP but nevertheless a Lokpal is here. This created an overwhelming impression in the public mind that Mumbai fast is just an ego boosting exercise. Hence we did not see the response as before. It was naive on the part of team Anna to think that they are in an honest fight. They proved to be politically immature to match the choreography of the political managers of the government. Basically Bharatiya Public wants to believe in the Rule of law. They tend to follow the government even if little less than perfect. Agitation is only an extreme measure. The UPA had failed to give this room for an alternative earlier in April and August. After the 4th June crack down on the peaceful gathering of fasting protestors including women and children in the Ramlila grounds created an out rage. Public felt cornered hence the agitations got mass support. This time around the government was successful in creating a perception that the effort is on and there are parties like TMC apart from the opposition who are grinding the Govt for strong Lokpal, hence no need for extracurricular measures. This is most typical how Bharat works.

There is another extreme in the discourse. They claim that the system and not the governing group are responsible for the mess. The Democratic set-up adopted by Bharat is the root cause of all the problems. Even the team Anna members criticized the practice MPs following the party line. They demanded removing the provision of whip so that individuals can vote in the parliament according to their own thinking. This is height of duplicity. On one hand we are talking about people’s right to recall and on the other we want the MPs not to follow party discipline. The legal provisions of whip were strengthened by anti defection law after the repeated horse-trading episodes in the 1980s. An MP is elected on the party symbol. It is not his individual win. The party policy is projected to the public in the election; they are supposed to have voted accordingly. To claim that the individual will be in a better position to take moral position than within the party mandate may open flood gates for more dangerous corruption in the houses of Parliament. In fact the present irony of coalitions is also a great drama of our flawed democracy. The parties which fought against each other in the election come together and form the government. On one hand at the central level support of parties is bought by CBI threats or relaxations, on the other hand the same parties are target of vicious campaign at the State level.

But can we blame Democracy for all this? Contention that Democracy is the root cause of all the evil does not hold good in an objective analysis. Any other alternative will be inherently more prone to dishonesty and exploitation. Democracy as such at least notionally has the potential of generating people’s power as witnessed in the “Samagra Kranti” led by Jaiprakash Narain in 1977 and again during the Ayodhya agitation in 1992. The same was done apolitically last year. We can definitely infer that present form of democracy has created systemic faults that are responsible for the failure of governance mechanism in the country today. But to say that per say Democracy need to be negated does not go with the times. We will have to win the game by following the rules of the game. Reforms are no doubt needed in our democratic system. But we will have to demand reforms in accordance with the evolved system and not totally out of box.

Theoretically speaking, there are two forms of practicing Democracy. A > Direct Democracy – This is said to be practiced in the city states of Athens or some of the Ganas in the northern Bharat at the time of Alexander’s attack. The citizens directly participate in the governance process in legislature and they elect the executive, even the Judiciary in some cases.

B> Representative Democracy- The Westminster model that we have adopted as a legacy of British Raj. In this the representatives are elected by the citizens and they in turn ‘choose’ the Executive. Mostly the Judiciary is not elected but selected.

Both the models have their pros and cons. US has hybridized the two systems. It has direct elections for the executive heads in the states as well as at the Federal level. At the same time there is a representative houses for legislation primarily but it also serves as a regulatory authority on the Executive.  It seems the Judiciary is also elected in most of the States in US.

We, in Bharat seem to have made a total mess of the democratic principles. The most important of which is the Rule of the majority. Whether in the direct or representative democracy it is the majority that should decide the policy. The elections should ensure that the winning representative of the citizens should have the backing of at least one more than 50% of the polled votes. Here, in Bharat the Decorative head, President, is elected by indirect elections. The more damaging constitutional provision is that the executive Head, Prime-minister, as well need not even be elected directly. Present PM is Rajyasabha member, where the election does not involve citizen’s vote directly. But to continue as the Prime-minister he must always have backing of Majority Members of Loksabha. There 1+50% is mandatory. But the MPs are elected by a process where they do not need to have majority vote in their respective constituency. So, we have MPs who won the elections by securing only 7% of the polled votes. There are hardly a few members who can claim to have got more than 50% of the polled votes in their own Loksabha seat.

This is systemic failure of the democracy. We do not have democracy in practice here even in the constitutional provisions, it is only notional. Hence the rise of elite ruling class and also the evolution of increasingly divisive politics based on all the possible fault lines of caste, region, language or religion. The only thing the politician has to make sure to win an election is to divide others into enough groups to make his group largest. This is inherent in the system.

We can not hope to have any reforms unless we change this basic flaw in the democratic set-up. Two basic demands need to be put forward.

1)      Direct election of the head of the executive, Prime minister in present scenario. This will need constitutional amendment hence very difficult in the era of coalition politics in which even small regional parties have disproportionate importance and value. But we must start a discourse to create a demand for this. The other alternative is Presidential form of government with direct election of the President being the first step.

2)      Demand for making 1+50% as the winning criterion in all the elections from Panchayat to Rashtrapati. This is relatively easier. It can be done by amending the Peoples Representative act. This can be done by simple majority. The major two political parties are expected to benefit most by this reform so it can be done with consensus. It is morally and logically very sound argument and no one ca deny that those who are denied support by the majority of the voters in their constituency have no right to represent people.

These are not the magic wand reforms which will cure all the evils of our system. Ultimately we need to go beyond the historical experience of just a couple of centuries. The present day system has evolved out of the British raj and has its Historic roots in the colonial period. But for the final cure we will have to go to root cause and for that we will have to still deeper in the Historical experience of the nation. We have known history of more than 5000 years with a golden era every second century. We led the world in economic prosperity, Education, Science and Technology and most importantly a peaceful socio-political system. We had variety of political experiments. We can not bring back the diverse political systems which existed in different parts of Bharat. Hindus have always believed in diversity of expression of the same principle. We followed it in political systems also. The Chakravartis respected the existing system of the conquered state and allowed it to continue. We had so many variations of political systems Gana-rajya with total direct democracy on one end of the spectrum to different forms of complex structures like the Magadha Empire. There were systems where only women ruled. But the basic principle of rule was Dharma. That was the common thread.

What we lack today is the Dharmik System. Today we have to accept the system that has evolved and apply the Dharmik principles to it. That is the Hindu way of digesting the alien. We need a fresh Smriti to interpret Sanatana Dharma according to present day society and to codify Yugadharma. This is our indigenous idea of constitution. We need a Smriti instead of this cut & paste document, that we call Constitution of India.

The parliament house has drawn inspiration for its architecture from the Chausath Yogini Temple in Mitawali, Madhya Pradesh in the same way our democratic structure needs to be based on the sound foundations of the principles of the Dharma of the land. The fractured Democracy demands a complete surgery not just cosmetic make-over.

जनवरी 7, 2012 Posted by | सामायिक टिपण्णी, English Posts | , , , , , , , , , , , , , , , | 4 टिप्पणियां